खास रपट: प्रदूषण रोकने में कितने कारगर रहे नए बीज?

छोटी अवधि वाले नए बीज, पराली की समस्या को दूर करने में कितने कामयाब साबित हो रहे हैं? पंजाब के सात जिलों में जमीनी हकीकत देखने के बाद विवेक मिश्रा की रिपोर्ट
पंजाब में छोटी अवधि वाले धान के बीजों का प्रचलन भी पराली की समस्या कम नहीं कर पा रहे हैं (फोटो : विकास चौधरी / सीएसई)
पंजाब में छोटी अवधि वाले धान के बीजों का प्रचलन भी पराली की समस्या कम नहीं कर पा रहे हैं (फोटो : विकास चौधरी / सीएसई)
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अक्टूबर महीने के आखिरी सप्ताह में पंजाब के किसान धान की कटाई में व्यस्त थे। कुछ खेतों में धान कटाई के बाद पराली में आग लगी थी और आसमान धुएं से भरे थे। बुआई में देरी के चलते इस बार खेतों से पराली हटाने का काम 10 नवंबर तक जारी रहा। आमतौर पर 4-5 नवंबर तक गेहूं की बिजाई का काम शुरू हो जाता है।

पंजाब में धान की कटाई के बाद गेहूं की बिजाई के लिए पर्याप्त समय निकालना किसानों के लिए बड़ी चुनौती है। लिहाजा, किसानों को धान की उन किस्मों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है जिससे उन्हें 20 से 35 दिन की मोहलत मिल सके। पंजाब के मनसा जिला मुख्यालय से 9 किलोमीटर दूर सदासिंह वाला गांव के रहने वाले 32 वर्षीय गुरसिमरन तीन वर्षों से छोटी अवधि वाली नई धान किस्मों को उपजा रहे हैं। धान कटाई में व्यस्त गुरसिमरन डाउन टू अर्थ से देरी का एक और कारण बताते हैं। वह कहते हैं, “मैं धान में नमी खत्म होने का इतंजार कर रहा था ताकि दाना मंडी से अपने उपज की सही कीमत मिल सके।”

सिविल इंजीनिरियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 2014 से ही गुरसिमरन अपनी पुश्तैनी 25 एकड़ की खेती को संभाल रहे हैं। इस बार वह काफी खुश हैं और कहते हैं कि तीन साल बाद कुल 123 दिन (नर्सरी के 30 दिन को मिलाकर) में तैयार होने वाली पीआर 126 किस्म की बेहतर उपज मिली है और लंबी अवधि वाली पूसा 44 और पीली पूसा की तुलना में इसकी पराली भी कम निकली है।

अमृतसर के चिब्बा गांव के गुरबचन सिंह पराली को लेकर अपना अनुभव साझा करते हैं, “पराली का कम-ज्यादा होना धान प्लांट की ऊंचाई पर निर्भर करता है। पूसा 44 किस्म की ऊंचाई 3.5 फीट और पीआर 126 की ऊंचाई करीब 2.5 फुट व पीआर 128 की ऊंचाई 3 फीट के आसपास होती है।”

लुधियाना स्थित पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी (पीएयू) के प्रधान राइस ब्रीडर और डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट ब्रीडिंग एंड जेनेटिक्स से संबद्ध जीएस मांगट बताते हैं कि नई किस्में बौनी, ज्यादा पैदावार वाली और ज्यादा बीमारियों से लड़ने की क्षमता रखती हैं। इन खास किस्म वाली बीजों से पराली में आग लगाने की घटनाओं का हल संभव है क्योंकि यह किसानों को धान की कटाई के बाद दूसरी फसल के लिए एक लार्जर विंडो (पर्याप्त समय) देती हैं।

हालांकि ग्राउंड पर इनमें से कई दावे किसानों के अनुभवों से मेल नहीं खाते हैं। किसान गुरसिमरन बताते हैं कि जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद खेती के लिए लौटे तो उन्हें छोटी अवधि में तैयार होने वाली धान के किस्म की दरकार थी क्योंकि वह लंबे वक्त से चली आ रही धान-गेहूं के फसली चक्र के बीच तीसरी फसल भी पैदा करना चाहते थे। इसलिए सितंबर, 2018 में उन्होंने पीएयू में किसान मेला में छोटी अवधि में तैयार होने वाली वाली किस्म पीआर 126 का अनुभव लिया। इसके बाद मार्च, 2019 में वहां से पीआर 126 का 24 किलो का पांच बीज बैग लेकर घर आए। हालांकि, 2019 और 2020 में खेतों में पूसा–44 की जगह पीआर 126 लगाने पर उन्हें घाटा भी उठाना पड़ा क्योंकि पूसा 44 से प्रति एकड़ 35 कुंतल तक उपज मिलती थी जबकि पीआर 126 से दोनों वर्ष औसत उपज 25-29 कुंतल प्रति एकड़ तक रही। यानी प्रत्येक वर्ष पूसा 44 की तुलना में करीब सात कुंतल तक पैदावार कम मिली (देखें, स्पष्ट संबंध,)।

पैदावार के कम होने से किसान की मेहनत बर्बाद हो जाती है और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बावजूद उनकी लागत नहीं निकल पाती। गुरसिमरन अपना अनुभव बताते हैं कि लंबी अवधि वाली पूसा 44 से प्रति एकड़ में 20 से 24 कुंतल तक पराली निकलती है, जबकि पीआर 126 की किस्म में प्रति महज 10 कुंतल पराली निकलती है। वहीं, मध्य अवधि में तैयार होने वाली पीआर 128 में पराली की उपज प्रति एकड़ 15 कुंतल तक है (देखें, झूठी उम्मीदें)।

पराली जलाने से रोकने के लिए प्रोत्साहित की जाने वाली छोटी अवधि वाली किस्म अपनाने के बावजूद गुरसिमरन पराली प्रबंधन के सवाल पर ठिठक जाते हैं और कहते हैं, “अभी ग्रीष्म मूंग की बुआई करनी है, ऐसे में वक्त कहां बचा है। डीजल की इस महंगाई (100 रुपए से अधिक प्रति लीटर) के वक्त में पराली तो जलानी ही पड़ेगी।”

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, इस बार मौसम की अनिश्चितताओं के कारण पंजाब में धान का क्षेत्र एक लाख हेक्टेयर तक घटा है। पंजाब में वर्ष 2020 में 31.48 लाख हेक्टेयर धान क्षेत्र था, इस बार यह 30.48 लाख हेक्टेयर ही रह गया। जीएस मांगट कहते हैं कि पंजाब में बासमती का क्षेत्र इस बार कम हो गया है और परमल किस्म का क्षेत्र बढ़ गया है। पीएयू के मुताबिक 2021 में एक बार फिर किसानों ने पंजाब में लंबी अवधि वाली किस्मों को ज्यादा तरजीह दी है और छोटी अवधि वाली किस्मों को कम किया है। वर्ष 2020 में पंजाब में 71.3 फीसदी परमल धान का क्षेत्र छोटी अवधि वाला था, 2021 में यह घटकर 67.7 फीसदी हो गया। इसके उलट लंबी अवधि वाला धान 2020 में 28.7 फीसदी था जो बढ़कर 32.3 फीसदी हो गई है।

पंजाब में उपज और लागत निकालने के लिए किसानों का लंबी अवधि वाले धान की तरफ आकर्षण बना हुआ है। हालांकि, बीते 10 वर्षों में नई किस्मों की आमद के चलते परमल (गैर बासमती) की कुल 23 प्रचलित किस्में हैं जो अलग-अलग जिलों में लगाई जाती हैं। बहरहाल छोटी और मध्यम अवधि (140 दिन से कम में तैयार होने वाली) में तैयार होने वाली किस्मों की तरफ धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहे किसान पैदावार कम होने की चिंताओं से घिर गए हैं। लिहाजा छोटी अवधि वाली किस्मों के कारण धान से गेहूं के बीच मिलने वाले समय का इस्तेमाल तीसरी फसल (आलू, मटर, समर मूंग) लगाकर कर रहे हैं। ऐसे में धान-गेहूं के बीच बड़ी मोहलत के बावजूद पराली में आग लगा देते हैं। पंजाब में लंबी अवधि वाली धान किस्मों को बीते तीन वर्षों से जोर-शोर से हतोत्साहित किया जा रहा है और इसका एक प्रमुख कारण पराली के बोझ को कम करना और पराली में आग लगाने की घटनाओं पर काबू पाना भी है।

पराली जलाने की मजबूरी को पंजाब के माझा क्षेत्र अमृतसर और तरन तारन जिले में भी किसानों ने साझा किया। अक्टूबर के अंत में तरनतारन जिले में परसौल गांव के 64 वर्षीय किसान बलेंद्र सिंह के खेतों में भी पराली जलाई जा रही थी। उन्होंने डाउन टू अर्थ से कहा “आग नहीं लगाएंगे तो क्या करेंगे? धान की पराली किसी काम की नहीं है। गेहूं के अवशेष की तरह न इसका बंडल बन सकता है और न इसे बेच सकते हैं। इसे कहां रखें?” बलेंद्र ने अपने खेतों में परमल धान की छोटी अवधि यानी कुल 140 दिन (नर्सरी के 30 दिन शामिल) में तैयार होने वाली किस्म पीआर 121 और बासमती की पूसा 1121 किस्म लगाई थी। वह बताते हैं कि पीआर 121 पर 1960 रुपए तय न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलती है लेकिन पूसा 1121 बासमती का दाम 4000 रुपए तक मिल जाता है।

इस अर्थशास्त्र के लिए अमृतसर और तरनतारन में किसान परमल किस्म की जगह बासमती को तरजीह देते हैं। इन्हें मंडी में बोली लगने के दौरान आढ़तियों को भाव के आधार पर हर साल बेचा जाता है। बलेंद्र बताते हैं कि पंजाब में चावल मिलों का दबदबा है। ऐसे में ज्यादातर उनकी मांग के अनुरूप ही किसान धान के बीज का चुनाव करते हैं। अमृतसर और तरणतारन में एमएसपी पर मिलने वाली परमल की छोटी अवधि वाली पीआर (पीआर 121, पीआर 126 आदि) से ज्यादा बासमती पूसा 1509 और पूसा 1121 पर केंद्रित होते हैं। यह भी पीआर की इन छोटी अवधि के आसपास ही तैयार होती है। पूसा बासमती 1509 और 1121 कुल 125-130 दिनों में तैयार हो जाते हैं। केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की पराली जलाने के मुद्दे पर गठित समीक्षा समिति ने अपनी 1 जनवरी, 2019 को अपनी रिपोर्ट में बताया कि पंजाब में 3,600 धान मिलों का नेटवर्क है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि छोटी अवधि वाली किस्मों से किसानों को तीसरी फसल या फसलों में विविधता का मौका मिल सकता है।

पराली और प्राकृतिक संसाधनों के लिए समस्या मानी जा रही 160 दिन से ज्यादा समय लेने वाली लंबी अवधि की धान किस्मों (पूसा 44 और पीली पूसा, डीजी पूसा) को स्थानांतरित करने के लिए पंजाब में 2013 से लेकर अब तक परमल की छह किस्में पीएयू की ओर से जारी की जा चुकी हैं। इनमें अभी सर्वाधिक चलन में 2013 में जारी की गई पीआर 121 है जो 140 दिन में तैयार होती है, इसके बाद 2017 में रिलीज की गई पीआर 126 प्रमुख किस्म है जो कुल 123 दिन में ही तैयार होती है।

पीएयू ने 2017 में लंबी अवधि वाली पूसा 44, पीली पूसा को गैर-सिफारिशी श्रेणी में डाल दिया है और केंद्र से इस किस्म को डी-नोटिफाई करने की भी अपील की थी। इसके अलावा 2018-2019 में छह जिलों–बरनाला, लुधियाना, मनसा, मोगा, मुक्तसर और संगरूर में किसानों को मुफ्त छोटी अवधि वाले बीज भी बांटे गए। जीएस मांगट डाउन टू अर्थ से बताते हैं, “पुरानी लंबी अवधि में तैयार होने वाली किस्में खरीफ के धान से रबी के गेहूं तक बिजाई के बीच महज 10 दिन की मोहलत छोड़ती थी। छोटी किस्में खासतौर से पीआर 126 से किसानों को 37 दिन का और पीआर 121 में 20 दिन का समय मिल जाता है। किसान गेहूं के लिए आदर्श समय 5 नवंबर तक बिजाई कर सकते हैं। यह लंबी अवधि की तुलना में काफी बड़ी मोहलत है।”

हालांकि, अमृतसर के अजनाला तहसील में कोटला डूम गांव के किसान बच्चितर सिंह डाउन टू अर्थ से बताते हैं, “उनके पास पांच एकड़ खेत है जिसमें उन्होंने छोटी अवधि वाली परमल पीआर 121 को लगाया था। यह भी नर्सरी के साथ तैयार होने में 150 दिन तक ले लेती है। फिर इसकी पराली भी प्रति एकड़ 20 से 25 कुंतल तक निकलती है। ऐसे में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया है।” वह कहते हैं कि किसानों को पराली के लिए अलग से ही मदद देनी पड़ेगी। राज्य सरकार सीमांत और छोटे किसानों को 2,500 रुपए प्रति एकड़ पराली प्रबंधन की मदद देने से मुकर गई है। मार्च 2020 के बाद से इस मद में किसी भी योग्य किसान को पैसे नहीं दिए गए।

जीएस मांगट पीएयू के जरिए विकसित पीआर 126 को “वंडर सीड” की संज्ञा देते हैं। उनका मानना है कि यह परमल धान में किसानों के लिए बहुत ही मददगार होगी। हालांकि किसान सिर्फ दुविधा में नहीं हैं बल्कि तेजी से मौसम के बदलते स्वरूप ने उन्हें झटका देना शुरू कर दिया है और वैज्ञानिक प्रयासों को भी अनुपयोगी बनाने लगा है।

पीएयू के कृषि वैज्ञानिक बूटा सिंह ढिल्लों कहते हैं, “यदि पीआर 121, पीआर 124, पीआर किस्म की रोपाई 15 जून से 25 जून कर दें और पीआर 126 की रोपाई 15 जून के बजाए 5 जुलाई को कर दें तो पैदावार में में फर्क नहीं पड़ेगा।” वह बताते हैं कि इससे न सिर्फ पराली का बोझ कम होगा बल्कि गेहूं की बिजाई के लिए भी ज्यादा समय मिलेगा। पीएयू ने पंजाब में धान की बुआई के लिए सरकार को 20 जून से 25 जून करने की सिफारिश की है। इस तारीख से पहले धान रोपाई पर रोक लगने से भूजल संकट का समाधान भी हो सकता है क्योंकि जून के आखिरी में बारिश शुरू हो जाती है। हालांकि, इससे पराली की समस्या का हल नहीं निकलता।

गुरुसिमरन बताते हैं कि छोटी अवधि वाली किस्मों से 20-35 दिन की मोहलत मिलने का दावा व्यावहारिक नहीं है। यदि छोटी अवधि वाली किस्मों की यदि पहले बुआई कर दी जाए तो गर्मी के कारण उपज कम हो जाती है। पिछले दो वर्षों से सितंबर महीने में ठीक-ठाक गर्मी पड़ रही है और दोनों वर्ष छोटी अवधि वाली किस्म पीआर 126 और पीआर 128 की उपज 30 कुंतल प्रति एकड़ से कम रही। ऐसे में इस बार मध्य जुलाई में पीआर 126 और पीआर 128 लगाया था जिसकी उपज 30 कुंतल प्रति एकड़ से ज्यादा आई है। ऐसा अनुभव है कि यदि तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से कम रहे तो धान की बालियां अच्छी बनती हैं और छोटी अवधि वाली किस्मों पीआर 126 की पैदावार भी पूसा 44 के बराबर करीब 33 क्विंटल तक ही होती है। लेकिन यदि देर से लगाएं तो तीसरी फसल के लिए किसानों के पास खास समय नहीं बचता है और वह पराली का खर्चा नहीं उठा सकते। ऐसे में उन्हें पराली जलानी पड़ती है। वहीं, छोटी अवधि वाली किस्मों का यह भी मकसद है कि किसान अपनी फसलों में विविधता लाएं और तीसरी फसल का लाभ भी लें, ऐसे में यह दोनों मकसद पूरे नहीं होते।

इसके अलावा छोटी अवधि की किस्में अपनाने वाले कई किसानों का तर्क है कि वह मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने और अपनी आय पर लगने वाली चोट को कम करने के लिए ही तीसरी फसल ग्रीष्म मूंग या आलू-मटर की तरफ बढ़ रहे हैं। संगरूर जिले के 48 वर्षीय किसान हरपाल सिंह कहते हैं कि छोटी अवधि वाली पीआर 121 की पैदावार प्रति एकड़ 30 कुंतल के आसपास है। यह लंबी अवधि वाली किस्मों से करीब 10 दिन पहले तैयार हो जाती है। ऐसे में गेहूं बिजाई के लिए समय भले ही 10 दिन ज्यादा मिल जाए लेकिन प्रति एकड़ 20 कुंतल के आसपास पराली निकलती है जिसका निपटान काफी खर्चीला है। कम से कम 4,500 रुपए प्रति एकड़ तक का खर्च पड़ेगा। इसलिए पराली जलाना ही उपाय बचा है। वह कहते हैं कि पीआर 121 में भी बीमारी लगने लगी है और आगे वह नई किस्म लगाएंगे।

गैर नोटिफाई बीज का इस्तेमाल

भूजल संकट वाले क्षेत्र में दो से ज्यादा दशकों से लोकप्रिय लंबी अवधि वाली धान किस्मों पूसा 44 और पीली पूसा को प्राकृतिक संसाधनों का दुश्मन माना जा रहा है और बीते दो से तीन वर्षों से इन पर रोकथाम लगाई जा रही है। यह किस्में केंद्र सरकार की अधिसूचित श्रेणी में ही नहीं हैं। अमृतसर और तरनतारन को छोड़कर मालवा क्षेत्र के जिलों में इन बेहद पुरानी किस्मों का अभी तक दबदबा है। लंबी अवधि के बावजूद पैदावार अच्छी होने की वजह से किसान इन किस्मों को छोड़ना नहीं चाहते। जीएस मांगट कहते हैं कि मालवा क्षेत्र में लगातार किसानों से अपील की जा रही है।

हालांकि वहां किसानों में छोटी अवधि वाली किस्मों को अपनाने की रफ्तार काफी धीमी है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक नाम न उजागर करने की शर्त पर डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि लंबी अवधि वाली पूसा 44 और पीली पूसा को कभी अधिसूचित ही नहीं किया गया, इसलिए उसे तकनीकी तौर पर डी-नोटिफाई भी नहीं किया जा सकता, ऐसे में इन किस्मों के ब्रीडर बीज ही बीते तीन वर्षों से बनाने बंद कर दिए गए हैं। संभव है कि किसी वर्ष में राज्यों की ओर से इसे नोटिफाई किया गया हो।



आईसीएआर के अतिरिक्त महानिदेशक (बीज) डीके यादव ने कहा कि हमने लंबी अवधि वाली पूसा 44 को डी-नोटिफाई नहीं किया है, हालांकि इसकी बीज को पूरी तरह हतोत्साहित किया जा रहा है और पीएयू के साथ मिलकर छोटी अवधि वाली किस्मों को पंजाब में तरजीह दी जा रही है। पीआर 126 धान की किस्म कुल 123 दिन में तैयार हो जाती है। यह निश्चित ही पराली में आग लगने की समस्या का भी समाधान है। किसी भी नए किस्म को बहुत ही धीरे-धीरे अपनाया जाता है। ऐसे में उम्मीद है कि बेहतर पैदावार वाली इस किस्म को आगे किसान अपनाएंगे।

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने पराली में आग लगने की घटनाओं के मुद्दे पर 19 नवंबर, 2018 को “प्रमोशन ऑफ एग्रीकल्चरल मैकेनाइजेशन फॉर इन-सीटू मैनेजमेंट ऑफ क्रॉप रेजिड्यू इन स्टेट्स ऑफ पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एंड दिल्ली” नाम की योजना के तहत समीक्षा के लिए 6 सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति ने 1 जनवरी, 2019 को अपनी रिपोर्ट में कहा गया कि पूसा 44 किसानों को इसलिए ज्यादा पसंद हैं क्योंकि “यह अन्य किस्मों की तुलना में प्रति हेक्टेयर 2 कुंतल ज्यादा उपज देती है। हालांकि इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए।”

लंबी अवधि वाली धान किस्मों की उपज के बारे में तरनतारन जिले के रक्सौल गांव में ठेके पर खेती करने वाले किसान हरपाल सिंह डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि वह मूलरूप से संगरूर के रहने वाले हैं और वहां उनके समूचे गांव में पूसा 44 और पीली पूसा ही लगी है। वह बताते हैं कि इन दोनों की उपज अन्य किस्मों के मुकाबले 4 से 5 कुंतल तक ज्यादा है। हरियाणा सीड्स डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड के मुताबिक, पूसा 44 को 2 सितंबर, 1994 में रिलीज किया गया था। हालांकि केंद्र के दस्तावेजों में इसकी अधिसूचना के कोई कागज और तारीख नहीं हैं।

पीएयू के मुताबिक भी यह 1994 में रिलीज हुई थी। लंबी अवधि की होने के बावजूद बीते 24 वर्षों से यह किस्में बेहतर उपज के कारण किसानों की प्रिय किस्म बनी हुई हैं। तेजी से बदलते हुए इस बीज संसार से किसान भ्रमित भी हो रहे हैं। वह पुरानी बीजों पर पैदा हुआ विश्वास खत्म नहीं करना चाहते। छोटी अवधि वाले परमल के नए बीजों की उम्र क्या है? इस सवाल पर आईसीएआर के एडीजी डॉक्टर डीके यादव डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि सीड का गैजेटियर नोटिफिकेशन में इस तरह का कोई लिखित नॉर्म नहीं है लेकिन 10 से 15 वर्ष में किसी बीज को रिप्लेस कर दिया जाना चाहिए। हम इस दिशा में काम कर रहे हैं कि अच्छी पैदावार और छोटी अवधि वाले बीज पर काम किया जा रहा है।

कम अवधि वाला बासमती

हाल ही में बासमती के लिए पंजाब में एक और किस्म जारी की गई है। गैर बासमती पीआर 126 की तरह यह भी 30 दिन की नर्सरी मिलाकर 125 दिन में तैयार होती है। इसे पीबी 07 या पंजाब 7 कहा गया है। अमृतसर में कसेल गांव के किसान प्रभपाल सिंह ने बताया कि यह बीज उनके परिवार के जरिए संरक्षित की गई रावी बेसिन की वास्तविक बासमती 386 का पूसा 1121 के साथ मेल करके तैयार की गई है। वहीं, पीएयू का दावा है कि अभी पूसा 1509 और 1121 किस्म वाली बासमती की पैदावार जहां 13 से 18 कुंतल है, वहीं इसकी पैदावार प्रति एकड़ 30 कुंतल तक होगी और सबसे खास बात इसमें पुरानी बासमती की सुगंध भी होगी।

पराली का लोड इस किस्म में भी कम है लेकिन 2020 में जारी यह किस्म प्रायोगिक तौर पर आगे बढ़ रही है। पंजाब के पास परमल में पीआर 126 और सुगंध वाली बासमती में पीबी 07 सीड उपलब्ध हो रही है। हालांकि यह बीज भी किसानों को तीसरी फसल के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही हैं जो पराली में आग लगने के संकट पर बहुत फर्क नहीं डाल रही। डाउन टू अर्थ ने पंजाब के 22 जिलों में 2017 और 2020 के पराली में आग लगने की घटनाओं का विश्लेषण करने पर पाया कि सभी जिलों में बीते चार-पांच वर्षों में भले ही इन खास किस्म के बीजों का प्रयोग बढ़ा हो लेकिन आग लगने की घटनाओं में अधिकांश जगह वृद्धि हुई है।

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