दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना में एक मध्य प्रदेश में भोपाल गैस त्रासदी को देखते-देखते 35 बरस बीत गए। 2-3 दिसंबर, 1984 को बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन की जानलेवा गैस लीक ने कई जिंदगियां समाप्त कर दी और पीढियों के लिए यह धीमा जहर बन गया। इस त्रासदी के भूत और वर्तमान पर आधारित पढ़िए किस्त :
मध्य प्रदेश के भोपाल गैस त्रासदी को 35 वर्ष हुए हैं और इसके दिए घाव अभी तक रिस रहे हैं। आज भी जानलेवा गैस के दुष्प्रभाव के कारण माएं बीमार बच्चों को जन्म दे रही हैं। गैस पीड़ितों पर काम करने वाले संगठनों ने यह दावा किया है कि भारतीय आयुर्विज्ञान अनसुंधान परिषद (आसीएमआर) के अधीन संस्था नेशनल इंस्टिट्यूट फोर रिसर्च ऑन एनवायन्मेंटल हेल्थ ने एक शोध में यह पाया था कि जहरीली गैस का दुष्प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर भी पड़ा और बच्चों में जन्मजात बीमारियां हो रही हैं। संगठनों ने आरोप लगाया है कि आइसीएमआर की इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट को सरकार ने प्रकाशित ही नहीं होने दिया।
गुरुवार को भोपाल ग्रुप फोर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन, भोपाल गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी संघ, भोपाल गैस पीड़ित महिला पुरुष संघर्ष मोर्चा और चिल्ड्रन एगेंस्ट डाउ केमिकल्स ने संयुक्त रूप से एक प्रेस वार्ता में इस बात का खुलासा किया। संगठनों ने आरोप लगाया है कि बीते वर्ष शोध में यह सामने आया था कि सामान्य गर्भवती महिला की तुलना में जहरीली गैस से पीड़ित माताओं और उनसे हुए बच्चों में कई तरह की स्वास्थ्य कमियां उजागर हुईं। संगठनों ने केंद्र और राज्य सरकार के यूनियन कार्बाइड और उसके नए मालिक डाउ केमिकल्स के खिलाफ चल रहे मुकदमे को और मजबूत बनाने के लिए सूचना का अधिकार कानून के तहत इकट्ठा किए कुछ दस्तावेज भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रस्तुत किए।
भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉरमेशन एंड एक्शन की सदस्य रचना धिंगरा ने बताया कि हमारी पड़ताल और इकट्ठा किए गए दस्तावेजों में सामने आया है कि आईसीएमआर ने एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट को प्रकाशित ही नहीं होने दिया गया, जिसमें गैस पीड़ित गर्भवती के बच्चों में जन्मजात स्वास्थ्य समस्या होने की बात सामने आई थी।
1048 गैस हादसे की भुक्तभोगी महिलाओं के जन्मे 9 फीसदी बच्चे बीमार
सूचना का अधिकार कानून के तहत सामने आए दस्तावेज में प्रमुख शोधकर्ता डॉ. रुमा गलगालेकर ने पाया कि 1048 गैस हादसे की शिकार गर्भवती महिलाओं से जन्मे 9 प्रतिशत बच्चों में कई जन्मजात स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं थी। इसके विपरीत 1247 सामान्य महिलाओं के बच्चों में यह समस्याएं केवल 1.3 प्रतिशत शिशुओं में पाई गई। तकरीबन 48 लाख रुपए के खर्च से इस शोध को वर्ष जनवरी 2016 से जून 2017 तक कराया गया था। इस शोध को कराने के लिए तीन बैठकों के बाद साइंटिफिक एडवायजरी कमेटी की मंजूरी मिलने के बाद करवाया गया था।
दस्तावेज में आगे बताया गया है कि इसे शोध को सातवें साइंटिफिक एडवायजरी कमेटी की बैछक में दिसंबर 2017 में रखा गया था। बैठक में सदस्यों ने शोध में सामने आए परिणामों पर काफी चिंता जताई थी और आंकड़ों से संबंधित कई सवाल भी सामने रखे थे। इसके बाद यह तय हुआ था कि कई विशेषज्ञों का एक समूह इस शोध की जांच करेगा। अप्रैल 2018 में एक विशेषज्ञों के समूह ने खामियों की वजह से आम नागरिकों के बीच प्रकाशित करने से रोक दिया।
गैस हादसे के पीड़ितों की अगली पीढ़ी पर असर
भोपाल गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी संघ की अध्यक्ष राशिदा बी का कहना है कि इन सभी शोधों से पता चलता है कि गैस हादसे के पीड़ितों की अगली पीढ़ी भी वही सब भुगत रही है और उनका यकीन इन वैज्ञानिक संस्थाओं से खत्म हो रहा है। वे कहती है कि अगर रिसर्च की रूपरेखा में कोई खामी थी तो इसे वैज्ञानिकों ने अनुमति ही क्यों दी और दो साल बाद शोध समाप्त होने के बाद इसमें खामी क्यों नजर आई? अगर कोई गलती हो भी गई तो उसे आम लोगों से छुपाने का क्या मतलब? और आगे इस तरह के शोध का कोई प्रस्ताव क्यों नहीं बन पाया?
एक दूसरे सूचना का अधिकार से मिले दस्तावेज का हवाला देते हुए गैस पीड़ित महिला पुरुष संघर्ष मोर्चा के नवाब खान ने कहा कि यह काफी दुखद है कि इस शोध के आने के 6 महीने बाद सुप्रीम कोर्ट में गैस पीड़ितों के लिए अतिरिक्त मुआवजा देने के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के वकील इसपर दोबार विचार करने की दलील देते हुए इस मामले में मजबूत डेटा रूपी सबूत की मांग करते हैं।
चिल्ड्रन एगेंस्ट डाउ केमिकल्स की नौशीन खान का कहना है कि शोध के मुताबिक जिन 110 बच्चों में जन्मजात समस्याएं देखी गई उनका क्या हुआ यह नहीं बताया हुआ। वे कहती हैं कि उनके पास दूसरे कागजात हैं जिनमें 1994-95 में 70 हजार गैस पीडित बच्चों की जांच रिपोर्ट कहती है कि 2453 बच्चों में गंभीर दिल की बीमारी पाई गई थी। रिपोर्ट यह भी कहती है कि उनमें से सिर्फ 18 बच्चों को राज्य सरकार से मदद मिली तो बाकी के सभी बच्चे कहां गए?
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