वैज्ञानिकों को बंगाल डेल्टा के 90 फीसदी मेंढकों में माइक्रोप्लास्टिक के सबूत मिले हैं जोकि ताजे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र पर मंडराते प्लास्टिक प्रदूषण के खतरे की ओर इशारा करते हैं। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि बंगाल डेल्टा, दुनिया का सबसे बड़ा डेल्टा भी है, जिसे गंगा या सुंदरबन डेल्टा के नाम से भी जाना जाता है।
यूं तो मेंढक, कीटों की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने में मददगार होते हैं, जो एक तरह के प्राकृतिक कीटनाशक हैं। ऐसे में इनपर पड़ने वाला असर कीटों की संख्या में असंतुलन पैदा कर सकता है, जो पूरे इकोसिस्टम को प्रभावित कर सकता है। यह अध्ययन बांग्लादेश में माइक्रोप्लास्टिक के बढ़ते प्रदूषण की ओर भी इशारा करता है।
माइक्रोप्लास्टिक एक ऐसा जहर है जो बड़ी तेजी से फैल रहा है। आज दुनिया में शायद ही ऐसी कोई जगह है जो प्लास्टिक के इस बढ़ते खतरे से बची है। माइक्रोप्लास्टिक दुनिया पर इस कदर हावी हो चुका है कि यह न केवल हमारे वातावरण में बल्कि उसके जरिए हमारे शरीर के विभिन्न अंगों और दूसरे जीव-जंतुओं के शरीर में भी अपनी पैठ बना चुका है।
रिसर्च के मुताबिक प्लास्टिक के यह महीन कण दुनियाभर में ताजे पानी में अपनी पैठ बना चुके हैं। ऐसे में कई मछलियां और उभयचर जीव अपने भोजन के झांसे में इन प्लास्टिक कणों को निगल रहे हैं। देखा जाए तो मेंढक जैसे उभयचर जीव, ताजे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। वहीं हाल के वर्षों में जिस तरह से इन जीवों की आबादी में वैश्विक रूप से गिरावट देखी गई है उसके चलते इन पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
हालांकि इसके बावजूद बहुत कम अध्ययनों में मेढकों के माइक्रोप्लास्टिक्स के संपर्क में आने का आंकलन किया गया है। अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने बंगाल डेल्टा के विभिन्न क्षेत्रों से नौ अलग-अलग प्रजातियों के 27 मेंढकों को एकत्र किया था। इसके बाद आवास, लम्बाई और वजन के आधार पर इनकी तुलना की गई है। रिसर्च के अनुसार माइक्रोप्लास्टिक के सेवन से मेंढकों के स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान हो सकता है, यहां तक कि इससे उनकी मौत भी हो सकती है।
एशियन कॉमन टॉड में पाए गए माइक्रोप्लास्टिक्स के सबसे ज्यादा कण
अध्ययन किए गए इन मेंढकों में एशियन कॉमन टॉड, डार्क-स्पॉटेड मेंढक, स्किटरिंग मेंढक, हिमालयन टॉड, ब्रैकिश मेंढक, बोई वार्ट मेंढक, सामान्य वृक्ष मेंढक, बुलफ्रॉग और क्रैब ईटिंग फ्रॉग शामिल थे। इस रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनके अनुसार 90 फीसदी मेंढकों के गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट (जीआईटी) में माइक्रोप्लास्टिक के कण पाए गए थे। जो टैडपोल और मेंढकों पर किए गए अन्य अध्ययनों की तुलना में अपेक्षाकृत रूप से अधिक है।
इतना ही नहीं माइक्रोप्लास्टिक के यह कण सबसे ज्यादा एशियन कॉमन टॉड (दत्ताफ्रीनस मेलानोस्टिक्टस) में पाए गए थे। इस प्रजाति के हर मेंढक में औसतन माइक्रोप्लास्टिक के 18.6 कण पाए गए थे। स्टीरियो माइक्रोस्कोप की मदद से किए गए इस विश्लेषण से पता चला कि इनमें से माइक्रोप्लास्टिक के ज्यादातर कण फाइबर जैसे थे। पाए गए माइक्रोप्लास्टिक के सभी कणों में इनकी मात्रा करीब 84 फीसदी थी। वहीं इनमें से अधिकांश कण रंगहीन थे।
मेंढकों में पाए गए माइक्रोप्लास्टिक्स के इन कणों में किस तरह के पॉलिमर मौजूद थे। इसके लिए वैज्ञानिकों ने फूरियर ट्रांसफॉर्म इन्फ्रारेड (एफटीआईआर) विश्लेषण तकनीक की मदद ली है। इस विश्लेषण से पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक्स के इन कणों में चार अलग-अलग तरह के पॉलिमर पाए गए, जिनमें पॉलीएमाइड (पीए), पॉलीस्टाइरीन (पीएस), एक्रिलोनिट्राइल ब्यूटाडीन स्टाइरीन (एबीएस), और एथिलीन विनाइल एसीटेट (ईवीए) के पॉलीमर शामिल थे।
वैज्ञानिकों को मेंढकों की लम्बाई, वजन और माइक्रोप्लास्टिक्स के कणों की मात्रा में कोई खास सम्बन्ध देखने को नहीं मिला था। हालांकि मेंढकों के गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट (जीआईटी) यानी जठरांत्र पथ में बड़ी संख्या में माइक्रोप्लास्टिक्स का पाया जाना, यह दर्शाता है कि सुंदरबन डेल्टा में पाए जाने वाले उभयचर और अन्य जीवों के लिए माइक्रोप्लास्टिक एक बड़ा खतरा है। जो वहां के इकोसिस्टम के लिए खतरा पैदा कर सकता है।
देखा जाए तो दुनिया भर में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक कचरे को जल स्रोतों और पयावरण में छोड़ा जा रहा है। बांग्लादेश भी उससे अलग नहीं है। जहां बड़ी संख्या में प्लास्टिक और माइक्रोबीड्स युक्त सौंदर्य उत्पादों को लोगों द्वारा नियमित रूप से उपयोग किया जा रहा है और बाद में ऐसे ही खुले वातावरण में छोड़ दिया जाता है। जो माइक्रोप्लास्टिक्स के रूप में वापस लौट रहा है।
इससे पहले भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किए अध्ययन में कावेरी नदी में पाए जाने वाले जीवों में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी का पता चला था। जर्नल इकोटॉक्सिकोलॉजी एंड एनवायर्नमेंटल सेफ्टी में प्रकाशित इस रिसर्च के मुताबिक कावेरी नदी में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक जैसे प्रदूषक मछलियों के कंकाल में विकृति पैदा कर रहे हैं। साथ ही बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण के चलते इनके विकास पर भी असर पड़ रहा है।