वायु प्रदूषण और मौसम में आए बदलाव से बढ़ने वाले पराग कण हमें पहुंचा सकते हैं नुकसान

हवा में मौजूद यह पराग कण सांस के जरिए हमारे शरीर में पहुंच जाते हैं, जिसके कारण अस्थमा, एलर्जी और अन्य सांस सम्बन्धी समस्याएं पैदा हो सकती हैं
वायु प्रदूषण और मौसम में आए बदलाव से बढ़ने वाले पराग कण हमें पहुंचा सकते हैं नुकसान
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देखने में आकर्षक लगने वाले पराग कण हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। हाल ही में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा इनपर किए एक शोध से पता चला है कि वायु प्रदूषण और मौसम में आए बड़े बदलाव वातावरण में मौजूद इन पराग कणों की सघनता को प्रभावित कर सकते हैं। इतना ही नहीं शोध में यह भी सामने आया है कि अलग-अलग तरह के पराग कणों को मौसम में आया बदलाव अलग-अलग तरीके से प्रभावित करता है। 

देखा जाए तो यह पराग कण हवा में घुले रहते हैं। जब हम सांस लेते हैं तो यह हमारी सांस के जरिए हमारे शरीर में पहुंच जाते हैं जहां यह ऊपरी श्वसन तंत्र में जाकर तनाव पैदा कर देते हैं। इनके कारण नाक से फेफड़ों तक तरह-तरह की एलर्जी हो सकती है, जिससे अस्थमा, एलर्जी और अन्य सांस सम्बन्धी समस्याएं पैदा हो जाती हैं।

यह शोध भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) की सहायता से चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआईएमईआर) के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। यह अध्ययन जर्नल साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित हुआ है। अपने इस शोध में शोधकर्ताओं ने चंडीगढ़ शहर के वातावरण में मौजूद पराग कणों पर मौसम और वायु प्रदूषण के पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है।

शोधकर्ताओं ने हवा में बनने वाले पराग पर तापमान, वर्षा, सापेक्षिक आर्द्रता, हवा की गति, हवा की दिशा और आसपास मौजूद प्रदूषण के कणों जैसे पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) और नाइट्रोजन ऑक्साइड के संबंधों का पता लगाया है। 

स्वास्थ्य के लिए कितने हानिकारक हैं यह पराग कण

शोध के अनुसार मौसम या पर्यावरण की अलग-अलग परिस्थितियों के चलते वातावरण में मौजूद यह पराग कण स्थान के आधार पर अलग-अलग हो सकते हैं। इससे पहले भी किए गए शोधों में इस बात के प्रमाण मिल चुके हैं कि शहरी हवा में घुले यह पराग कण एलर्जी या उससे सम्बंधित बीमारियों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

यह पराग वायु प्रदूषण और जलवायु में आते बदलावों के साथ प्रकृति में साथ-साथ रहते हैं। जहां अलग-अलग तरह के पराग कण एक दूसरे के संपर्क में आकर हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। 

इस बारे में हाल ही में जर्नल पनास में प्रकाशित एक शोध से भी पता चला है कि वातावरण में इन पराग कणों की सघनता कोविड-19 के संक्रमण को और बढ़ा सकती है। गौरतलब है कि यह शोध 31 देशों में किया गया था। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की एक रिपोर्ट 'इनहेरिटिंग ए सस्टेनेबल वर्ल्ड: एटलस ऑन चिल्ड्रेन्स हेल्थ एंड इंवायरमेंट' में भी इस बात की जानकारी दी गई है कि धरती पर बढ़ते तापमान और प्रदूषण के चलते पराग कणों की मात्रा में इजाफा हो रहा है जो बच्चों के साथ-साथ बड़ों के स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचा सकता है। इससे उनमें अस्थमा और अन्य सांस सम्बन्धी बीमारियां हो सकती हैं। 

इस शोध में यह भी सामने आया है कि अलग-अलग तरह के पराग कणों पर मौसम और वायु प्रदूषकों का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। अधिकांश तरह के पराग कण बसंत और शरद ऋतु में बनते हैं, जब फूलों के खिलने का मौसम होता है। वहीं वायु जनित पराग सबसे अधिक उसी समय बनते हैं जब मौसम की परिस्थितियां उनके अनुकूल होती है।

क्या बदलती जलवायु का भी पड़ेगा असर

मतलब जब मध्यम तापमान, कम आर्द्रता और कम वर्षा होती है तो इनके फैलने की सम्भावना सबसे अधिक होती है। यह भी देखा गया है कि मध्यम तापमान की स्थिति फूलों की खिलने से लेकर इन पराग कणों के मुक्त होने और फैलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके विपरीत भारी बारिश और उच्च सापेक्ष आर्द्रता के कारण वातावरण से पराग कण साफ हो जाते हैं।

हालांकि शोधकर्ताओं को वायुजनित पराग कणों और वायु प्रदूषकों के बीच जटिल और अस्पष्ट संबंध देखने को मिला है। इसपर अभी और शोध करने की जरुरत है। इस शोध से जुड़े प्रोफेसर रवींद्र खैवाल ने जानकारी दी है कि भविष्य में जलवायु में आता बदलाव  शहरी क्षेत्रों में पौधों के जैविक और  फेनोलॉजिकल मापदंडों को प्रभावित कर सकता है।  

शोधकर्ताओं के अनुसार शोध के जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो वायु जनित पराग, वायु प्रदूषकों और जलवायु कारकों के आपसी संबंधों को बेहतर तरीके से समझने में सहायक होंगें। इनकी मदद से गंगा के मैदानी क्षेत्र में परागण के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए नीतियां तैयार करने में मदद मिलेगी। गौरतलब है कि यह क्षेत्र देश का सबसे प्रदूषित क्षेत्र है। विशेष रूप से अक्टूबर और नवंबर में तो गंगा के मैदानी भागों में वायु प्रदूषण अपने चरम पर पहुंच जाता है। जिसके साथ ही सांस सम्बन्धी बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है। 

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