क्लाउड सीडिंग रहा विफल लेकिन कानपुर आईआईटी ने कहा इससे मिली कई अहम जानकारी

आईआईटी ने कहा सीमित नमी की स्थिति में भी क्लाउड सीडिंग वायु गुणवत्ता में सुधार में योगदान दे सकता है। पीएम 2.5 और 10 के स्तरों में बदलाव देखे गए
क्लाउड सीडिंग को समझाने वाली इस छवि में सिल्वर आयोडाइड या सूखी बर्फ नामक रसायन को बादल पर डाला जाता है, जो बाद में वर्षा की बौछार बन जाता है।
क्लाउड सीडिंग को समझाने वाली इस छवि में सिल्वर आयोडाइड या सूखी बर्फ नामक रसायन को बादल पर डाला जाता है, जो बाद में वर्षा की बौछार बन जाता है।फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, नाओमी ई टेस्ला
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राष्ट्रीय राजधानी में वायु प्रदूषण को कम करने के मकसद से क्लाउड सीडिंग के जरिए अतिरिक्त वर्षा कराने की मुहिम विफल साबित हुई है।

कानपुर आईआईटी का यह आधिकारिक बयान आया है कि निर्धारित क्लाउड सीडिंग गतिविधि को फिलहाल रोक दिया गया है क्योंकि बादलों में नमी का स्तर पर्याप्त नहीं है। यह प्रक्रिया पूरी तरह से उपयुक्त वायुमंडलीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है।

डाउन टू अर्थ को दी गई जानकारी के मुताबिक, आईआईटी कानपुर ने 28 अक्तूबर, 2025 को क्लाउड सीडिंग प्रयोग को लेकर कहा, "कल वर्षा को प्रेरित नहीं किया जा सका क्योंकि उस समय नमी का स्तर केवल 15 से 20 प्रतिशत के बीच था, लेकिन इस परीक्षण से महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त हुईं। दिल्ली भर में लगाए गए मॉनिटरिंग स्टेशन ने कणीय पदार्थ (पार्टिकुलेट मैटर) और नमी के स्तर में हुए वास्तविक समय के बदलावों को रिकॉर्ड किया। आंकड़ों से पता चलता है कि पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 और पीएम 10 के स्तर में 6 से 10 प्रतिशत तक की मापनीय कमी दर्ज की गई, जिससे यह स्पष्ट होता है कि सीमित नमी की स्थिति में भी क्लाउड सीडिंग वायु गुणवत्ता में सुधार में योगदान दे सकता है।"

आईआईटी ने कहा, यह अवलोकन भविष्य के संचालन की बेहतर योजना बनाने में मदद करते हैं और यह समझने में सहायता करते हैं कि किन परिस्थितियों में यह तकनीक अधिकतम लाभ दे सकती है। ऐसे अनुभव भविष्य में और प्रभावी क्रियान्वयन की नींव बनाते हैं।

क्लाउड सीडिंग एक ऐसी तकनीक है जिससे मौसम में कृत्रिम तरीके से बदलाव किया जाता है। इस तकनीक में सिल्वर आयोडाइड , सोडियम क्लोराइड या सूक्ष्म बर्फ जैसी पदार्थों को बादलों में छोड़ा जाता है ताकि वर्षा को प्रेरित किया जा सके। यह तकनीक दुनिया के अन्य हिस्सो में विशेष रूप से सूखे क्षेत्र, कृषि संकट और जलाशयों में पानी की कमी जैसी स्थितियों से निपटने के लिए प्रयोग की गई है।

मिसाल के तौर पर चीन में बड़ी संख्या में जलाशयों और नदियों में जल स्तर बढ़ाने के लिए क्लाउड सीडिंग का नियमित प्रयोग होता है। वहीं, अमेरिका में कैलिफोर्निया और टेक्सास में सूखे से बचाव के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। यूएई में वर्षा बढ़ाने और गर्म मौसम में तापमान को नियंत्रित करने के लिए क्लाउड सीडिंग कार्यक्रम चलाए जाते हैं।

हालांकि, भारत में यह प्रयोग अब वायु प्रदूषण को कम करने के लिए किया जा रहा है, जबकि कई विशेषज्ञ इससे वायु गुणवत्ता में सुधार को लेकर इत्तेफाक नहीं रखते।

यह तकनीक पूरी तरह प्राकृतिक वर्षा का विकल्प नहीं है और इसका प्रभाव बादलों की गुणवत्ता, नमी और वायुमंडलीय परिस्थितियों पर निर्भर करता है। साथ ही, सिल्वर आयोडाइड के संभावित पर्यावरणीय प्रभाव, डाउनविंड क्षेत्रों में वर्षा की कमी और नैतिक व कानूनी सवाल भी अध्ययन का विषय हैं।

भारत में छह दशकों से क्लाउड सीडिंग का प्रयास

भारत में क्लाउड सीडिंग (बादल बीजन) का इतिहास 1950 के दशक के अंत में शुरू हुआ, जब भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के वैज्ञानिकों ने दिल्ली क्षेत्र में प्रारंभिक प्रयोग किए। भारतीय मौसम विभाग का आधिकारिक वैज्ञानिक जर्नल मौसम जर्नल में 1960 में प्रकाशित शोध-पत्र “क्लाउड सीडिंग ट्रायल्स एट दिल्ली ड्यूरिंग मॉनसून मंथ, जुलाई टू सितंबर 1957-59” के अनुसार, जून से सितंबर के मानसून महीनों के दौरान ग्राउंड जनरेटरों की मदद से साधारण नमक (सोडियम क्लोराइड) का उपयोग करके वर्षा प्रेरित करने का प्रयास किया गया। अध्ययन में पाया गया कि यह तकनीक तभी प्रभावी होती है जब बादलों में पर्याप्त नमी और ऊर्ध्वाधर गति मौजूद हो।

इसके बाद मौसम जर्नल में ही 1964 प्रकाशित एक अन्य शोध “ए मॉक क्लाउड सीडिंग एक्सपेरीमेंट इन दिल्ली” में नियंत्रण और सीडिंग क्षेत्रों के बीच वर्षा के अंतर का विश्लेषण किया गया, जिससे पता चला कि सीडिंग वाले क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि का रुझान था, लेकिन सांख्यिकीय रूप से निर्णायक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका।

1970 के दशक में यह प्रयोग परिचालन स्तर तक पहुंचा। मौसम जर्नल के ही 1974 में प्रकाशित एक अन्य शोध पत्र रिजल्ट ऑफ ऑपरेशनल क्लाउड सीडिंग एकसपेरीमेंट ओवर रिहंद कैचमेंट इन नॉर्थईस्ट इंडियामें बताया गया कि उत्तर प्रदेश के रीहंद जलागम क्षेत्र में अगस्त-सितंबर 1973 के दौरान किए गए क्लाउड सीडिंग प्रयोग से वर्षा में औसतन 17 फीसदी वृद्धि दर्ज की गई। हालांकि वैज्ञानिकों ने यह भी जोड़ा कि यह परिणाम सांख्यिकीय रूप से निर्णायक नहीं थे।

नीतिगत सवाल

वैज्ञानिक पत्रिका एटमॉसफेरिक रिसर्च और एनवॉयरमेंट इंस्टीट्यूट रीव्यू में प्रकाशित अध्ययनों के अनुसार, क्लाउड सीडिंग तकनीक को लेकर कई पश्चिमी-नीतिगत, कानूनी और नैतिक प्रश्न सामने आए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि किसी एक क्षेत्र में कृत्रिम रूप से वर्षा बढ़ाने की प्रक्रिया दूसरे क्षेत्र में वर्षा की कमी का कारण बन सकती है, जिसे “डाउनविंड इफेक्ट” या “रेन-शैडो” की स्थिति कहा जाता है। एनवायरो इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार, इस तकनीक के उपयोग से पहले सार्वजनिक परामर्श और पर्यावरणीय निगरानी अनिवार्य की जानी चाहिए ताकि जल संसाधनों के वितरण और मौसमीय संतुलन पर संभावित प्रभावों को बेहतर ढंग से समझा जा सके।

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