प्रति वर्ष 20 अक्टूबर के आसपास दिल्ली महानगर को एक झटका लगता है और चेतावनियों का दौर शुरू हो जाता है। यह वह समय है जब वायु प्रदूषण अपने उच्चतम स्तर पर होता है और इसके साथ ही एक-दूसरे को जिम्मेदार बताने और आरोप-प्रत्यारोप की होड़ शुरू हो जाती है। प्रदूषण के कारण हमारा दम घुटता है और हम चीख पुकार मचाते हैं। टीवी चैनलों पर बहस शुरू हो जाती है और टीवी एंकर जवाब-तलब करते हैं। वहीं ऐसे समय में राजनेता अपनी जिम्मेदारी से भागने के रास्ते खोज करते नजर आते हैं।
बीते कुछ वर्षों से इस तरह के मामलों में दो तरह के कदम (अगर हम उन्हें कदम कह सकें) उठाए जाते हैं। पहला, दिल्ली सरकार ने एक के बाद एक अध्ययन कराए ताकि प्रदूषण की “असली” वजह का पता लगाया जा सके और जरूरी कदम उठाए जा सकें। दूसरा, उसने इस बात पर जोर दिया कि शहर में प्रदूषण के “बाहरी” कारक भी हैं यानी दूसरी सरकारें इसके लिए जिम्मेदार हैं। जाहिर है वे “दूसरी” सरकारें तत्काल इस मामले में इनकार कर देती हैं और इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है।
हकीकत यह है कि हमें प्रदूषण के स्रोत के बारे में पूरी जानकारी है, भले ही हर क्षेत्र का इसमें योगदान अलग-अलग मौसम में घटता-बढ़ता रहता है।
वह है वाहनों, कारखानों, डीजल जेनरेटरों, बिजली संयंत्रों और घरों से उत्पन्न होने वाला उत्सर्जन, सड़क की धूल, भवन निर्माण आदि से होने वाला प्रदूषण आदि। यह याद रहे कि धूल प्रदूषक नहीं है बल्कि यह जहर है क्योंकि इसमें वाहनों तथा अन्य प्रकार के दहन से उत्पन्न विषाक्त कण चिपके रहते हैं। ऐसे में हर जाड़े में सबसे पहला प्रश्न यह पूछा जाना चाहिए बल्कि जाड़ों की शुरुआत के पहले हर महीने यह पूछा जाना चाहिए कि इस दहन से संबंधित उत्सर्जन को रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं और क्या कदम उठाने आवश्यक हैं।
दूसरी बात, इसमें दो राय नहीं है कि जब किसान अपने खेतों को अगले मौसम की बुआई के लिए साफ करते हैं तो वे फसल अवशेषों में जो आग लगाते हैं, वह हवा के बहाव के साथ प्रदूषक तत्त्वों को दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में भी लाते हैं। अगर यह तब होता है जब मौसम प्रतिकूल हो तो प्रदूषण का स्तर बढ़ता है और हवा अत्यधिक घातक हो जाती है। इस समय भी दिल्ली में सांस लेना मुश्किल हो चुका है।
इसके बाद बात आती है उन उद्योगों की जिन्हें दिल्ली से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया था लेकिन जो अभी भी कोयले अथवा खराब माने जाने वाले ईंधन का इस्तेमाल कर रहे हैं। ये उद्योग अब दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में स्थापित हैं और इनके कारण भी प्रदूषण में इजाफा हो रहा है। लब्बोलुआब यह कि वायु प्रदूषण की कोई सीमा नहीं जानता है, इसलिए एक-दूसरे पर अंगुली उठाने की कोशिशों से कोई सार्थक प्रगति होती नहीं दिखती है।
सच तो यह है कि दिल्ली भी प्रदूषण की समस्या का हिस्सा है। दिल्ली में वाहनों तथा अन्य तरह से होने वाला प्रदूषण पड़ोसी राज्यों के प्रदूषक तत्त्वों से मिलता है। मैं यह आलेख इस उम्मीद के साथ लिख रही हूं कि हम निरर्थक बहसों को किनारे कर सकेंगे और उन बातों पर ध्यान केंद्रित कर सकेंगे जो वास्तव में मायने रखती हैं यानी प्रदूषण के हर स्रोत के खिलाफ कड़े कदम उठाना।
ऐसे में लाजिमी तौर पर यह बात भी सामने आएगी कि उद्योगों और बिजली संयंत्रों में कोयले का इस्तेमाल बतौर ईंधन किया जाता है। दिल्ली ने अपना अंतिम कोयला आधारित बिजली संयंत्र भी बंद कर दिया है लेकिन जैसा कि मैंने कहा वायु प्रदूषण ऐसी किसी सीमा को नहीं मानता। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मौजूद अन्य ताप बिजली घर लगातार कोयले का इस्तेमाल कर रहे हैं और प्रदूषण फैला रहे हैं। उन्होंने अपनी उत्सर्जन तकनीक में भी कोई सुधार नहीं किया है।
दिल्ली ने विधिक औद्योगिक क्षेत्रों में भी कोयले का इस्तेमाल प्रतिबंधित कर दिया है लेकिन तमाम ऐसे उद्योग भी हैं जो अवैध ढंग से संचालित हो रहे हैं। इनके मामले में प्रवर्तन भी लगभग अनुपस्थित है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तथा आसपास के इलाकों के लिए वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग की स्थापना केंद्र सरकार ने इसलिए की थी ताकि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए जरूरी कदम उठाए जा सकें।
आयोग ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के उद्योगों को निर्देश दिया था कि वे कोयला आधारित बिजली की जगह प्राकृतिक गैस अथवा बायोमास का इस्तेमाल करें। परंतु आज प्राकृतिक गैस की कीमत काफी अधिक हो चुकी है। यूक्रेन युद्ध तथा अमीर यूरोपीय देशों में गैस की मांग के कारण स्वच्छ प्राकृतिक गैस की कीमत भारत जैसे देशों के लिए अव्यावहारिक स्तर तक बढ़ चुकी है।
ऐसे में हमें अपने आप से यह प्रश्न भी करना होगा कि क्या प्राकृतिक गैस से कर का बोझ कम करने से इसकी कीमत व्यावहारिक स्तर पर आएगी। ध्यान रहे फिलहाल इस पर 50 फीसदी तक कर लग रहा है। इसके अलावा इस क्षेत्र के उद्योगों को स्वच्छ ऊर्जा मुहैया कराने के लिए और क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
किसान अपने फसल अवशेष जलाते हैं क्योंकि उनके पास इसका कोई अन्य विकल्प नहीं है। आज, जब इसके बेहतर निपटान के लिए मशीनें उपलब्ध हैं तो भी अक्सर उनके पास पैसा नहीं होता। जिससे वे मशीनों की मदद ले पाएं या फिर उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे इसे ढोकर उद्योगों तक ले जा पाएं।
ताकि वे कोयले की जगह इसका इस्तेमाल कर सकें। अभी इस दिशा में काफी कुछ करने की आवश्यकता है ताकि किसान इन फसल अवशेषों का महत्व समझ सकें।
अगर ऐसे कठोर, निर्णायक और साल भर चलने वाले व्यापक कदम नहीं उठाए गए तो हर वर्ष ठंड में यह समस्या बनी रहेगी। अगले वर्ष जब इसी समय हम प्रदूषण पर बात करें तो हमें इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।