बैठे ठाले: लंग्स ही तो है न संग-ओ-खिश्त

मुहल्ले में सांस के कई डॉक्टरों ने गुमटी खोल ली है, राममनोहर लोहिया अस्पताल में प्रदूषण ओपीडी शुरू हो गई है। कई नए कफ-सिरप बाजार में आ गए हैं, पर तुम्हें अपने सिरप से फुर्सत मिले तब न!
सोरित / सीएसई
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इस साल भी शहर में ठंड से पहले ही कड़वी-हवा ने दस्तक दी थी। गर्द-प्राइवेट गाड़ियों के धुएं और पीएम-2.5 से बोझिल एक शाम बल्लीमरान की दीवारों पर आहिस्ता-आहिस्ता अंधेरे की चादर ओढ़ती जा रही थी।

अपने कमरे में बुरी तरह खांसते हुए उन्होंने कहा,

“दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है, आखिर इस दर्द की दवा क्या है

हमको सरकार से सलूशन की है उम्मीद,जो नहीं जानते सलूशन क्या है?”

उमराव बेगम चिढ़ कर बोलीं, “मैं कहती हूं, किसी डॉक्टर के पास आप क्यों नहीं चले जाते? इतनी बार कहा है कि सिगरेट-हुक्का वगैरह पीना बंद कर दो, वह तो सुनोगे नहीं।”

वह अपने इंस्टा के स्टेटस पर कुछ टाइप करने लगे, “लंग्स ही तो है

न संग-ओ-खिश्त गर्द से भर न आए क्यूं

खांसेंगे हम हजार बार, कोई हमें सताए क्यूं।”

उमराव बेगम की आवाज आई, “मुहल्ले में सांस के कई डॉक्टरों ने गुमटी खोल ली है, राममनोहर लोहिया अस्पताल में प्रदूषण ओपीडी शुरू हो गई है। वहां एक बार जाते क्यों नहीं?”

उन्होंने कहा, “हमको मालूम है अस्पतालों की हकीकत लेकिन,

दिल के खुश रखने को ‘गालिब’ ये खयाल अच्छा है।”

रसोई से आवाज आई, “सुना है सड़कों पर सुबह शाम फव्वारा-गाड़ियां चल रहीं है और तो और नकली बारिश करवाने पर भी केंद्र और राज्य सरकार के बीच रजामंदी हो गई है।”

खिड़की के बाहर गली में बढ़ती जा रही धुंध को देखते हुए वह बोले,

“ईमां मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र

वाटर-स्प्रिंक्लर मिरे पीछे है ट्रैफिक-जाम मिरे आगे...

“फिर उसी बेवफा पे मरते हैं

फिर वही जिंदगी हमारी है।”

उमराव कहां हार मान वाली थीं? उन्होंने कहा, “हां यह सही है कि सरकार की नींद जरा देर से खुलती है।”

मिर्जा ने कहा, “बे-खुदी बे-सबब नहीं ‘गालिब’

कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है।”

उमराव बेगम बोलीं, “तो अब तुम्हीं बता दो कि वायु-प्रदूषण कैसे खत्म हो?”

वह बोले, “विकास और प्रदूषण अस्ल में दोनों एक हैं

मौत से पहले आदमी प्रदूषण से नजात पाए क्यूं?”

उमराव बेगम उबल पड़ीं, “कल्लो बात! यानी हम सब को इसी तरह वायु-प्रदूषण में जिंदगी भर जीना होगा?”

वह बोले, “रंज से खूगर हुआ इंसां तो मिट जाता है रंज

प्रदूषण मुझ पर पड़ीं इतनी कि अब इसकी आदत हो गई।”

उमराव बेगम बोलीं, “तुमसे तो बात करना ही बेकार है।” और वह फिर से फेसबुक देखने लगीं।

दरवाजा खोलकर वह गली में आ गए। पूरी गली को धुंध और ई-रिक्शा की भीड़ ने घेर रखा था। चलने की रत्ती भर जगह नहीं थी। उस पर स्कूटर, कार के हॉर्न के शोर और गाड़ियों के धुएं ने माहौल को दमघोंटू बना दिया था।

वह बुदबुदाए,“न था कुछ तो प्रदूषण था कुछ न होता तो प्रदूषण होता

डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता।”

उन्होंने मुड़कर आखिरी बार हवेली को देखा फिर गहराती धुंध और ट्रैफिक के जाम में कहीं खो गए।

आज भी लोग कहते हैं,

“हुई मुद्दत कि ‘गालिब’ मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता!”

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