वायु प्रदूषण ने आम लोगों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाकर बीते कुछ वर्षों में न सिर्फ आर्थिक बोझ को बढ़ाया बल्कि यह घातक और जानलेवा भी साबित हो रहा है। 2019 में उच्च रक्तचाप, तंबाकू के इस्तेमाल और कुपोषित आहार के बाद वायु प्रदूषण ही पूरी दुनिया में अकाल मृत्यु का चौथा सबसे बड़ा कारण रहा है। भारत में 2019 में 16.7 लाख मौतों का कारण वायु प्रदूषण रहा। इनमें 50 फीसदी यानी 851,698 मौतें देश के महज पांच राज्यों में ही हुई हैं।
इन पांच राज्यों की सूची में उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और राजस्थान शामिल हैं। वायु प्रदूषण के सर्वाधिक भुक्तभोगी यह पांच राज्य न सिर्फ बड़ी आबादी वाले हैं बल्कि इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय भी बेहद कम है। वायु प्रदूषण के कारण इन राज्यों में समयपूर्व मौतें और रुग्णता बढ़ी है जिससे इन पांच राज्यों को 2019 में 36,803 बिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत का नुकसान उठाना पड़ा।
वहीं, 2019 में 17 लाख मौतों में 58 फीसदी मौतें बाहरी वायु प्रदूषण (आउटडोर एयर पॉल्यूशन) के कारण हैं जबिक 36 फीसदी मौतें भीतरी यानी घर के भीतर होने वाले वायु प्रदूषण के कारण हैं। घर में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक प्रदूषित ईंधन से खाने का पकाया जाना है।
2019 में वायु प्रदूषण के यह नतीजे नए नहीं हैं बल्कि बीते कुछ वर्षों से यह प्रवृत्ति चली आ रही है। वहीं, सर्वाधिक चिंताजनक है कि इसके शिकार बच्चे होते हैं। यदि 1990 से 2018 तक उपलब्ध ग्लोबल बर्डन डिजीज (जीबीडी), 2017 के आंकड़े बताते हैं कि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को ही सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण जनित निचले फेफड़ों का संक्रमण (एलआरआई) होता है। जीबीडी 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक 1990 में पांच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की डायरिया से 16.73 फीसदी (4.69 लाख मौतें) हुई थीं जबकि 2017 में नियंत्रण से यह 9.91 फीसदी (एक लाख) पहुंच गईं।
वहीं, निचले फेफड़ों के संक्रमण से 1990 में 20.20 फीसदी (5.66 लाख मौतें) हुईं थी जो कि 2017 में 17.9 फीसदी (1.85 लाख) तक ही पहुंची। यानी करीब तीन दशक में एलआरआई से मौतों की फीसदी में होने वाली गिरावट की रफ्तार बेहद मामूली है, जिसका अर्थ है कि इस दिशा में प्रयास बहुत धीमे किए जा रहे हैं। वायु प्रदूषण में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 एक प्रमुख प्रदूषक है। इसका तय मानकों से कई गुना ज्यादा होना और वायु प्रदूषण जनित मौतों का सीधा संबंध देखा गया है। जहां पीएम 2.5 प्रदूषण ज्यादा रहा है और वहां होने वाली मौतें भी ज्यादा रही हैं। ऐसा कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में बताया जा चुका है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के मुताबिक पीएम 2.5 का सालाना सामान्य सांद्रण 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से नीचे का है। जबकि ऐसे राज्य जहां 20 गुना ज्यादा पीएम 2.5 प्रदूषण है और वहां मौतें भी सबसे ज्यादा हैं।