क्या आप जानते हैं कि बढ़ते प्रदूषण से डिमेंशिया का जोखिम कहीं ज्यादा बढ़ सकता है। रिसर्च से पता चला है कि पीएम 2.5 के औसत वार्षिक जोखिम में हर दो माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के साथ डिमेंशिया का खतरा 17 फीसदी बढ़ सकता है।
यह जानकारी हार्वर्ड टीएच चैन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किए अध्ययन में सामने आई है। इस अध्ययन के नतीजे 05 अप्रैल 2023 को ऑनलाइन जर्नल ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (बीएमजे) में सामने आए हैं।
यदि पीएम 2.5 की बात करें तो यह प्रदूषण के अत्यंत महीन कण होते हैं, जिनका व्यास इंसानी बाल के केवल 30 फीसदी के बराबर होता है। इतना महीन होने के कारण ही यह कण आसानी से इंसानी सांस के जरिए फेफड़ों और रक्त में प्रवेश कर सकते हैं।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि यदि वातावरण में पीएम 2.5 का स्तर अमेरिका, यूके और अन्य यूरोपीय देशों द्वारा तय वायु गुणवत्ता मानकों जितना भी हो तो भी वो डिमेंशिया के खतरे को बढ़ा सकता है।
गौरतलब है कि वर्तमान में अमेरिकी एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) ने पीएम 2.5 के लिए वार्षिक वायु गुणवत्ता मानक 12 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर निर्धारित किया है। ऐसे में भारत जैसे देशों का क्या हाल होगा, इसका अंदाजा आप स्वयं ही लगा सकते हैं।
अपनी इस रिसर्च में शोधकर्ताओं ने 2,000 से ज्यादा अध्ययनों की जांच की है, जिनमें से 51 शोधों में बढ़ते प्रदूषण और डिमेंशिया के बीच के सम्बन्ध उजागर हुए हैं। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने स्पष्ट कर दिया है कि इसमें अनिश्चितताएं मौजूद हैं, ऐसे में निष्कर्षों की व्याख्या करते समय सावधानी बरतने की आवश्यकता है। हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि परिणाम इस बात के पुख्ता सबूत देते है कि वायु प्रदूषण, बढ़ते मनोभ्रंश के लिए जिम्मेवार है।
निष्कर्ष बताते हैं कि महीन कणों के संपर्क में आने से डिमेंशिया का जोखिम बढ़ जाता है। 14 अध्ययनों से पता चला है कि पीएम 2.5 के वार्षिक औसत स्तर में दो माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के साथ मनोभ्रंश का जोखिम चार फीसदी बढ़ गया था।
2050 तक 15.3 करोड़ लोग होंगें डिमेंशिया के शिकार
निष्कर्ष बताते हैं कि महीन कणों के संपर्क में आने से डिमेंशिया का जोखिम बढ़ जाता है। 14 अध्ययनों से पता चला है कि पीएम 2.5 के वार्षिक औसत स्तर में दो माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के साथ मनोभ्रंश का जोखिम चार फीसदी बढ़ गया था। इसी तरह कुछ शोधों में यह भी माना है कि पीएम 2.5 में इस वृद्धि के साथ मनोभ्रंश का जोखिम 42 फीसदी तक बढ़ गया था।
देखा जाए तो डिमेंशिया के इस बढ़ते जोखिम के लिए केवल पीएम 2.5 ही जिम्मेवार नहीं है। इसमें नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड की भी बड़ी भूमिका है। नतीजे बताते हैं कि नाइट्रोजन ऑक्साइड के वार्षिक औसत स्तर में हर 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के साथ डिमेंशिया के जोखिम में पांच फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी।
इसी तरह नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और डिमेंशिया के बीच भी जुड़ाव का पता चला है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के वार्षिक औसत स्तर में दस माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के साथ डिमेंशिया के खतरे में दो फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी। हालांकि अध्ययन में ओजोन और डिमेंशिया के बीच संबंध नहीं पाया गया है।
देखा जाए तो यह बीमारी आज दुनिया भर में तेजी से पैर पसार रही है। दुनिया में करीब 5.7 करोड़ से लोग आज मनोभ्रंश के साथ जीने को मजबूर हैं। वहीं अनुमान है कि 2050 तक 166 फीसदी की वृद्धि के साथ डिमेंशिया से पीड़ित इन लोगों की संख्या बढ़कर 15.3 करोड़ पर पहुंच जाएगी। इतना ही नहीं इनमें से करीब 40 फीसदी मामलों के लिए कहीं न कहीं वायु प्रदूषण जैसे कारक जिम्मेवार होंगें।
वहीं यदि भारत से जुड़े आंकड़ों पर गौर करें तो देश में करीब 8.44 फीसदी बुजुर्ग मनोभ्रंश से पीड़ित हैं। मतलब की एक करोड़ से ज्यादा बुजुर्ग इसका शिकार बन चुके हैं। एक अन्य रिसर्च से पता चला है कि भारत में 2050 तक डिमेंशिया के मरीज 197 फीसदी तक बढ़ सकते हैं।
क्या है डिमेंशिया
गौरतलब है कि डिमेंशिया एक ऐसी बीमार है, जिसका शिकार मानसिक रूप से इतना कमजोर हो जाता है कि उसे अपने रोजमर्रा के कामों को पूरा करने के लिए भी किसी दूसरे की मदद लेनी पड़ती है। विशेषज्ञों की मानें तो यह एक ऐसा विकार है, जिसमें दिमाग के अंदर विभिन्न प्रकार के प्रोटीनों का निर्माण होने लगता है, जो मस्तिष्क के सेल्स को नुकसान पहुंचाने लगते हैं।
नतीजन इंसान की याददाश्त, देखने, सोचने-समझने और बोलने की क्षमता में धीरे-धीरे गिरावट आने लगती है। देखा जाए तो डिमेंशिया किसी एक बीमारी का नाम नहीं है, बल्कि यह कई बीमारियों या यूं कहें तो कई लक्षणों के एक समूह का नाम है।