मलबे के ढेर से झांकता एक शिशु का बेजान चेहरा। यह भोपाल गैस त्रासदी की सबसे परिचित और चर्चित तस्वीरों में से एक है। इस दारुण तस्वीर को भारतीय फोटो पत्रकार पाब्लो बार्थोलोम्यू ने अपने कैमरे में कैद किया था। यह एक तस्वीर भारत की हृदय स्थली भोपाल में 1984 में हुई दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक आपदाओं में से एक की भयावहता को बखूबी बयां करती है। इस तस्वीर को 1985 में साल का वर्ल्ड प्रेस फोटो पुरस्कार मिला था। हर साल 2 और 3 दिसंबर को इस त्रासदी की वर्षगांठ पर यह आइकॉनिक फोटो समाचार कार्यक्रमों और अखबारों में प्रकाशित होता है, जो याद दिलाती है कि औद्योगिक कोताही की कितनी बड़ी कीमत चुकाई गई।
भोपाल में दिसंबर की उस सर्द रात को आई त्रासदी की न जाने कितनी अनकही कहानियां हैं। एक आपदा, जिसे बहुतों ने आते हुए देखा और रोकने की कोई कोशिश नहीं की। एक आपदा जिसने पूरे शहर का गला घोंट दिया और मनुष्य की समानुभूति और हालात को पूर्व स्थिति में लाने की सीमा का इम्तिहान लिया।
शिव रवैल द्वारा निर्देशित नेटफ्लिक्स सीरीज “द रेलवे मेन दी अनटोल्ड स्टोरी ऑफ भोपाल 1984” गुमनाम नायकों की नजर से त्रासदी के विभिन्न आयामों को खोजती नजर आती है। सीरीज में एक बढ़िया सर्वाइवल (मुश्किल हालात में जिंदा रहना) थ्रिलर होने के सभी तत्व मौजूद रहने के बावजूद दुखद रूप से यह एक दर्दनाक धीमी सीरीज है, जो औद्योगिक आपदाओं की जगह चरित्रों के नाटकों तक सीमित रह जाती है। डाॅक्यूफिक्शन का अहसास देने के लिए सीरीज असली विजुअल व फिल्मी शाॅट्स के साथ शुरू होती है और दोहराया जाता है कि यह असल घटनाओं पर आधारित है, यद्यपि इन चरित्रों की कहानियां कुछ जगहों पर सच्चाई से दूर चली जाती हैं। सीरीज शुरू में ही आपदा का संदर्भ पेश कर देती है। फैक्टरी में झूठा अलार्म का दृश्य हमें अप्रशिक्षित कर्मचारियों और हास्यास्पद हाव-भाव वाले स्टीरियोटाइपिक गोरे विलेन की लापरवाही की तस्वीर प्रस्तुत कर देती है।
समाज में पैसा और लोभ के तत्वों को भी बखूबी स्थापित किया गया है। फिल्म में अमेरिकी ठग है, जो बार-बार भोपाल रेलवे ट्रेजरी से पैसा चुराने की कोशिश करता है। एक मां है, जो अपनी बेटी की शादी बचाने के लिए निराशाजनक दुस्साहस के साथ रुपयों को हाथ में जकड़े रहती है, भले ही दौड़ते हुए वह बेहोश हो जाती है। इस कहानी में पैसा एक अहम तत्व है। सीरीज का प्रारुप पटकथाकारों के लिए वरदान रहा क्योंकि इससे उन्हें चरित्रों को गहराई से गढ़ने और धीरे-धीरे तनाव का माहौल बनाने का भरपूर मौका मिला। लेकिन, बहुत सारे चरित्रों और गैरजरूरी कथावस्तु ने द रेलवे मेन को एक ऐसा ड्रामा बना दिया, जो ग्लिसरीन के अधिक इस्तेमाल, अनुपयुक्त सस्पेंस संगीत और धीमी रफ्तार के साथ चलता है।
सेंट्रल रेलवे के जनरल मैनेजर (आर माधवन) और कार्मिक प्रमुख (जूही चावला) के बीच विरक्त संबंध। इसके अलावा एक टिकट कलेक्टर (रघुवीर यादव) की सिख विरोधी दंगों के दौरान उच्च जाति के हिंदुओं (वे एक दूसरे के संबोधन में अपनी जाति बताते हैं) की भीड़ से एक सिख महिला (मंदिरा बेदी) को बचाने के लिए नायक सरीखी कोशिश तक में पटकथा लेखक बहुत सारे उप कथानक गढ़ देता है। इसके चलते सीरीज भावनात्मक पकड़ खो देती है। एक रेस्क्यू ऑपरेशन के गंभीर ड्रामे के बीच में अचानक बेवकूफी भरा फोन काॅल आ जाता है। इसमें टूटे हुए रिश्ते की चर्चा होती है। जो उन मुद्दों को पूरी तरह से रेखांकित करता है, जो द रेलवे मेन को परेशान करते हैं।
अभिनय की बात करें, तजुर्बेकार स्टेशन मास्टर के रूप में केके मेनन और गैस लीक होने वाले प्लांट के प्रबंधक के रूप में दिब्येंदु भट्टाचार्य ने परिपक्व अभिनय किया। रेलवे स्टेशन पर एक युवा प्रशिक्षु के रूप में बाबिल खान की मासूमियत, प्रतिबद्धता और जिज्ञासा में ताजगी थी।
हालांकि, प्रोडक्शन हाउस मौजूदा विषय में बहुत कुछ जोड़ने में विफल रहा। संपादन खिंचा हुआ और भटका हुआ लगता है। चमकदार सेट, चेहरे की रोशनी और बेस्वाद विजुअल इफेक्ट्स बनावटी और अनुचित लगते हैं। यह सीरीज क्रूर विदेशियों, आलसी नौकरशाहों और व्याप्त भ्रष्टाचार तक ही दोष को सीमित रखता है और अहम सवाल पूछने में विफल रहता है। मसलन, भोपाल में फंसे अधिकांश लोग किस वर्ग, जाति या धर्म के थे? राज्य सरकार ने इस संकट पर किस तरह की प्रतिक्रिया दी? क्या भोपाल के बीचों बीच इस प्लांट को मंजूरी देने वाली केंद्र सरकार को इस आपदा के परिणामों का सामना करना पड़ा? सीरीज इस तथ्य को स्थापित करने में भी विफल रही कि उच्च-स्तरीय सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों को आपदा के बारे में समय रहते सूचित किया गया था और वे वहां से बाहर निकल सके, जबकि औसत भोपाल निवासी, विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले लोग गैस से घुटकर मर गए।
फिल्म यह तस्वीर देने में भी विफल रही कि अस्पतालों का संचालन कैसे ठप हो गया, ग्राउंड पर मौजूद लोग कैसे हर दिशा में धराशाही हो गए और भोपाल से सैकड़ों किलोमीटर दूर एक शहर में चले गए। या सरकार यूनियन कार्बाइड संयंत्र के मालिकों के आगे कैसे झुक गई और आपदा के ठीक 10 दिन बाद कारखाने को “सबसे व्यावहारिक और सुरक्षित विकल्प” के रूप में फिर से शुरू करने की घोषणा कर दी।
द रेलवे मेन, स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म पर यशराज फिल्म्स का पहला प्रयास है। सीरीज में अपने जीवन के लिए लड़ते हुए लोगों को बचाने के लिए अप्रत्याशित चरित्रों के एक साथ आने की एक मनोरंजक कहानी होने की क्षमता थी। इसमें सही सवाल पूछते हुए एक अच्छा सर्वाइवल ड्रामा बनने के तत्व मौजूद थे। लेकिन ऐसा लगता है कि ढाई घंटे की फिल्म को चार घंटे की सीरीज में खींच दिया गया है। यह शो हर किसी को सोचने पर मजबूर कर देता है कि जिस शहर में हम रहते हैं, अगर वह घातक गैस की चपेट में आ जाए, तो क्या किसी को जवाबदेह ठहराया जाएगा? यह सवाल द रेलवे मेन से भी अधिक प्रासंगिक लगता है।