क्या आपने कभी सोचा है कि क्यों उम्र बढ़ने के साथ लोग सांस की बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं? क्यों इसके प्रति उनकी इम्युनिटी कमजोर होती जाती है। आमतौर पर ज्यादातर लोग उम्र दराज लोगों में घटती प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए बढ़ती उम्र को जिम्मेवार मानते हैं, लेकिन इस बारे में किए नए अध्य्यन में सामने आया है कि दशकों से वायु प्रदूषण का संपर्क भी इम्यून सिस्टम को कमजोर कर रहा है।
इस बारे में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि दशकों से पसरा वायु प्रदूषण समय के साथ हमारे इम्यून सिस्टम को कमजोर कर रहा है। इस अध्ययन के निष्कर्ष जर्नल नेचर मेडिसिन में प्रकाशित हुए हैं। जो इस बात का एक नया कारण देता है कि क्यों उम्र बढ़ने के साथ लोग सांस की बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
अध्ययन से पता चला है कि वायु प्रदूषकों के यह महीन कण सांस के जरिए फेफड़ों से जुड़े लिम्फ नोड्स की प्रतिरक्षा कोशिकाओं के अंदर दशकों तक जमा होते रहते हैं। जहां यह महीन कण कोशिकाओं की श्वसन संक्रमण से लड़ने की क्षमता को कमजोर करते रहते हैं।
विशेष रूप से बुजुर्ग श्वसन संक्रमण के प्रति संवेदनशील होते हैं। यह तथ्य कोविड-19 महामारी के दौरान भी सामने आया था। जब इस महामारी से मरने वालों में युवाओं की तुलना में 75 वर्ष से अधिक आयु के लोगों का आंकड़ा 80 गुना ज्यादा था। साथ ही बुजुर्गों के इन्फ्लूएंजा और फेफड़ों के अन्य संक्रमणों की चपेट में आने की सम्भावना भी ज्यादा होती है।
शुरुआत में कोलंबिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ता प्रतिरक्षा प्रणाली पर वायु प्रदूषण के प्रभावों का अध्ययन नहीं कर रहे थे। इस बारे में अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर डोना फार्बर ने बताया कि, "जब हमने लोगों के लिम्फ नोड्स को देखा, तो हम चकित रह गए, क्योंकि फेफड़ों के लिम्फ नोड्स काले रंग के थे, जबकि जठरांत्र पथ यानी जीआई पथ और शरीर के अन्य हिस्सों में मौजूद नोड्स विशिष्ट तौर पर बेज रंग के थे।
इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने युवाओं से लिए टिश्यूों को एकत्र किया, जिसमें उन्हें फेफड़ों के लिम्फ नोडस में उम्र का अंतर स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता था। उन्हें पता चला कि बच्चों और किशोरों में फेफड़ों के लिम्फ नोडस बेज रंग के थे, जबकि 30 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों से लिए नमूनों में लिम्फ नोडस हलके काले थे जो उम्र बढ़ने के साथ और काले होते गए थे।
कैसे इम्यून सिस्टम को प्रभावित कर रहे हैं प्रदूषण के यह कण
फार्बर ने बताया कि जब उन्होंने इन काले लिम्फ नोडस का अध्ययन किया तो पता चला कि यह नोडस वायु प्रदूषकों के कणों से भरे हुए थे। उन्होंने पाया कि फेफड़े के लिम्फ नोड्स में मिले प्रदूषक के कण मैक्रोफेज, प्रतिरक्षा कोशिकाओं के अंदर स्थित थे।
गौरतलब है कि यह प्रतिरक्षा कोशिकाएं शरीर में बैक्टीरिया, वायरस, सेलुलर वेस्ट और अन्य संभावित खतरनाक पदार्थों को नष्ट कर देती हैं। रिसर्च से पता चला कि यह कण युक्त मैक्रोफेज कोशिकाएं विशेष रूप से विकृत थी। वो अन्य कणों को अपने में समाने और साइटोकिन्स सिग्नल को भेजने में बहुत कम सक्षम थी।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि साइटोकिन्स सिग्नल एक तरह से इन प्रतिरक्षा कोशिकाओं द्वारा भेजे जाने वाले ‘सहायता’ के संकेत होते हैं, जो प्रतिरक्षा प्रणाली के अन्य भागों को सक्रिय करते हैं। वहीं दूसरी तरफ जिन लिम्फ नोड्स में प्रदूषण के कण नहीं थे, उनमें मैक्रोफेज अप्रभावित थे।
इस बारे में प्रोफेसर फार्बर का कहना है कि यह प्रतिरक्षा कोशिकाएं, प्रदूषण के कणों से अवरुद्ध हो जाती हैं, जिसके चलते वो जरूरी काम नहीं कर पाती हैं। जो रोगजनकों के खिलाफ हमारी रक्षा में मदद करते हैं।
उनका कहना है कि, “हालांकि अब तक हम पूरी तरह यह नहीं जानते कि प्रदूषण, फेफड़ों की प्रतिरक्षा प्रणाली को कितना प्रभावित करता है। लेकिन निस्संदेह इतना स्पष्ट है कि यह बुजुर्ग लोगों में कहीं ज्यादा खतरनाक श्वसन संक्रमण पैदा करने में मददगार होता है। ऐसे में वायु प्रदूषण की रोकथाम अत्यंत महत्वपूर्ण है।“
यदि भारत की बात करें तो देश में वायु प्रदूषण की समस्या गंभीर रूप ले चुकी है। इस बढ़ते प्रदूषण का सीधा असर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा जारी वायु गुणवत्ता मानकों को देखें तो पूरा देश यानी 130 करोड़ भारतीय आज ऐसी हवा में सांस ले रहे हैं जो हर पल उन्हें बीमार बना रही है।
देश में यह समस्या कितनी बड़ी है इसका अंदाजा एनर्जी पालिसी इंस्टिट्यूट (ईपीआईसी) द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट के नतीजों से लगा सकते हैं जिनके अनुसार बढ़ता प्रदूषण हर दिल्लीवासी से उसके जीवन के औसतन 10.1 साल लील रहा है, जबकि बढ़ते प्रदूषण के चलते लखनऊ वालों की औसत आयु 9.5 साल तक घट सकती है। वहीं यदि एक औसत भारतीय की जीवन सम्भावना की बात करें तो बढ़ता प्रदूषण उसमें औसतन पांच साल तक कम कर रहा है। मतलब यह कुपोषण और धूम्रपान से भी कहीं ज्यादा खतरनाक है।