पेट्रोकेमिकल सेक्टर में जस्ट ट्रांजिशन:  विकास, पर्यावरण और समुदाय के सवाल पर कौन करे बात?

कई बड़े औद्योगिक घराने दहेज में अपना उद्यम स्थापित करते गए और यह पेट्रोलियम, केमिकल और पेट्रोकेमिकल उद्योग का बड़ा केंद्र बन गया, लेकिन...
मछुवारे गुमान भाई कहते हैं कि औद्योगिक दूषित जल बढ़ने से  समंदर में मछलियां कम हो गई हैं। फोटो: वर्षा सिंह
मछुवारे गुमान भाई कहते हैं कि औद्योगिक दूषित जल बढ़ने से समंदर में मछलियां कम हो गई हैं। फोटो: वर्षा सिंह
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समुद्र का खारा पानी और उसमें मछलियां पकड़ने की होड़। बड़े मछुआरे आम दिनों में रोजाना 20, 30, 40 किलो तक मछलियां पकड़ लेते थे। छोटे मछुआरे भी 5-10 किलो मछली पकड़ लेते थे। वे सुख भरे दिन थे। गांव के युवाओं की पढ़ाई, शादियां, मकान बनाने जैसे बड़े काम इन्हीं मछलियों के भरोसे हो जाया करते थे। अब समंदर में पहले की तरह मछलियां नहीं रहीं। क्योंकि अब समंदर का पानी पहले जैसा साफ नहीं रहा।  

ये सब बताते हुए गुमान भाई जयसिंह राठौर की आवाज में निराशा तैर जाती है। वह दोनों हाथ खोलकर दिखाते हैं “पहले दरिया में इतनी बड़ी-बड़ी मच्छी होती थी। मैंने खुद पकड़ी हैं। तब मछुआरे खुशी-खुशी मच्छी लेकर घर लौटते थे। अब बिल्कुल छोटी-छोटी मच्छी हैं। मुश्किल से 1-2 किलो। सब्जी की तरह। हम उसे खुद खाएं या बेचें। रोज एक या दो किलो मच्छी पकड़ने में एक मछुआरे की क्या कमाई होगी।”

“मैं बचपन से मच्छी पकड़ता हूं। उम्र नहीं पता, लेकिन अपने एक बेटे और बेटी की शादी करा चुका हूं। जब से ये कंपनियां आई हैं मछलियां चली गई हैं। समंदर में कंपनियों का केमिकल इतना ज्यादा आता है कि आप वहां सांस नहीं ले पाओगे। गंदा मैला पानी समंदर में फैल जाता है। इससे मच्छी-केकड़े सब मर जाते हैं।”

गुमान भाई जय सिंह राठौर गुजरात के भरूच जिले के वागरा तालुका के दहेज गांव के जनजातीय समुदाय से हैं। दहेज उन कई गांवों में से एक है जहां औद्योगिक विस्तार के साथ स्थानीय समुदाय के हालात बदलते चले गए। भरूच जिले के दहेज, सुवा, लखीगाम, कावी, सरोद, हनसोट, कंतियाजार समेत कई गांव परंपरागत तौर पर आजीविका के लिए मछली पालन पर निर्भर करते हैं। 

दहेज: दो दशक में बदली तस्वीर

गुजरात राज्य में देश का सबसे लंबा 1,600 किलोमीटर समुद्री तट है और विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र 2.14 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। 2021-22 के आंकड़ों के मुताबिक 36,980 नावें और 2007 की गणना के मुताबिक 2.18 लाख मछुआरे हैं। 

वर्ष 1990 में दहेज को विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईज़ेड) के तौर पर विकसित करना शुरू किया गया। राज्य के सूरत, वडोदरा और अन्य इंडस्ट्रियल स्टेट में नई कंपनियों के लिए जगह नहीं बची थी। खंभात की खाड़ी के किनारे स्थित दहेज पश्चिम और दक्षिण भारत के साथ-साथ मिडिल ईस्ट के बीच व्यापारियों के लिए एक पुराना समृद्ध बंदरगाह हुआ करता था। 

समय के साथ भौगोलिक और समुद्री बदलावों के चलते ये जगह गुमनामी में चली गई। लेकिन सेज बनने के साथ रिलायंस, बिरला, ओएनजीसी, टोरेंट, अडाणी जैसे कई बड़े औद्योगिक घराने दहेज में अपना उद्यम स्थापित करते गए और ये पेट्रोलियम, केमिकल और पेट्रोकेमिकल उद्योग का बडा केंद्र बन गया।

अप्रैल 2007 में भारत सरकार ने पेट्रोलियम, केमिकल और पेट्रोकेमिकल्स इन्वेस्टमेंट रीजन (पीसीपीआईआर) नीति की घोषणा की और देश में इंडस्ट्रियल कॉरिडोर विकसित करने के उद्देश्य से 4 पीसीपीआईआर को अनुमति दी। निवेश, बुनियादी ढांचे के विकास, निर्यात और रोजगार के मामले में दहेज पीसीपीआईआर देश का एकमात्र सक्रिय पीसीपीआईआर है।

दहेज पीसीपीआईआर, भरूच जिले में वागरा और भरूच तालुका के 44 गांवों में 453 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला है। वर्ष 2020 में प्रकाशित जर्नल ऑफ इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज एंड इनोवेटिव रिसर्च की दहेज पीसीपीआईआर की परफॉर्मेंस एनालिसिस के मुताबिक 180 मौजूदा और 650 निर्माणाधीन औद्योगिक इकाइयों वाले दहेज ने एक लाख करोड़ से अधिक का निवेश आकर्षित किया है। पॉलिमर, पॉलीथिन, पॉलीप्रोपीलीन, बेंजीन, ब्यूटाडीन, पायरोलिसिस गैसोलीन जैसे पेट्रोकेमिकल उत्पादों के साथ दहेज देश का सबसे तेजी से बढता पीसीपीआईआर है।

जैसे-जैसे ये उद्यम बढ़ते गए, यहां बसे गांवों में गुमान भाई जयसिंह राठौर जैसे लोगों के सपने और आमदनी दोनों कम होते चले गए। 

बढ़ता प्रदूषण, घटती मछलियां

गुमान भाई के साथ मछली पकड़ने की जाली सुलझा रहे युवा कार्तिक राठौर की आवाज में आक्रोश है। 21 वर्षीय इस युवा की उम्र और दहेज में औद्योगिक विकास की गति तकरीबन साथ ही बढ़ी है। इस अंतराल में वह हवा में बढ़ती केमिकल की गंध, समंदर के पानी का बढ़ता मैलापन और घटती मछलियों का अपना अनुभव बताता है। 

“मैंने नवीं कक्षा तक पढ़ाई की है। फिर अपने पापा के साथ दरिया में मच्छी पकड़ना शुरू किया। पहले हमें हर रोज दरिया में इतनी मच्छी मिल जाती थी कि 500 या 1,000 रुपए तक बिक्री हो जाए लेकिन अब 100-200 रुपए भी मुश्किल से मिलते हैं। कंपनी वाले बडे-बडे पाइप से समंदर में गंदा केमिकल डालते हैं। वहां इतना प्रदूषण है कि आप खडे भी नहीं रह सकते। लेकिन हमें पानी में जाना पडता है। मेरे पूरे शरीर में चकत्ते पड़ गए हैं और खुजली होती है। मछलियों से भी केमिकल की गंध आती है”।  

दहेज पीसीपीआईआर में तकरीबन 32 हजार लोगों को प्रत्यक्ष तौर पर रोजगार देने की संभावना जताई गई है। यहां इंडस्ट्री में नौकरी के सवाल पर कार्तिक कहते हैं “कंपनी वाले हमें मासिक पगार पर नहीं रखते। जब उन्हें जरूरत पडती है तभी काम पर बुलाते हैं और एक दिन का 350 रुपए देते हैं। कंपनी हमें नौकरी नहीं देती और उनके केमिकल से समुद्र की मछलियां भी मर गई हैं। सरकार इस केमिकल को बंद करे तो शायद हमारे मच्छी के व्यापार को फायदा हो”।

दहेज गांव के कई अन्य युवा, महिलाएं और बुजुर्ग मछुआरे ऐसी ही समस्याएं बताते हैं।

खंभात की खाड़ी में नर्मदा नदी के मीठे और समंदर के खारे पानी के मिलन के चलते दहेज का यह क्षेत्र पर्यावरण के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। झींगा, बुमला, सालमन, बोई, माकुल समेत कई मछलियां यहां समंदर में पाई जाती हैं। वहीं हिल्सा नदी का प्रजनन क्षेत्र होने की वजह से कई गांवों की आर्थिकी इस पर टिकी है।

नदी और समंदर यहां औद्योगिक कचरे के निपटान का आसान जरिया भी बन गए हैं। कार्तिक और उसके साथी गांव के नजदीक वह जगह दिखाते हैं जहां एक औद्योगिक इकाई का प्रदूषित पानी बाहर फैला था और नहरनुमा रास्ते से समंदर की ओर आगे बढ रहा था। लाल और काले रंगों के इस बेहद प्रदूषित पानी की दुर्गंध के साथ हवा में केमिकल की तीखी दम घोंटने वाली गंध महसूस की जा सकती थी। बच्चों की स्कूल वैन इसी रास्ते से गुजरती है।  

ये युवा मछुआरे कहते हैं “जब ऐसा जहरीला पानी समंदर में मिलेगा तो मछलियां कैसे बचेंगी। हम ऐसी आबोहवा में जीते हैं”। गुजरात के तटीय इलाकों में औद्योगिक प्रदूषण पर एक शोध रिपोर्ट “मछलियाँ कहाँ गईं” के मुताबिक औद्योगिक इकाइयां बढने के साथ पिछले 10-15 वर्षों में समंदर से पकड़ी जाने वाली मछलियां कम हुई हैं। 

गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के भरूच स्थित कार्यालय में 6 लैबोरेटरी और 5 तकनीकी स्टाफ की तैनाती है। जिन पर 453 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले दहेज पीसीपीआईआर में प्रदूषण नियंत्रण की जिम्मेदारी है। 

बोर्ड के भरूच स्थित कार्यालय के डिप्टी इनवायरमेंट इंजीनियर किशोर वाघमशी कहते हैं कि हम औद्योगिक इकाइयों की लगातार मॉनिटरिंग करते हैं, औचक निरीक्षण करते हैं और पर्यावरण के लिए तय मानकों को लागू करवाने का प्रयास करते हैं। नियमों का उल्लंघन करने पर इकाइयों पर आर्थिक दंड भी लगाया जाता है। हमें इंडस्ट्री एसोसिएशन की समस्याओं को दूर करने पर भी काम करना होता है। 

गुजरात पारिस्थितिकी आयोग ने वर्ष 2014-2019 के लिए विकास और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की खातिर तैयार पर्यावरणीय रणनीति में भरूच जिले को औद्योगिक अपशिष्ट के लिहाज से बेहद संकटग्रस्त पाया और माना कि औद्योगिक अपशिष्ट से जुड़ा डाटा बहुत अस्पष्ट और नाकाफी है।

ये रणनीति कितनी कारगर रही इसका अंदाजा वर्ष 2022 में दहेज में औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषण को लेकर एनजीटी में दाखिल एक याचिका से लगाया जा सकता है। एनजीटी के आदेश पर गठित समिति ने अपनी  जांच में पाया गया कि कई इंडस्ट्री दूषित जल का ट्रीटमेंट किए बिना ही निकासी कर रही हैं। जांच कर रही समिति ने अपने कई निरीक्षण में पाया कि बिना उपचार किए अपशिष्ट जल को गहरे समंदर में छोडा जा रहा था। कई निरीक्षण में कंपनियों को चोरी-छिपे दूषित जल की निकासी करते पाया गया। इससे स्थानीय पर्यावरण को हो रहे नुकसान के आकलन के लिए कोई वैज्ञानिक जांच भी नहीं की गई। गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कुछ औद्योगिक इकाइयों को कारण बताओ नोटिस भेजा। लेकिन इसे ठीक करने की कोई कार्रवाई नहीं की गई।

नियम के मुताबिक औद्योगिक इकाइयों का दूषित जल ईटीपी से उपचार के बाद तकरीबन 4 किमी. गहरे समंदर में छोड़ना होता है। लेकिन गुजरात इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (जीआईडीसी) की दूषित जल को समंदर में ले जाने की पाइपलाइन वर्ष 2018 से क्षतिग्रस्त है। एनजीटी में सुनवाई के दौरान ये बात खुली। जीआईडीसी भरूच में इग्जक्यूटिव इंजीनियर दिगांत के लाड बताते हैं कि समंदर में नई पाइपलाइन डाली जा रही है और अक्टूबर 2024 तक ये काम पूरा होने की उम्मीद है। यानी अब तक औद्योगिक अपशिष्ट जल समंदर किनारे ही छोड़ा जा रहा है। 

वर्ष 2007 से करीब डेढ़ वर्ष पहले तक दूषित जल निकासी के लिए मेनहोल व्यवस्था भी अपनाई जा रही थी। दिगांत बताते हैं “हमने अपनी जांच में पाया कि इस व्यवस्था में कई औद्योगिक इकाइयां अपशिष्ट जल का उपचार किये बिना सीधा जमीन के भीतर डाल देती थीं। इसलिए पिछले डेढ़ वर्ष में हमने मेनहोल से पानी निकासी का नेटवर्क बंद कर, जमीन के उपर पाइपलाइन डाली। 10-12 कंपनियों के पास एक पम्पिंग स्टेशन बनाया। दहेज पीसीपीआईआर में अब तक 29 पम्पिंग स्टेशन हैं। यहां से उपचार के बाद एक कॉमन ईटीपी में सारी पाइप जाती हैं और फिर गहरे समंदर में इन्हें डालने का प्रावधान है”।

दिगांत  इससे इंकार नहीं करते कि इस सबके बावजूद रात में या चोरीछिपे कंपनियां दूषित जल निकासी करती हैं।

जिस जमीन के मालिक थे, उस पर बनी कंपनी में बने मजदूर

दहेज पीसीपीआईआर क्षेत्र में औद्योगिक प्रदूषण का सीधा असर स्थानीय समुदाय की आजीविका के परंपरागत तरीकों पर पडा है। कार्तिक जैसे युवा मछली पकड़ने के पारंपरिक पेशे से जूझ रहे हैं, वहीं कई ऐसे युवा मिले जो दसवीं के बाद आईटीआई का प्रशिक्षण हासिल कर इसी इंडस्ट्री में नौकरी पाने की तैयारी कर रहे हैं। ये इस क्षेत्र के पढने-लिखने वाले युवाओं की प्राथमिकता है। ये नौकरियां कॉन्ट्रैक्ट पर होती हैं इसलिए कभी भी निकाले जाने का खतरा होता है।

दहेज से लगे, वागरा तालुका के सुवा गांव के विष्णु भाई ने भी आईटीआई का प्रशिक्षण लिया है लेकिन उम्र 17 वर्ष होने की वजह से अभी अप्रेंटिसशिप का मौका नहीं मिला। उन्हें जल्द ही परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी संभालनी है। विष्णु के पिता एक कैमिकल फैक्ट्री में मजदूरी करते थे। अत्यधिक नशे के चलते उनका लीवर खराब हो गया और वे बिस्तर पर आ गए। जबकि मां जशोदाबेन फैक्ट्री में साफ-सफाई का काम करती हैं और परिवार का भरण-पोषण करती है। वह बताती हैं कि फैक्ट्री में ज्यादातर महिलाएं इसी तरह के काम करती हैं।

विष्णु कहते हैं कि स्थानीय होने के बावजूद यहां की कंपनियों में आसानी से नौकरी नहीं मिलती लेकिन जो कोशिश करते हैं उन्हें काम मिल जाता है। 

विष्णु के पड़ोसी हीरल भाई ने भी आईटीआई किया है और पिछले दस वर्षों से कॉन्ट्रैक्ट पर केमिकल कंपनी में नौकरी कर रहे हैं। वह शिकायत करते हैं “10 साल से नौकरी करने के बावजूद मेरी तनख्वाह सिर्फ 15 हजार रुपए प्रति माह है”।

औद्योगिक प्रदूषण के चलते पारंपरिक स्वरोजगार छूट रहा है और नौकरियों में कड़ी प्रतिस्पर्धा है। गैर-सरकारी संस्था भरूच जिला माछीमार समाज के अध्यक्ष और वकील कमलेश एस मधीवाला कहते हैं “स्थानीय लोग आज उन्हीं कंपनियों में बतौर मजदूर काम कर रहे हैं, जिसके लिए कभी उन्होंने अपनी जमीनें दी थीं। यहां के पढ़े-लिखे  युवाओं को कोई भी कंपनी 10, 20, 25 हजार से ज्यादा वेतन नहीं देती। जबकि मच्छी के व्यवसाय में एक अच्छा मछुआरा साल में 10-15 लाख रुपए तक कमा लेता था। साधारण मछुआरा भी 4-5 लाख रुपए तक कमाता था। इन कंपनियों में नौकरी करना युवाओं की मजबूरी है।” 

स्थानीय लोग रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं और औद्योगिक इकाइयों के मुनाफे का ग्राफ लगातार उपर की ओर बढ रहा है। देश की केमिकल इंडस्ट्री का मूल्य वर्ष 2022 में 220 से बढ़कर वर्ष 2025 तक 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान है।

एशिया के नंबर वन औद्योगिक क्षेत्र में रहने वाले समुदाय के आजीविका के परंपरागत साधन सिमट रहे हैं और नई औद्योगिक इकाइयां तेजी से उभर रही हैं। गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भरूच के वागरा तालुका के पखाजन, अम्भेल और लिमडी गांव के 715 हेक्टेअर क्षेत्र में इंडस्ट्रियल पार्क और मल्टी प्रोडक्ट सेज विकसित करने के लिए दिसंबर 2021 से फरवरी 2022 तक अध्ययन के आधार पर पर्यावरणीय स्वीकृति दी।

(वर्षा सिंह सेंटर फॉर फाइनेंशियल एकाउंटबिलिटी में रिसर्च फेलो हैं)

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