हर साल करीब 739,582.8 किलोमीटर लम्बी फिशिंग लाइन और करीब 13,993,141,840 हुक समुद्र में खो जाते हैं जोकि समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र और उसमें रहने वाले जीवों के लिए बड़ा खतरा हैं। यह जानकारी जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक नए अध्ययन में सामने आई है। यदि हर साल समुद्र में छूटी हुई इस फिशिंग लाइन की कुल लम्बाई को देखें तो वो इतनी बड़ी है कि उसे पृथ्वी पर 18 बार लपेटा जा सकता है।
वैश्विक स्तर पर शाश्वत तरीके से किया जा रहा मत्स्य पालन वैश्विक खाद्य सुरक्षा, आय और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन साथ ही मछली पकड़ने के लिए समुद्री में खोए और फेंकें गए फिशिंग गियर इसके लिए एक बड़ी समस्या हैं, जो मछलियों की संख्या में आती गिरावट, जरूरत से ज्यादा शिकार और जलवायु परिवर्तन जैसे मौजूदा कारकों के साथ मिलकर बड़ी समस्या पैदा कर रहे हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार समुद्र में पड़े यह बेकार जाल हर साल हजारों समुद्री जीवों की जान ले रहे हैं।
जर्नल मरीन पॉल्यूशन बुलेटिन के हवाले से पता चला है कि दुनिया भर में कम से कम 690 प्रजातियों को समुद्री मलबे का सामना करना पड़ा है, जिनमें समुद्री कछुए, स्तनधारी, पक्षी और व्हेल जैसे जीव शामिल हैं। इनमें से 17 फीसदी प्रजातियां आईयूसीएन रेड लिस्ट की संकटग्रस्त प्रजातियों की सूचि में शामिल हैं। वहीं समुद्री मलबे के संपर्क में आने वाली करीब 10 फीसदी प्रजातियों में माइक्रोप्लास्टिक को निगलने के मामले सामने आए थे।
यह मत्स्य पालन की स्थिरता के लिए एक गंभीर मुद्दा हैं। यह फिशिंग गियर, समुद्र में बढ़ते प्रदूषण की एक मुख्य वजह हैं। जो व्यापक रूप से समाज, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण पर बुरा असर डाल रहे हैं। इस समस्या की गंभीरता को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने अपने इस अध्ययन में दुनिया भर में मछुआरों का साक्षात्कार किया है, जिसमें उनसे यह जानने का प्रयास किया गया था कि वो हर साल औसतन कितने फिशिंग गियर खो देते हैं।
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पेरू, इंडोनेशिया, मोरक्को, न्यूजीलैंड और अमेरिका सहित दुनिया के सात सबसे बड़े मछली पकड़ने वाले देशों के 450 मछुआरों से इस बारे में जानकारी हासिल की है। उनके अनुसार फिशिंग गियर को खोने की जो मौजूदा दर है उसके अनुसार 65 वर्षों में समुद्र में मछली पकड़ने के इतने जाल पड़े होंगें जो पूरी पृथ्वी को ढंकने के लिए काफी हैं।
शोधकर्ताओं को पता चला है कि हर साल मछली पकड़ने के करीब 2 फीसदी गियर समुद्र में खो जाते हैं। इनमें 2,963 वर्ग किलोमीटर गिलनेट, 75,049 वर्ग किलोमीटर सीन नेट, 218 वर्ग किलोमीटर ट्रॉल नेट, 739,583 किलोमीटर लंबी फिशिंग लाइन और 2.5 करोड़ से ज्यादा पॉट्स और ट्रैप्स शामिल हैं।
शोधकर्ताओं का मत है कि समुद्र में खोए और फेंके गए फिशिंग गियर की यह मात्रा अनुमान से कहीं ज्यादा हो सकती हैं क्योंकि इस अध्ययन में केवल व्यावसायिक रूप से मत्स्य पालन में उपयोग हो रहे फिशिंग गियर का विश्लेषण किया गया है इसमें शौक और मनोरंजन के लिए किए जा रहे मछलियों के शिकार और उपयोग हो रहे अन्य गियर की मात्रा शामिल नहीं है।
रोकथाम से पर्यावरण को ही नहीं मछुआरों को भी होगा फायदा
इतना ही नहीं शोध के अनुसार प्लास्टिक कचरे का उचित प्रबंधन न होने के कारण हर साल तटीय क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाला करीब 4.6 फीसदी प्लास्टिक कचरा समुद्रों में चला जाता है, जोकि समुद्रों में खोए फिशिंग गियर से भी ज्यादा है। वहीं 2016 के आंकड़ों को देखें तो वैश्विक स्तर पर 11 फीसदी प्लास्टिक कचरा समुद्रों में मिल गया था।
गौरतलब है कि 80 के दशक की शुरुआत में ही एफएओ ने इस मुद्दे को एक प्रमुख वैश्विक समस्या और समुद्री एवं तटीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के लिए गंभीर खतरा माना था। समस्या की गंभीरता को देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने इसे रोकने और कम करने के लिए कानूनी उपायों की एक श्रृंखला विकसित की थी, जिसमें गियर मार्किंग और ट्रैकिंग, गियर लॉस रिपोर्टिंग और रिकवरी जैसे उपाय शामिल थे।
देखा जाए तो समुद्र में खो रहे यह फिशिंग गियर न केवल पर्यावरण के लिए खतरा हैं बल्कि साथी ही यह स्वयं मछुआरों पर भी पड़ते आर्थिक दबाव की वजह हैं। एक तरफ मछुआरों का जितना जाल समुद्र में खो जाता है उसकी भरपाई के लिए उन्हें नया जाल खरीदना पड़ता है। वहीं दूसरी तरफ समुद्र में खोया यह जाल मछली पकड़ने की संभावना को भी कम कर देता है।
ऐसे में यह जरूरी है कि समुद्र में गुम होते और फेंके जा रहे इस फिशिंग नेट को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाए जाए। इसमें नई तकनीकें और मछुआरों की सूझबूझ मददगार साबित हो सकती है।
मछली पकड़ने की प्रभावी प्रबंधन प्रणाली न केवल खाद्य सुरक्षा में सुधार कर सकती है साथ ही स्वस्थ वातावरण का निर्माण करने में मददगार हो सकती है। इसका लाभ न केवल पर्यावरण बल्कि साथ ही मछुआरों को भी होगा जिनकी जीविका समुद्र और उनके जीवों पर ही निर्भर है।