जापानी वैज्ञानिकों को पहली बार बादलों में माइक्रोप्लास्टिक्स की मौजूदगी के सबूत मिले हैं। जो स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिहाज से बेहद हानिकारक साबित हो सकते हैं। शोधकर्ताओं का भी मानना है कि इसका जलवायु और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। बता दें कि प्लास्टिक के अत्यंत महीन कणों को जिनका आकार पांच मिलीमीटर या उससे कम होता है, माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है।
रिसर्च के अनुसार हर साल प्लास्टिक के करीब एक करोड़ टन टुकड़े जमीन से समुद्र में पहुंच रहे हैं, जहां से वो वायुमंडल में अपना रास्ता खोज लेते हैं। देखा जाए तो बादलों में इनकी मौजूदगी एक बड़े खतरे की ओर इशारा करती है। एक बार बादलों में पहुंचने के बाद यह कण वापस 'प्लास्टिक वर्षा' के रूप धरती पर गिर सकते हैं। इस तरह जो कुछ भी हम खाते, पीते हैं, यह उसे दूषित कर सकते हैं।
जर्नल एनवायरनमेंट केमिस्ट्री लेटर्स में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने माउंट फूजी के शिखर के साथ-साथ इसकी दक्षिणपूर्वी तलहटी और माउंट ओयामा के शिखर से 1,300 से 3,776 मीटर की ऊंचाई पर बादल से लिए पानी के नमूनों का विश्लेषण किया है। इसके भौतिक और रासायनिक गुणों की जांच करने के लिए वैज्ञानिकों ने इमेजिंग तकनीक की मदद ली है।
अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी का पता लगाने के साथ-साथ यह भी जानने का प्रयास किया है कि प्लास्टिक के यह महीन कण बादलों के निर्माण और जलवायु को कैसे प्रभावित करते हैं।
शोधकर्ताओं ने इन नमूनों में प्लास्टिक के नौ अलग-अलग तरह के पॉलिमर (पॉलीइथाइलीन, पॉलीप्रोपाइलीन, पॉलीइथाइलीन टेरेफ्थेलेट, पॉलीमिथाइल मेथैक्रिलेट, पॉलियामाइड 6, पॉली कार्बोनेट, एथिलीन-प्रोपलीन कॉपोलीमर या पॉलीइथाइलीन-पॉलीप्रोपाइलीन एलॉय, पॉलीयुरेथेन) और एक तरह की रबर की भी पहचान की है। माइक्रोप्लास्टिक (एएमपी) के इन कणों का व्यास 7.1 से 94.6 माइक्रोमीटर के बीच दर्ज किया गया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक बादलों में मिले यह माइक्रोप्लास्टिक मुख्य रूप से समद्रों में उत्पन्न हुए थे।
रिसर्च में वैज्ञानिको को बादल के हर एक लीटर पानी में प्लास्टिक के 6.7 से 13.9 कण मिले हैं। हालांकि अध्ययन के दौरान बादलों से जो माइक्रोप्लास्टिक के कण मिले हैं उनकी संख्या आर्कटिक, यूरोप, एवरेस्ट और अंटार्कटिका जैसे अन्य क्षेत्रों में मिले माइक्रोप्लास्टिक्स की तुलना में बहुत कम थी। दिलचस्प बात यह है कि नमूनों में अधिकांश पॉलीप्रोपाइलीन टूट गया था और इसमें कार्बोनिल और हाइड्रॉक्सिल (ओएच) की मौजूदगी सामने आई थी।
जलवायु पर भी डाल सकते हैं गंभीर असर
गौरतलब है कि कभी जिस प्लास्टिक को वरदान समझा जाता था, वो अब एक बड़ी समस्या का रूप ले चुकी है। आज धरती का हर कोना इसके बढ़ते प्रदूषण से जूझ रहा है। बात चाहे समुद्र की अथाह गहराइयों की हो या निर्जन अंटार्कटिका की या फिर हिमालय जैसे ऊचें पहाड़ों की वैज्ञानिकों को हर जगह इसकी मौजूदगी के सबूत मिले हैं।
यहां तक की प्लास्टिक के इन महीन कणों ने इंसानी शरीर में प्रवेश का रास्ता भी ढूंढ लिया है। अब तक इंसानी फेफड़ों, प्लेसेंटा, हृदय, नसों और रक्त में भी इसके होने के प्रमाण सामने आ चुके हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक प्लास्टिक के यह महीन कण न केवल पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं। साथ ही यह इंसानों में हृदय और फेफड़ों सम्बन्धी बीमारियों के साथ-साथ कैंसर का भी कारण बन सकते हैं। इतना ही नहीं हमारे भोजन, हवा और पानी तक में मौजूद यह माइक्रोप्लास्टिक्स, बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स को 30 गुना तक बढ़ा सकते है।
बादलों से मिले नमूनों में कार्बोनिल और हाइड्रॉक्सिल जैसे माइक्रोप्लास्टिक्स बेहद आम थे जो पानी को आकर्षित करने की विशेषता रखते हैं। इसका मतलब है कि उन्होंने बादल, बर्फ और पानी की बूंदों के निर्माण में भूमिका निभाई होगी। रिसर्च से पता चलता है कि बहुत ज्यादा ऊंचाई पर मौजूद माइक्रोप्लास्टिक्स न केवल बादलों के निर्माण को प्रभावित कर सकते हैं, बल्कि साथ ही यह जलवायु पर भी असर डाल सकते हैं।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि एक बार प्लास्टिक के महीन कण जब ऊपरी वायुमंडल में पहुंचते हैं, तो सूर्य के पराबैंगनी विकिरण के संपर्क में आने से टूटने लगते हैं, जिससे ग्रीनहाउस गैसें उत्पन्न होती हैं, जो जलवायु में आते बदलावों को तेज कर सकती हैं।
ऐसे में इस बढ़ते खतरे के बारे में वासेदा विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता हिरोशी ओकोची का कहना है कि, "अगर 'प्लास्टिक प्रदूषण' के इस मुद्दे को सही तरीके से न निपटा गया, तो वो पारिस्थितिकी के साथ-साथ जलवायु संबंधी खतरों को जन्म दे सकते हैं।“उनके मुताबिक इस भविष्य में पर्यावरण को गंभीर नुकसान हो सकता है, जिसे किसी भी तरह पलटा नहीं जा सकेगा।