भारत के आठ बड़े शहरों में 2005 से 2018 के बीच वायु-प्रदूषण से एक लाख असामयिक मौतें

आठ बड़े शहरों में हुए अध्ययन के नतीजे दिखाते हैं कि महामारी से ज्यादा जानलेवा है वायु-प्रदूषण
भारत के आठ बड़े शहरों में 2005 से 2018 के बीच वायु-प्रदूषण से एक लाख असामयिक मौतें
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एक नए अध्ययन में पाया गया है कि मुंबई, बेंगलुरू, कोलकाता, हैदराबाद, चेन्नई, सूरत, पुणे और अहमदाबाद में 2005 से 2018 के बीच वायु-प्रदूषण के कारण एक लाख से ज्यादा असामयिक मौतें दर्ज की गई हैं।

साइंस एडवांस्ड में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, इस अवधि के दौरान बेंगलुरू, हैदराबाद, कोलकाता और पुणे में प्रति एक लाख की आबादी पर असामयिक मौतों में सबसे ज्यादा वृद्धि पाई गई। यह इन शहरों में क्रमशः 93.9, 96.4, 82.1 और 73.6 थी।

मुंबई, सूरत, चेन्नई और अहमदाबाद में एक लाख की आबादी पर वायु-प्रदूषण के कारण समय से पहले होने मौतों में वृद्धि क्रमशः 65.5 58.4, 48 और 47.7 पाई गई।

हालांकि इस अध्ययन में विश्व स्वास्थ्य संगठन की सूची में, दुनिया के सबसे प्रदूषित बीस शहरों में शामिल दिल्ली, नोएडा और फरीदाबाद के बारे में विचार नहीं किया गया।

अध्ययन के प्रमुख लेखक और यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के रिसर्च फेलो कर्ण वोहरा ने डाउन टू अर्थ को बताया - ‘हम उष्ण-कटिबंधीय क्षेत्र में तेजी से बढ़ते ऐसे शहरों का मूल्यांकन करना चाहते थे, जिनकेे 2100 तक मेगासिटी में बदलने का अनुमान है, और इनमें से ऊपर दिए गए आठ शहर भारत में हैं।’

वह आगे कहते हैं - ‘हम उन शहरों में वायु की गुणवत्ता में दीर्घकालिक परिवर्तनों की मात्रा निर्धारित करना चाहते थे, जिनमें जमीन से व्यापक निगरानी करने वाले नेटवर्क का अभाव है।’

वोहरा और उनके सहयोगियों ने 2005 से 2018 के बीच उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वायु-प्रदूषकों से संबंधित आंकड़े इकट्ठा करने के लिए नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) उपग्रहों पर सवार उपकरणों पर भरोसा किया।

वोहरा के मुताबिक, - ‘उष्णकटिबंधीय क्षेत्र, वायु-प्रदूषण की अगली सीमा में हैं। वे अप्रत्याशित रूप से तेज गति से इसका सामना कर रहे हैं। इन क्षेत्रों में आने वाले देशों में से ज्यादातर देशों ने अभी तक वायु-प्रदूषण से निपटने के लिए नीतियों और आधारभूत संरचना का निर्माण नहीं किया है।’

उनके विश्लेषण में पाया गया कि दुनिया भर में हर साल वायु-प्रदूषण बढ़ रहा है। उष्णकटिबंधीय शहरों में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) में 14 फीसदी तक और सूक्ष्म कणों (पार्टिकुलेट मैटर या पीएम 2.5) में 8 फीसदी तक, अमोनिया में 12 फीसदी और प्रतिक्रियाशील वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों में 11 फीसदी तक की वृद्धि दर्ज की गई। अमोनिया और वाष्पशील कार्बनिक यौगिक, पीएम 2.5 के पूर्ववर्ती हैं। ये ऐसे छोटे कण या बूंदें हैं, जिनकी चौड़ाई 2.5 माइक्रोन या उससे कम होती है। कई अध्ययनों के अनुसार ये कई बीमारियों और असामयिक मौत का कारण बनते हैं।

अध्ययन के मुताबिक, इन क्षेत्रों में पड़े वाले 46 में से 40 शहरों में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड  के लिए एक्सपोजर 1.5 से बढ़कर चार अंक तक पहुंच गया जबकि 46 में से 33 शहरों में पीएम 2.5 के लिए एक्सपोजर बढ़ा है।

शोधकर्ताओं ने अध्ययन में लिखा है कि इन वजहों के चलते वायु-प्रदूषण का संयुक्त असर बढ़ा है जबकि सड़कों के यातायात, कचरे के जलने, लकड़ी के कोयले और ईंधन की लकड़ी के व्यापक इस्तेमाल से वायु की गुणवत्ता में तेजी से कमी आई है।

इसके बाद उनकी टीम ने पीएम 2.5 के संपर्क में आने के कारण समय से पहले होने वाली मौतों की गणना के लिए ‘स्वास्थ्य जोखिम मूल्यांकन’ मॉडल की ओर रुख किया। उन्होंने अध्ययन में शामिल हर देश की उम्र विशेष से संबंधित मृत्यु-दर और शहरों की आबादी का आंकड़ा भी जुटाया।


उन्होंने अनुमान लगाया कि 2005 में कोलकाता में 39,200, अहमदाबाद में 10,500, सूरत में 5800, मुंबई में 30,400, पुणे में 7,400, बेंगलुरु में 9,500, चेन्नई में 11,200 और हैदराबाद में 9,900 असामयिक मौतें हुई होंगी।
 
टीम ने 2018 में कोलकाता में 54,000, अहमदाबाद में 18,400, सूरत में 15000, मुंबई में 48,300, पुणे में 15,500, बेंगलुरु में 21,000, चेन्नई में 20,800 और हैदराबाद में 23,700 असामयिक मौतों का निर्धारण किया।

कुल मिलाकर पूरे देश में पीएम 2.5 के संपर्क में आने के कारण साल 2005 में 123,900 मौतें हुई थीं, जिनकी सख्ंया 2018 में बढ़कर 223,200 हो गई। वोहरा के मुताबिक, मोटे तौर पर इसमें एक लाख मौतों की वृद्धि हो गई।

शोधकर्ताओं ने अध्ययन में कहा कि उष्णकटिबंधीय देश इसका खामियाजा भुगतना जारी रखेंगे। इसके मुताबिक, महामारी के कारण बेरोजगारी और स्वास्थ्य और देखभाल से जुड़ी सेवाओं तक असमान पहुंच के कारण इतना जरूर है कि वायु प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों को कुछ समय तक टाला जा सकता है।

महामारी ने उष्णकटिबंधीय देशों में स्वास्थ्य और देखभाल से जुड़ी खामियों को उजागर कर दिया है। अध्ययन का मानना है कि इन देशों को अपनी वायु गुणवत्ता को सुधारने के लिए तत्काल कड़ी नीतियां तैयार करने की जरूरत है, ताकि वे आगे और नुकसान से बच सकें।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के भूगोल विभाग में भौतिक भूगोल में एसोसिएट प्रोफेसर और अध्ययन के सह-लेखक डॉ. एलोइस मरैस के मुताबिक, -‘हम अतीत की गलतियों और तीव्र औद्योगीकरण व आर्थिक विकास की खामियों से सबक लेने की बजाय लगातार वायु-प्रदूषण को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भेज रहे हैं। उम्मीद है कि हमारे अध्ययन के नतीजो से नीति-निर्माता इन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों में तेजी लाएंगे।’

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