वायु प्रदूषण से बढ़ रहे हैं ग्लूकोमा के मामले: अध्ययन

ग्रामीणों की तुलना में शहरी लोगों में ग्लूकोमा के खतरे 50 फीसदी अधिक होते हैं। जहां पीएम2.5 का स्तर अधिक था, वहां ग्लूकोमा के मामले सामान्य से 6 फीसदी अधिक देखने को मिले
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ग्लूकोमा, जिसे काला मोतियाबिंद भी कहा जाता है। वैश्विक स्तर पर अंधेपन के प्रमुख कारणों में से एक है। दुनिया भर के करीब 6 करोड़ लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं। वहीं यदि भारत की बात करें तो 1.2 करोड़ लोग इस बीमारी से प्रभावित हैं और इसके चलते करीब 12 लाख लोग अपनी आंखों की रौशनी खो चुके हैं। यह एक ऐसी बीमारी है, जिसका यदि समय पर इलाज न कराया जाये तो इससे आंखों की रौशनी भी जा सकती है।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन द्वारा किये एक नया अध्ययन के अनुसार प्रदूषित हवा के संपर्क में आने से मोतियाबिंद होने का जोखिम बढ़ जाता है| शोध के अनुसार कम प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वालों की तुलना में प्रदूषित इलाकों में रहने वालों में ग्लूकोमा के होने की सम्भावना 6 फीसदी अधिक पायी गयी है। यह अध्ययन जर्नल इन्वेस्टिगेटिव ऑप्थल्मोलॉजी एंड विजुअल साइंस में प्रकाशित हुआ है।

अध्ययन के प्रमुख लेखक, प्रोफेसर पॉल फोस्टर ने बताया कि, "हमें वायु प्रदूषण से स्वास्थ्य को होने वाले एक और खतरे के बारे में पता चला है, जिस पर ध्यान देने की जरुरत है। वायु प्रदूषण से आंखों पर पड़ने वाले असर पर भी ध्यान देने की जरुरत है। शोधकर्ताओं ने बताया कि ग्लोकोमा, एक न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारी है। यह आँखों की एक ऐसी बीमारी है जिसके होने पर इंसान की आँखे लगातार कमजोर होती चली जाती है और वह अंधेपन का शिकार हो जाता है। हमारी आँखों में एक ऑप्टिक नर्व होती है जोकि आँखों से चित्र को दिमाग तक पहुचती है और दिमाग उसे ओब्सर्व करता है, लेकिन ग्लूकोमा की स्थिति होने पर इस नर्व में अत्यधिक दवाब पड़ने लगता है और यह चित्र सही तरीके से नही बन पाता, जिससे इंसान को दिखना कम हो जाता है |

प्रोफेसर फोस्टर के अनुसार ग्लोकोमा होने के ज्यादातर कारक हमारे नियंत्रण से बाहर हैं, जैसे कि अधिक उम्र या आनुवांशिक रूप से होना । लेकिन अब वायु प्रदूषण के रूप में ग्लूकोमा के लिए जिम्मेदार एक नए करक की पहचान हुई है। जिसे जीवन शैली में बदलाव लाने, उपचार या नीति में बदलाव करके नियंत्रित किया जा सकता है।"

यह निष्कर्ष यूके के बायोबैंक द्वारा 111,370 प्रतिभागियों पर किये अध्ययन पर आधारित हैं। जिन्होंने 2006 से 2010 के बीच ब्रिटेन में अपनी आंखों की जांच कराई थी। शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों के घर के आस पास वायु प्रदूषण की मात्रा और उनके ग्लोकोमा के ग्रसित होने के सम्बन्ध का अध्ययन किया है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि 25 फीसदी सबसे प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वालों लोगों में एक चौथाई कम प्रदूषित क्षेत्रों की तुलना में ग्लूकोमा होने की संभावना कम से कम 6 फीसदी अधिक थी। साथ ही उनके रेटिना के सामान्य से पतले होने की संभावना भी काफी अधिक थी। जोकि ग्लोकोमा होने के शुरुआती लक्षणों में से एक है।

आंखों पर पड़ने वाला दबाव वायु प्रदूषण से जुड़ा नहीं है, शोधकर्ताओं का मानना है कि वायु प्रदूषण एक अलग तरीके से ग्लोकोमा के जोखिम को बढ़ा सकता है। अनुमान है कि वायु प्रदूषण के कारण रक्त वाहिकाओं में कसाव आ जाता है, जो ग्लूकोमा होने का कारण हो सकता है। जोकि हृदय रोग का भी कारण होता है।

अध्ययन के प्रमुख लेखक डॉ शेरोन चुआ ने बताया कि, "एक संभावना यह है कि पीएम 2.5 के चलते सीधे तौर पर तंत्रिका तंत्र को नुकसान पहुंचता है, और सूजन आ जाती है।" इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने बताया कि वायु प्रदूषण से फेफड़ो, हृदय रोग और मस्तिष्क की बीमारियों जैसे अल्जाइमर, पार्किंसंस और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है। अध्ययन के अनुसार शहरी लोगों में ग्रामीण की तुलना में ग्लूकोमा होने की संभावना 50 फीसदी अधिक होती है, वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसा वायु प्रदूषण के कारण हो सकता है।

प्रोफेसर फोस्टर के अनुसार अध्ययन में पार्टिकुलेट मैटर और ग्लूकोमा के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध देखा गया। यह देखते हुए कि यूके में वैश्विक स्तर पर अपेक्षाकृत प्रदूषण बहुत कम है, दुनिया में भारत जैसे देशों में जहां वायु प्रदूषण का स्तर बहुत अधिक है, वहां ग्लूकोमा पर इसका प्रभाव और भी अधिक हो सकता है। और जैसा कि इस विश्लेषण में इनडोर एयर पोलुशन और कार्यस्थल सम्बन्धी जोखिमों को शामिल नहीं किया गया है, ऐसे में इसका वास्तविक प्रभाव कई गुना अधिक हो सकता है।

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