केंद्र की नई सरकार की नई नीतियां और उनका तय किया गया रास्ता हमारा भविष्य तय करेगा। इस नई सरकार से देश को आखिर किन वास्तविक मुद्दों पर ठोस काम की उम्मीद करनी चाहिए ? नई सरकार, नई उम्मीदें नाम के इस सीरीज में हम आपको ऐसे ही जरूरी लेखों को सिलसिलेवार पेश किया जा रहा है।
भारत के प्रदूषित शहरों के लिए हवा साफ करने के लिए केवल एक साल बाकी है। जनवरी 2019 में, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 131 शहरों और शहरी समूहों में हवा की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए एक व्यापक नीति ढांचा, राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) लॉन्च किया था, जिनमें लगातार प्रदूषण का उच्च स्तर पाया गया था। इसका लक्ष्य 2019 के स्तर से 2025-26 तक इन शहरों में वायुमंडल में पाए जाने वाले महीन कणों (पीएम) की मात्रा को 40 प्रतिशत तक कम करना था।
कार्यक्रम को लागू करने में मदद के लिए, एनसीएपी ने प्रदर्शन के आधार पर मिलने वाली धनराशि का वादा किया था, जो वायु प्रदूषण को रोकने की एक नई तरह की रणनीति है। इस कार्यक्रम के लिए 19,711 करोड़ रुपये का बजट रखा गया था। मंत्रालय की 2023-24 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2023 तक सभी 131 शहरों में PM10 (10 माइक्रॉन या उससे कम व्यास वाले महीन कण) के स्तर में सुधार हुआ है। लेकिन क्या ये शहर वायु प्रदूषण को वास्तव में कम करने में सफल हुए हैं, जो फेफड़ों के कैंसर से लेकर हृदय रोगों, जन्म के समय कम वजन और अकाल मृत्यु तक कई बीमारियों का कारण बन सकता है? इस बारे में सवाल हैं, और आइए आपको बताते हैं क्यों।
एनसीएपी के तहत आवंटित 19,711 करोड़ रुपये में से, 16,539 करोड़ रुपये 49 शहरों और शहरी समूहों के लिए हैं, जिनमें से प्रत्येक में 10 लाख से अधिक लोग रहते हैं। शेष 3,172 करोड़ रुपये कम आबादी वाले 82 शहरों के लिए आवंटित किए गए हैं। हालांकि, इस आंकड़े के विश्लेषण से धन का कम इस्तेमाल सामने आता है, जो क्रियान्वयन में ढिलाई का संकेत देता है। दिसंबर 2023 तक, 49 बड़े शहरों को 8,357.51 करोड़ रुपये मिले, लेकिन उन्होंने इसका केवल 70 प्रतिशत यानी 5,835.03 करोड़ रुपये ही खर्च किया। 82 छोटे शहरों को 1,292.5 करोड़ रुपये मिले और उन्होंने इसका केवल 37.5 प्रतिशत यानी 480.92 करोड़ रुपये ही खर्च किया। इससे पता चलता है कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कार्रवाई का दायरा और गति अभी भी लक्ष्य से पीछे है।
हवा साफ करने में कितनी तरक्की हुई है, इसे जांचने का तरीका भी सवालों में है। उदाहरण के लिए, एनसीएपी को मूल रूप से पीएम10 और पीएम2.5 दोनों तरह के महीन कणों को कम करने के लिए बनाया गया था। लेकिन असल में हवा की गुणवत्ता में सुधार को आंकने के लिए सिर्फ पीएम10 (जो हवा में उड़ने वाले बड़े धूल के कण होते हैं) को ही देखा जाता है। इससे ध्यान और पैसा धूल नियंत्रण पर ही लगने लगा है, जबकि पीएम2.5 कणों की तरफ कम ध्यान दिया जाता है।
ये कण ज्यादा हानिकारक होते हैं और मुख्य रूप से जलने वाली चीजों से निकलते हैं। एनसीएपी के तहत खर्च किए गए धन के विश्लेषण से पता चलता है कि 64 प्रतिशत राशि सड़कें बनाने, चौड़ा करने, गड्डे भरने, पानी छिड़कने और सफाई मशीनें खरीदने जैसे कामों पर खर्च की गई है। इसकी तुलना में, जलने वाली चीजों से निकलने वाले प्रदूषण (पीएम2.5 पैदा करने वाला) को कम करने के लिए बहुत कम पैसा आवंटित किया गया है। एनसीएपी के तहत कुल धन का केवल 14.51 प्रतिशत ही पराली जलाने को रोकने, 12.63 प्रतिशत वाहनों से होने वाले प्रदूषण को कम करने और सिर्फ 0.61 प्रतिशत औद्योगिक प्रदूषण को रोकने पर खर्च किया गया है।
एक्शन प्वॉइंट्स
सही पैमाना इस्तेमाल करें और प्रदूषण कम करने की योजना बनाएं
हवा की गुणवत्ता मापने के लिए बड़े धूल कणों (पीएम10) की बजाय महीन धूल कणों (पीएम2.5) को आधार माना जाए, पीएम2.5 सेहत के लिए ज्यादा नुकसानदेह होते हैं
पीएम2.5 पैदा करने वाले मुख्य स्रोतों की पहचान करें और प्रदूषण कम करने की योजना बनाएं
राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम में शहरों की रैंकिंग सिर्फ पीएम10 कम करने के आधार पर न हो, नीतिगत कार्रवाई के आधार पर भी रैंकिंग दी जाए
एनसीएपी के तहत आने वाले शहरों को सिर्फ पीएम10 के स्तर में सुधार दिखाने पर ही पैसा मिलता है। वहीं, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के स्वच्छ वायु सर्वेक्षण (एसवीएस) कार्यक्रम में शहरों को पीएम10 कम करने के साथ-साथ प्रदूषण कम करने के लिए उठाए गए कदमों के आधार पर रैंकिंग दी जाती है। इन कदमों में गाड़ियों और फैक्ट्रियों से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए नीतियां बनाना, पराली और कूड़े जलाने से होने वाले प्रदूषण को कम करना, सड़क की धूल और निर्माण एवं मलबे से होने वाली धूल को कम करना और इन नीतियों के बारे में लोगों को जागरूक करना शामिल है।
लेकिन एनसीएपी के तहत पीएम10 कम करने पर मिलने वाले प्रदर्शन और एसवीएस के तहत लिए गए कदमों के आधार पर मिलने वाली रैंकिंग में अक्सर मेल नहीं खाता। एनसीएपी और एसवीएस दोनों कार्यक्रमों में तरक्की जांचने का तरीका सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन वाकई में बड़ा बदलाव तभी आएगा जब तरक्की और नियमों को मानने की जांच करने का तरीका और मजबूत हो। लिहाजा हवा साफ करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए नई सरकार के ये कुछ सुझाव हैं।
पीएम2.5 को आधार के रूप में इस्तेमाल किया जाए
हवा की गुणवत्ता में सुधार का आंकलन करने के लिए पीएम2.5 स्वास्थ्य का बेहतर पैमाना है। साथ ही, पीएम10 के स्तर पर नीतिगत कार्रवाई के प्रभाव को साबित करना मुश्किल है क्योंकि यह हवा के साथ उड़ने वाली धूल, खेतों से निकलने वाली मिट्टी और खनन एवं निर्माण जैसे खास स्रोतों से निकलने वाले प्रदूषण से बहुत प्रभावित होता है।
सही पैमाना चुनें
एनसीएपी के तहत चूंकि वायु प्रदूषण में तरक्की जांचने के लिए पीएम10 को पैमाना माना जाता है, इसलिए ध्यान धूल नियंत्रण पर ही जाता है। परिवहन और उद्योग जैसे मुख्य स्रोत, जो पीएम2.5 पैदा करने वाले बड़े कारण हैं, प्रदूषण कम करने की रणनीति बनाने में प्राथमिकता नहीं बन पाते हैं। साथ ही, ज्यादातर फैक्ट्रियां और बिजलीघर शहर की सीमा के बाहर होते हैं, इसलिए शहरों की कार्य योजनाओं में नहीं आते। छोटे और मध्यम उद्योग जो शहरों के अनियमित इलाकों में होते हैं, उन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
औद्योगिक प्रदूषण नियंत्रण के उपायों की जानकारी सिर्फ तभी मिल पाती है जब कोई शहर औद्योगिक शहर हो। फिर भी, स्वच्छ ईंधन और तकनीक अपनाने में तेजी लाने के लिए उठाए गए कदमों की जानकारी कम ही मिलती है। इसी तरह, सड़क पर गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण को कम करने, पुराने वाहनों को हटाने, गाड़ियों को इलेक्ट्रिक बनाने, सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने और बिना इंजन वाले वाहनों को बढ़ावा देने जैसे केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा तय किए गए सुधार के संकेतकों पर शहरों की प्रगति रिपोर्ट अक्सर अधूरी होती है। क्रियान्वयन, धन और रिपोर्टिंग के लिए इन रणनीतियों को मात्रा और गुणवत्ता के हिसाब से अच्छे से विकसित नहीं किया गया है।
हवा साफ करने की नीतियों को हवा की गुणवत्ता में सुधार से जोड़ा जाए
अभी इस बात का पता लगाना मुश्किल है कि किन नीतियों से वाकई में हवा साफ हो रही है। कुछ शहर एनसीएपी में पीएम10 के स्तर कम करने के लिए अच्छे प्रदर्शन करते हैं, लेकिन एसवीएस में नीतिगत कदम उठाने के मामले में उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं होता। उसी तरह, जो शहर एसवीएस में नीतिगत कार्रवाई के लिए अच्छे अंक पाते हैं, वो एनसीएपी में पीएम10 का स्तर कम न कर पाने के कारण सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले शहर हो सकते हैं।
दिल्ली के सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के आंकलन के अनुसार, 2022-23 में आंध्र प्रदेश का गुंटूर शहर और ओडिशा का अंगुल शहर एसवीएस के तहत अच्छा प्रदर्शन करने वाले शहरों की श्रेणी में अव्वल तो थे, लेकिन पीएम10 का स्तर कम न कर पाने के कारण एनसीएपी में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले शहरों में भी शामिल थे। 2022 में लखनऊ एसवीएस के तहत अच्छी कार्रवाई के लिए शीर्ष प्रदर्शन करने वाले शहरों में था, लेकिन 2023 में यह एनसीएपी के तहत सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले शहरों में शामिल हो गया। इसे ठीक करने की जरूरत है।
एक्शन प्वॉइंट्स
आसपास के इलाकों से फैलने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए क्षेत्रीय रणनीति बनाई जाए। सिर्फ शहर स्तर पर योजना बनाने से कामयाबी नहीं मिलेगी।
'प्रदूषक को भुगतान करना होगा' के सिद्धांत का पालन किया जाए। यानी प्रदूषण फैलाने वालों पर टैक्स, उपकर लगाए जाएं। इस पैसे से हवा साफ करने के लिए खास कोष बनाया जा सकता है।
हवा साफ करने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों (जैसे- उद्योग, परिवहन) के लिए अलग-अलग फंडिंग रणनीतियां बनाई जाएं और उन्हें एक साथ जोड़कर तेजी से कार्रवाई की जाए।
सिर्फ शहरों पर ध्यान न दें
अनुभव बताता है कि जब तक पूरे क्षेत्र को मिलाकर प्रदूषण कम करने के लिए रणनीति न बनाई जाए, तब तक शहर अपनी हवा साफ करने के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते। हालांकि एनसीएपी ने खासतौर पर भारत-गंगा के मैदानी इलाकों को लक्ष्य बनाकर एयरशेड (वायु क्षेत्र) के नजरिए से काम करने का विचार तो किया है, लेकिन राज्यों के बीच समन्वय का ढांचा अभी भी विकसित नहीं हो पाया है। हालांकि, राज्य सरकारों की कार्य योजनाओं का इस्तेमाल हवा के बहाव के हिसाब से एक राज्य के भीतर प्रदूषण कम करने के लिए किया जा सकता है। क्षेत्रीय नजरिया छोटे शहरों, उपनगरीय और ग्रामीण इलाकों के लिए भी साथ मिलकर वायु प्रदूषण को कम करने का अवसर है, क्योंकि उनके पास जटिल उपायों और बुनियादी ढांचे को लागू करने के लिए पर्याप्त संसाधन और व्यक्तिगत क्षमता नहीं होती है।
स्थानीय कार्रवाई के लिए राष्ट्रीय नीति
उद्योग, बिजली संयंत्रों, सार्वजनिक परिवहन के बुनियादी ढांचे, कचरा प्रबंधन और स्वच्छ ईंधन से जुड़ी साफ हवा की नीतियों को केंद्र सरकार के समर्थन की जरूरत है। उदाहरण के लिए, हालांकि राज्य सरकारें स्वीकृत ईंधन की लिस्ट अधिसूचित कर रही हैं, लेकिन वे अक्सर क्रियान्वयन को व्यापक नहीं बना पातीं क्योंकि स्वच्छ ईंधन की कीमत और बुनियादी ढांचे पर राष्ट्रीय नीतियां पर्याप्त रूप से समर्थन नहीं देतीं। इसी तरह, परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाने या रिमोट सेंसिंग मापन शुरू करने वाले शहरों को केंद्र सरकार के नियमों और समर्थन की जरूरत होती है।
भले ही राष्ट्रीय नीतियों में विभिन्न क्षेत्रों के लिए संसाधन जुटाने की नई रणनीतियों का सुझाव दिया गया है, लेकिन आमतौर पर इनका इस्तेमाल नहीं किया जाता है। स्वच्छ तकनीक, ईंधन, हरित बुनियादी ढांचे और शहरी डिजाइन समाधानों पर तीव्र कार्रवाई के लिए क्षेत्र-विशिष्ट फंडिंग रणनीतियों को एक साथ मिलकर कारगर ढंग से लागू करने की जरूरत है।
प्रदूषक को भुगतान करना ही होगा
कर और उपकर लगाते समय और अतिरिक्त राजस्व के लिए उत्पादों की कीमत तय करते समय 'प्रदूषक को भुगतान करना होगा' के सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए। इस अतिरिक्त राजस्व का इस्तेमाल लक्षित कार्रवाई के लिए समर्पित कोष बनाने में किया जा सकता है। दिल्ली ने ट्रकों के रोजाना प्रवेश पर, बेचे जाने वाले प्रत्येक लीटर डीजल ईंधन पर और बड़ी कारों और एसयूवी (स्पोर्ट्स यूटिलिटी वाहन) पर पर्यावरण क्षतिपूर्ति शुल्क लगाया है। चूंकि नगरपालिकाएं कार्रवाई करने में सबसे आगे होती हैं, इसलिए वे हरित नगरपालिका बांड जारी करने की संभावनाओं को टटोल सकती हैं।
क्षेत्रीय लक्ष्य जरूरी
एनसीएपी ने सही तरीके से क्षेत्र-विशिष्ट कार्रवाई और फंडिंग को साफ हवा की नीतियों के साथ जोड़ने की अनुमति दी है। उदाहरण के लिए, स्वच्छ भारत मिशन 2.0 के तहत 2025 तक कचरा मुक्त शहरों के लिए प्रदर्शन-आधारित फंडिंग से पता चलता है कि शहर कचरा जलाने को कम करने के लिए कार्रवाई कर रहे हैं और इसकी रिपोर्ट एनसीएपी के तहत की जाती है। इससे यह भी पता चलता है कि मजबूत कानूनी और नियामकीय ढांचे और निश्चित फंडिंग वाली क्षेत्रीय योजनाओं और कार्यक्रमों में प्रगति की गति तेज होती है। इसे और व्यापक बनाने की जरूरत है।