
भोपाल के भारत भवन में रहने वाले फिल्म निर्माता आशय चित्रे ने तड़के करीब 3 बजे अपनी खिड़की से शोरगुल सुना। दिसंबर की ठंड में चित्रे के घर की सभी खिड़कियां बंद थीं। जैसे ही चित्रे और उनकी सात माह की गर्भवती पत्नी रोहिणी ने खिड़की खोली, उन्हें गैस की तेज गंध आई। उन्हें तुरंत सांस लेने में तकलीफ महसूस हुई। तभी अचानक उनकी आंखों और नाक से पीला तरल पदार्थ बहने लगा।
खतरे को भांपते हुए दंपति ने एक चादर उठाई और घर से बाहर निकल भागे। उन्हें पता नहीं था कि पड़ोस के सभी बंगले जिनमें टेलीफोन थे, पहले ही खाली हो चुके थे। उनके सबसे करीबी पड़ोसी राज्य के श्रम मंत्री श्यामसुंदर पाटीदार भाग चुके थे। चित्रे से केवल 300 मीटर की दूरी पर रहने वाले मुख्यमंत्री को भी शायद समय रहते सूचित कर दिया गया था।
अपने घर के बाहर चित्रे को अफरा-तफरी का माहौल मिला। हर जगह गैस थी और लोग हर तरफ अपनी जान बचाने के लिए बदहवासी में भाग रहे थे। सुरक्षित रास्ता बताने वाला वहां कोई भी नहीं था। कुछ लोग उल्टी करने लगे और तुरंत मर गए। घबराहट इतनी ज्यादा थी कि लोग अपने बच्चों को पीछे छोड़ गए। लोग रास्तों में पड़े गैस पीड़ितों को उठाने के लिए भी नहीं रुके।
एक जगह दंपत्ति ने देखा कि एक परिवार ने दौड़ना बंद कर दिया है। परिवार को यह कहते सुना, “हम साथ-साथ मरेंगे।” एक अन्य व्यक्ति भागने की हताश कोशिश में 15 किमी तक भागा। एक गुजरती पुलिस वैन को सुरक्षित दिशा का कोई सुराग नहीं था। शवों को पार करते हुए चित्रे परिवार आधा किलोमीटर दूर स्थानीय पॉलिटेक्निक की ओर भागे। यहां पहुंचकर उन्होंने फैसला किया कि अब आगे नहीं भागेंगे। दो घंटे बाद लगभग 5 बजे एक पुलिस वैन आई और घोषणा की कि घर वापस जाना सुरक्षित है। लेकिन किसी ने पुलिसकर्मियों पर विश्वास नहीं किया। पॉलिटेक्निक से चित्रे ने शहर के दूसरे छोर पर रहने वाले दोस्तों को फोन कर मदद मांगी। तीन दिन बाद वह घर लौट पाए। घर पहुंचकर उन्होंने देखा कि उनका अनार का पेड़ पीला और पीपल का पेड़ काला पड़ चुका था।
उस दुर्भाग्यपूर्ण रात के तीन दिन बाद रोहिणी ने जब व्यायाम शुरू किया तो वह दर्द से कराह उठीं। आशय को अपने पैरों में अकड़न महसूस होने लगी। वे तुरंत बॉम्बे (अब मुंबई) चले गए, ताकि अपने और अपने अजन्मे बच्चे का हाल जानने के लिए एक न्यूरोलॉजिस्ट से मिल सकें।
उस रात भोपाल में हजारों लोग ऐसे थे, जिनके लिए यह भयावह त्रासदी बहुत पहले शुरू हो चुकी था लेकिन वे चित्रे परिवार जितने भाग्यशाली नहीं थे। उनमें से ज्यादातर शहर के गरीब लोग थे, जो यूनियन कार्बाइड फैक्टरी के सामने और आसपास की बस्तियों में रहते थे। नगर निगम में ड्राइवर रामनारायण जादव उनमें से एक हैं। वह कहते हैं कि उन्हें रात 11.30 बजे ही गैस का अहसास होने लगा था। लेकिन वह कम से कम 45 मिनट रुके रहे क्योंकि “हर आठवें दिन इतनी गैस लीक होती रहती थी और हमें सीने व आंखों में जलन महसूस होती थी। लेकिन आखिरकार सब कुछ शांत हो जाता था।” अगर कंपनी ने उस समय अपना चेतावनी सायरन बजाया होता, तो भी कई लोग बच सकते थे।
लेकिन कुछ नहीं हुआ और कई हजार लोग रात 12.30 से 1 बजे के बीच ही जागे, तब तक गैस बहुत अधिक मात्रा में फैल चुकी थी। लोग जोर-जोर से खांसते हुए उठे और उनकी आंखें जलने लगीं, जैसे उनमें मिर्च पाउडर झौंक दिया गया हो। जैसे-जैसे जलन बढ़ती गई और सांस लेना असंभव होता गया, वे बेतहाशा भागे। कुछ अपने परिवार के साथ और कई बिना परिवार के। उनके हाथ जो भी लगा वे उस पर सवार हो गए जैसे, साइकिल, बैलगाड़ी, बस, कार, ऑटोरिक्शा, टेम्पो, ट्रक और मोपेड। स्कूटरों पर पूरे परिवार सवार थे। ट्रक भरे हुए थे और लोग उनमें लटके हुए थे। कुछ लोग पहले से ही अंदर मौजूद लोगों के पैर और हाथ पकड़ रहे थे। छोटे बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को ठेले में धकेला जा रहा था या उन्हें उठाकर ले जाया जा रहा था।
सुबह 3 बजे तक मुख्य मार्ग इंसानों की अनियंत्रित और अंतहीन भीड़ से भर चुके थे। सड़कें उल्टी से बदबू मार रही थीं। जो लोग गिर गए उन्हें भीड़ ने कुचल दिया। सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चे हुए। वे चलने और सांस लेने में असमर्थ थे। उनका दम घुट गया और वे मर गए।
हजारों लोग सैकड़ों किलोमीटर दूर सीहोर, विदिशा, होशंगाबाद, रायसेन, ओबैदुल्लागंज, आष्टा, उज्जैन, देवास, इंदौर, रतलाम और यहां तक कि 400 किलोमीटर दूर नागपुर चले गए। 10,000 लोग रायसेन गए। वे इलाज के लिए जिला अस्पतालों में पहुंचे। सैकड़ों लोग जो भागकर उज्जैन और इंदौर पहुंचे, उन्हें तुरंत अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। इस उन्माद के बीच साहस की भी कोई कमी नहीं थी। सैकड़ों टैक्सी, ऑटोरिक्शा, टेम्पो और ट्रक ऑपरेटरों ने हजारों लोगों को निकालने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी। बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड की अत्याधुनिक फैक्ट्री से निकली गैस करीब 40 वर्ग किलोमीटर में फैल गई और पांच से आठ किलोमीटर दूर तक के लोगों को गंभीर रूप से प्रभावित किया। शहर की एक चौथाई आबादी यानी करीब 2,00,000 लोगों के लिए भोपाल गैस चैंबर बन गया। अगर भोपाल की दो झीलें गैस के रास्ते में आकर उसे बेअसर नहीं करतीं तो और भी बड़ी त्रासदी हो सकती थी। रेलवे स्टेशन फैक्ट्री के करीब और गैस के गुबार के रास्ते में था। डिप्टी चीफ पावर कंट्रोलर रहमान पटेल ने वहीं रहकर अपनी जान जोखिम में डाल दी। जब उनके मुखिया दहशत भरी कॉल का जवाब देने आए तो उन्होंने पटेल को काम पर पाया, जबकि उनकी पत्नी और 14 वर्षीय बेटे की पड़ोसी रेलवे कॉलोनी में पहले ही मौत हो चुकी थी। कंट्रोल रूम से महत्वपूर्ण ट्रंक मार्ग पर सभी ट्रेनों की आवाजाही पर नजर रखी जाती है। यह कमरा अव्यवस्थित था, चारों ओर उल्टी और मानव मल बिखरा हुआ था, फाइलें और रजिस्टर अव्यवस्थित थे और कुर्सियां गिरी हुई थीं। आधी रात के बाद 116 अप गोरखपुर-बॉम्बे एक्सप्रेस आई, लेकिन इसके यात्री चमत्कारिक रूप से मौत से बच गए। संभवतः इसलिए क्योंकि उन्होंने ठंडी रात के कारण खिड़कियां बंद रखी थीं। एक वजह यह भी थी कि स्टेशन अधीक्षक एचएस भूर्वे ने ट्रेन को सुरक्षित निकालने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी थी। भूर्वे बाद में मृत पाए गए थे लेकिन इससे पहले आसपास के सभी स्टेशनों को भोपाल में ट्रेनों के आने से रोकने के लिए सतर्क कर दिया। इस कारण करीब सात घंटों तक यह महत्वपूर्ण स्टेशन दुनिया से कटा रहा। अगली सुबह सैकड़ों बीमार और तड़पते हुए लोग प्लैटफॉर्म, सीढ़ियों, दफ्तर के कमरों और यहां तक पटरियों पर मिले। आसपास की सड़कों और फुटपाथों पर गरीब भिखारियों और लावारिश बच्चों की लाशें बिखरी पड़ी थीं।
जो लोग भाग नहीं पाए, उन्होंने अस्पताल का रुख किया। भोपाल के 1,200 बिस्तरों वाले हमीदिया अस्पताल में रात 1.15 बजे पहला मरीज आंखों में परेशानी लेकर पहुंचा। पांच मिनट के भीतर करीब एक हजार लोग यहां पहुंच गए और 2.30 बजे इनकी संख्या 4,000 तक पहुंच गई। ये लोग केवल आंखों से ही नहीं बल्कि सांस लेने की कठिनाइयों से भी जूझ रहे थे। अस्पताल कर्मी इतने लोगों को देखकर हतप्रभ थे। उनके हाथ पांव फूल गए और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। यूनियन कार्बाइड भी उपयोगी सूचनाएं नहीं दे रहा था।
फैक्टरी से तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित हमीदिया अस्पताल के कर्मचारी भी गैस की चपेट में आ गए और बहुत जल्द उनके स्थान पर नई मेडिकल टीम बुलाई गई। रात 2.30 बजे अस्पताल पहुंचे पत्रकारों ने वहां केवल एक डॉक्टर पाया और उसके पास मरीजों का इलाज करने के लिए दवाएं भी नहीं थीं। अल सुबह तक शायद ही कोई डॉक्टर या मेडिकल छात्र नजदीकी हॉस्टल से पहुंच पाया। पीड़ित सेना के ट्रकों में भरकर अस्पताल पहुंचाए जा रहे थे। सैकड़ों मूक, असहाय दर्शकों के सामने लोग खासकर छोटे बच्चे अपनी अंतिम सांसें ले रहे थे। जब इलाज शुरू भी हुआ तो वह केवल फौरी राहत के लिए था, जैसे श्वसननली के सिकुड़ने से होने वाली ऐंठन को कम करने के लिए इंजेक्शन या आंखों पर मरहम लगाना।
सूर्योदय के समय तक सैकड़ों (कुछ लोगों के मुताबिक हजारों) लोगों को मौत हमेशा के लिए सुला चुकी थी। बहुत से लोग सड़कों पर और बहुत से लोग अपने घरों के भीतर फटी हुई रजाइयों के नीचे मरे मिले। बहुत सी पेट से फूली हुई लाशें सड़नें लगी थीं और उनमें कुत्ते और गिद्ध मंडरा रहे थे। अन्य 2,000 लोग अस्पताल और घरों में मर रहे थे। गैस प्रभावित क्षेत्र में सैकड़ों मवेशियों और जानवरों के शव हाथी के आकार में फूल चुके थे। यह दृश्य बड़ा भयावह था।
रात करीब 1 बजे तक हमीदिया अस्पताल में करीब 25,000 लोग ठूंस दिए गए थे। फर्श खून और उल्टी से सना हुआ था। हमीदिया के एक डॉक्टर ने बताया, “मैं शिशु रोग विभाग में खड़ा था। वहां इतनी भयानक भीड़ थी कि फर्श पर शव रखने की भी जगह नहीं थी। जैसे ही किसी मरीज को मृत घोषित किया जाता, उसके रिश्तेदार शव लेकर गायब हो जाते। मैंने कम से कम 50 शवों को इस तरह ले जाते हुए देखा। मेरा अनुमान है कि 500 से 1,000 शवों को मृत्यु पंजीकरण से पहले ही ले जाया गया होगा।”
जीवित बचे लोगों के लिए अपने मृतकों की पहचान करना मुश्किल था। मरे और अधमरे में अंतर करना भी मुश्किल था। शवगृह में मौजूद लोग पोस्टमॉर्टम करने में असमर्थ थे। एक पिता रो पड़ा, “वे मेरे बेटे को ले गए हैं। वह केवल तीन साल का था। मेरे पिता, मां और दो बच्चे गंभीर हालत में हैं। अल्लाह उन दरिंदों को सजा देगा?”
ऐसे हालात में जब प्रशासन सो रहा था, सेना ने मोर्चा संभाल लिया। सब-एरिया कमांडर ब्रिगेडियर एनके मैनी को सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर एमएल गर्ग ने रात करीब 1.15 बजे बुलाया था। गर्ग स्ट्रॉ प्रोडक्ट्स के जनरल मैनेजर थे। यह फैक्ट्री गैस के गुबार के रास्ते में थी। गर्ग को उनकी फैक्ट्री के कर्मचारियों ने बताया था कि उनका दम घुट रहा है, इसलिए उन्हें 176 लोगों को निकालने के लिए मदद की जरूरत थी। उन्होंने तुरंत सेना से संपर्क किया और मदद ली। मदद के लिए कई कारें और ट्रक पहुंचे। स्ट्रॉ प्रोडक्ट्स के कर्मचारियों को सैन्य अस्पतालों में पहुंचाया गया, लेकिन तब तक उनमें से कुछ की मौत हो चुकी थी और अन्य गंभीर रूप से बीमार थे।
2.45 बजे तक सेना ने वाहनों का एक बेड़ा भेज दिया था और घरों में फंसे लोगों की तलाशी शुरू कर दी थी। इलेक्ट्रिकल और मैकेनिकल इंजीनियर्स सेंटर के मेजर जीएस खानूजा ने फैक्ट्री क्षेत्र में बार-बार चक्कर लगाए और पूरी रात मिलिट्री हॉस्पिटल के साथ-साथ हमीदिया हॉस्पिटल में लोगों को निकालने के लिए एक निरंतर चैनल बनाया। खानूजा पीड़ितों की तलाश में घर-घर गए। शहर के पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी (जो बाद में इस खोज में सेना के साथ हो गए) ने एक रिपोर्टर को बताया, “यह भयावह था, किसी भी दरवाजे पर दस्तक दें और आपको केवल शव मिलेंगे।” खानूजा को अंततः अस्पताल में भर्ती कराया गया। टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रफुल बिदवई ने कहा, “अगर हिरोशिमा और नागासाकी के बाद मौत का कोई दयनीय, विकराल और घृणित रूप है तो वह यही है।” हिंदू श्मशान घाट पर सुबह 9 बजे से एक बार में लगभग 15 चिताएं जलाई गईं। श्मशान घाटों में जल्द ही जलाऊ लकड़ी खत्म हो गई और अधिक लकड़ी लाने के लिए ट्रकों में मार्शल भेजने पड़े। समय, धन, ऊर्जा और मानव शक्ति बचाने के लिए प्रत्येक चिता पर पांच से 10 लोगों का अंतिम संस्कार किया गया। हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार, बच्चों और शिशुओं को कब्र खोदने वालों के एक समूह द्वारा तेजी से दफनाया गया। कब्र के आसपास कुछ ही माता-पिता दिखाई दिए।
मुस्लिम कब्रिस्तान में भी आने वाले शवों को दफनाने के लिए पर्याप्त जगह नहीं थी। बचावकर्मियों ने 11 शवों के लिए कब्र खोदी। जब जगह नहीं बची तो पुरानी कब्रों को खोला गया और 100 साल पुरानी हड्डियों को निकालकर जगह बनाई गई। भोपाल में मुख्य मौलवी को पुरानी कब्रों को खोदने की अनुमति देने के लिए फतवा जारी करना पड़ा। कुत्तों के झुंड इधर-उधर घूम रहे थे और अगर उन्हें कोई कब्र गहरी नहीं मिलती थी तो शवों को नोचकर खाने लगते थे।
भोपाल में मौत का तांडव कई दिनों तक चलता रहा। हजारों लोग शहर के अस्पतालों के चक्कर काटते रहे। यहां मध्य प्रदेश के दूसरे शहरों से 500 डॉक्टर और सहायक कर्मचारी पहुंच गए थे। गैस रिसाव के 30 घंटे बाद शहर में पहुंचे एक विदेशी संवाददाता ने गैस प्रभावित भोपाल की स्थिति का वर्णन इस तरह किया, “कारखानों में लाशें अब भी जमीन पर पड़ी थीं। उन्हें उठाकर एक ट्रक में भरा जा रहा था। जहां भी देखो, लोग उल्टी कर रहे थे और तेज खांसी से परेशान थे। शहर की सभी दुकानें बंद थीं और हर सड़क पर लोग नालियों में मरे पड़े थे। बहुत से लोग जमीन पर पड़े तड़प रहे थे, ठीक वैसे ही जैसे ऊंचाई से शिकार करने के बाद पक्षी तड़पते हैं। मृतकों को गिद्धों ने घेर रहा था। जब गिद्ध झपट्टा मारकर भागते तो कुत्ते हमला कर देते और मांस के टुकड़े नोच लेते। इनसे मृतकों को बचाने के लिए भारतीय सेना के राइफलधारी सैनिक तैनात थे। उनके साथ साथ लंबी-लंबी लाठियां लिए हुए स्वयंसेवक भी निगरानी कर रहे थे।
छोटे बच्चों ने बताया कि वे रात भर भागते रहे। उन्हें रुकने की जगह नहीं मिली। उन्होंने सैनिकों से पूछा कि उनके माता-पिता कहां मिलेंगे। सैनिकों ने जवाब दिया, “यहां रुको। एक ट्रक आएगा और तुम्हें अस्पताल ले जाएगा। सभी लोग वहां होंगे।” डरे हुए बच्चे इंतजार करते रहे। जब ट्रक आया, तो उसने बच्चों को हमीदिया अस्पताल पहुंचाया। सेना भी वहां मौजूद थी, जो बिना किसी धक्का-मुक्की के लोगों की आवाजाही को सुचारू बनाए हुए थी। सैनिकों ने 60 टेंट लगाए थे, जो 20-20 लोगों के लिए वार्ड बन गए। कुछ दूरी पर सेना ने एक मुर्दाघर बनाया था, जहां शहर में गश्त करने वाले लोग मृतकों की पहचान करने के लिए लाते थे। सूबेदार एबी भोसले ने कहा, “मुझे लगा कि मैंने सब कुछ देख लिया है, लेकिन यह युद्ध से भी बदतर है!”
तीसरे दिन शहर के अस्पतालों में 400 और मौतें हुईं। अस्पतालों का कहना था कि अब तक 75,000 लोगों का इलाज किया जा चुका था। अस्पतालों में एमआईसी (मिथाइल आइसोसाइनेट) विषाक्तता के नए मामले सामने आते रहे, जिससे बाद के प्रभावों की आशंका बढ़ गई। कुछ पीड़ितों में लकवा के लक्षण दिखे, 500 को कॉर्नियल अल्सर हो गया और डॉक्टरों ने कहा कि वे अंधे हो सकते हैं। कब्रिस्तान में कब्र खोदने में मदद करने वाले लोग थक चुके थे। उन्होंने कहा, “हम शवों को दफनाने से तंग आ चुके हैं। जगह भी नहीं है।”
छठे दिन फिर से डर का माहौल था। कुछ 51 मरीज जिन्हें पहले आंखों की मामूली बीमारी के इलाज के बाद घर भेज दिया गया था, उन्हें गंभीर हालत में अस्पताल ले जाना पड़ा। डॉक्टरों का मानना था कि ये लोग भोपाल झील से खाई गई मछलियों से प्रभावित हुए होंगे। एहतियात के तौर पर अधिकारियों ने शहर के मुख्य मछली बाजार को तुरंत बंद कर दिया। अगले दिन सरकार ने घोषणा की कि बूचड़खाने बंद किए जा रहे हैं ताकि गैस से प्रभावित जानवरों का मांस न बेचा जा सके, लेकिन मछलियों की बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं था।
अस्पताल में भर्ती होने वालों और मौतों में लगातार कमी आने लगी थी, लेकिन आपदा के सातवें दिन शहर में दहशत की एक नई वजह सामने आई। कारखाने में अब भी 15 टन घातक गैस बची हुई थी, जिसे भोपाल की सुरक्षा से लिए पहले ही नष्ट करना था।
सरकार ने वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के महानिदेशक एस वरदराजन की अध्यक्षता में वरिष्ठ वैज्ञानिकों की एक टीम को निपटान प्रक्रिया का काम सौंपा। वरदराजन ने भोपाल में केंद्र सरकार की क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला में अपना कार्यालय स्थापित किया और खुद को पूरी तरह से गोपनीय कर लिया। इससे शहर के लोग परेशान हो गए। पत्रकारों को बताया गया कि गैस के निपटान के चार तरीके हैं- इसे कास्टिक सोडा जैसे रसायन से बेअसर करें (जैसा कि कारखाने के वेंट स्क्रबर में होने की उम्मीद है), इसे जला दें (जैसा कि कारखाने के फ्लेयर टावर में होने की उम्मीद है), इसे ड्रम में पैक करें और इसे अमेरिका या अन्य जगहों पर मूल यूनियन कार्बाइड को भेज दें या बस कारखाने को चालू करें और अंतिम उत्पाद कार्बेरिल कीटनाशक में बदल दें।
यह स्पष्ट था कि कंपनी अंतिम विकल्प के लिए कड़ी मेहनत कर रही थी। अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन (यूसीसी) ने तुरंत दुनियाभर में अपनी इकाइयों को सुझाव दिया कि संयंत्रों को बंद करने से पहले कार्बेरिल का उत्पादन करने के लिए बची हुई एमआईसी का उपयोग करें।
भोपाल में यूनियन कार्बाइड प्रबंधन ने कथित तौर पर शेष गैस के निपटान के लिए त्रासदी के ठीक चार दिन बाद 7 दिसंबर को ही संयंत्र को फिर से खोलने की कोशिश की थी। लेकिन ऐसा करने आए कर्मचारियों को जिला प्रशासन ने लौटा दिया। दरअसल आपदा के चौथे दिन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने घोषणा की थी कि प्लांट को फिर कभी नहीं खोलने दिया जाएगा। प्लांट को फिर से शुरू करने का मतलब होता मुख्यमंत्री की घोषणा को झूठा साबित करना। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, “यह 1,300 से अधिक लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार कंपनी के सामने आत्मसमर्पण करने जैसा होगा। यह यूनियन कार्बाइड को सुरक्षा मंजूरी या प्रमाणपत्र देने और इसके प्रबंधन को अपनी मर्जी से प्लांट चलाने की अनुमति देने के बराबर होगा।” 10 दिसंबर को खबर फैली कि फैक्ट्री फिर से शुरू हो गई है। एक जिला अधिकारी ने दावा किया कि घातक गैस को तैयार उत्पादों में परिवर्तित करके “गैस को बेअसर करने” का काम शुरू हो गया है, लेकिन वरदराजन द्वारा एक प्रेस बयान में तुरंत इसका खंडन किया गया। इस बीच शहर ने बेचैनी छाई रही। अगले दिन वरदराजन की टीम द्वारा परीक्षण के लिए प्लांट को फिर से शुरू करने की रिपोर्टों के बीच अर्जुन सिंह ने लोगों से अपील की “घबराने की कोई बात नहीं है और मैं फिर से दोहराता हूं कि शहर को खाली करने का कोई कारण नहीं है।” जब मुख्यमंत्री यह घोषणा रहे थे, तब वह और उनकी सरकार अलग तरह से काम कर रही थी।
सरकारी गाड़ियां शहर भर में घूम-घूम कर हैरान लोगों को बता रही थीं कि अगले दिन से सभी स्कूल और कॉलेज 12 दिनों के लिए तत्काल बंद किए जा रहे हैं। मध्य प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम ने पत्रकारों के सामने स्वीकार किया कि राज्य के अन्य हिस्सों से बड़ी संख्या में बसें भोपाल बुलाई गई हैं, लेकिन ऐसा “भोपाल लौटने वाले” लोगों की असाधारण भीड़ को देखते हुए किया गया है।
लोगों ने स्पष्ट रूप से इन हलचलों को आपातकालीन निकासी की सरकारी योजना के रूप में देखा और उन्हें मुख्यमंत्री का आश्वासन झूठा लगा। सरकार ने लोगों को यह भरोसा दिलाने के लिए पुलिस वैन को शहर भर में घुमाया कि कोई खतरा नहीं है। इसी तरह का आश्वासन ऑल इंडिया रेडियो के स्थानीय स्टेशन पर प्रसारित किया गया। लेकिन इस सबका बहुत कम असर हुआ।
अगले दिन तक असमंजस खत्म हो गया। सरकार ने कंपनी के सामने झुकने का फैसला किया। मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि सरकारी टीम इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि गैस के निपटान के लिए सभी विकल्पों में से फैक्ट्री को चालू करना “सबसे व्यावहारिक और सुरक्षित तरीका” है। यह वही “शून्य जोखिम” विधि थी जिसके बारे में उन्होंने पहले बात की थी।
उन्होंने कहा कि फैक्ट्री 16 दिसंबर से चार से पांच दिनों के लिए फिर से शुरू होगी ताकि बची हुई गैस को कार्बेरिल में बदला जा सके लेकिन सभी सुरक्षा उपाय अपनाए जाएंगे और “न्यूट्रलाइजेशन” प्रक्रिया से किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं होगा। उन्होंने यह भी घोषणा की कि वे पूरी प्रक्रिया के दौरान व्यक्तिगत रूप से प्लांट में मौजूद रहेंगे। लेकिन पहले से ही दहशत में आए लोगों के लिए यह सब मायने नहीं रखता था। उनकी सबसे बुरी आशंका तब और पुख्ता हो गई जब उन्होंने देखा कि सरकार की दोहरी नीति जारी है। मुख्यमंत्री ने उसी समय घोषणा की कि अगर लोग जाना चाहें तो उनकी सरकार 13 संवेदनशील इलाकों से 1,25,000 लोगों को शरणार्थी शिविरों में भेजने के लिए तैयार है। साथ ही जो लोग पड़ोसी शहरों में अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के पास जाना चाहते हैं, उनके लिए अतिरिक्त बसें उपलब्ध होंगी। लोगों के जानवरों के लिए भी एक अलग शिविर बनाया जाएगा।
लोगों ने सरकारी घोषणाओं पर बहुत कम भरोसा दिखाया और अपने पैरों पर भरोसा किया। मुख्यमंत्री की घोषणा के दिन शुरू हुआ लोगों के भोपाल से निकलने का सिलसिला अगले विकराल हो गया। 13 दिसंबर की शाम तक अभूतपूर्व पलायन करते हुए 1,00,000 से अधिक लोग शहर छोड़ चुके थे। पूरी रात बस अड्डे पर भीड़ रही और अधिकारियों ने सैकड़ों अतिरिक्त बसें बुलाईं। लोग भोपाल से निकलने वाली भीड़ भरी बसों और ट्रेनों की छतों पर सवार होकर यात्रा कर रहे थे। कई लोग अपने जानवरों को पड़ोसी गांवों में ले गए। जब उनसे पूछा गया कि जब मुख्यमंत्री ने घोषणा की थी कि कोई खतरा नहीं है, तो वे शहर क्यों छोड़ रहे हैं, तो लगभग सभी ने कहा, “हम मरना नहीं चाहते।”
प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) की रिपोर्ट में कहा गया, “मुख्यमंत्री द्वारा संवेदनशील क्षेत्रों के रूप में पहचाने गए 13 इलाकों में केवल वे लोग ही बचे हैं जिनके पास अपने वाहन हैं या वे इतने गरीब हैं कि सुरक्षित स्थान पर जाने का खर्च वहन नहीं कर सकते। यह स्वतः स्फूर्त पलायन अविश्वसनीय लेकिन सच है। यह अज्ञात भय से घिरे होने जैसा है, जो छूत की बुखार की तरह फैल रहा है। जब उन्हें बताया गया कि मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह खुद ऑपरेशन के दौरान कीटनाशक संयंत्र में मौजूद रहेंगे, तो उन्होंने चुटकी ली, “उनके जैसे लोग उड़ सकते हैं। हमारा क्या होगा?”
अगले दिन भी पलायन जारी रहा। लोगों में दहशत इस हद तक फैल गई कि कई अस्पतालों में इलाज करा रहे लोग बड़ी संख्या में अपने बिस्तर छोड़कर चले गए। 14 दिसंबर की शाम तक शहर की लगभग एक चौथाई आबादी पलायन कर चुकी थी।
सरकार के शिविरों पर लोगों का भरोसा नहीं जगा। केवल 4,800 लोग ही वहां पहुंचे। शिविरों में पहुंचे लोग भी उतने ही डरे हुए थे जितने झुग्गियों में थे। इंदौर के दैनिक अखबार नई दुनिया ने लिखा, “अगर उनके पास पैसा, परिवार, दोस्त और रिश्तेदार होते तो वे भी इस बुरे शहर से बहुत दूर चले जाते। इन शिविरों में ज्यादातर भिखारियों ने शरण ली है।” अधिकारियों को दो खाली शिविरों को बंद करना पड़ा।
लोगों के डर के बीच सरकारी टीम ने निपटान प्रक्रिया के दौरान अतिरिक्त सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तैयारी शुरू कर दी। विशेषज्ञों ने अखबारों के उत्सुक संवाददाताओं को बताया कि छह-चरणीय सुरक्षा प्रणाली बनाई गई है। हालांकि पहले चरण में कोई सुरक्षा प्रणाली नहीं थी। इसमें केवल वह प्रक्रिया थी जिसके द्वारा कीटनाशक कार्बेरिल को अल्फानाफ्थोल के साथ घातक गैस की प्रतिक्रिया करके बनाया जाता है। दूसरा, कारखाने में मानक वेंट स्क्रबर था जो पहले काम नहीं कर रहा था। इस प्रणाली में एकमात्र नयापान यह था कि स्क्रबर के दो तरफ रखे गए अग्निशामक होज का एक सेट था जो इसे ठंडा रखता था। अगर बहुत अधिक गैस स्क्रबर में आ जाती तो कास्टिक सोडा के साथ प्रतिक्रिया से इसका तापमान बढ़ जाता। तीसरी सुरक्षा प्रणाली फिर से मानक फ्लेयर टावर थी।
विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई तीन नई प्रणालियां एमआईसी की पानी के साथ प्रतिक्रिया पर आधारित थीं, लेकिन उनकी कमजोरियों की बहुत आलोचनाएं हुईं। जैसे इसमें से पहली में तिरपाल का शामियाना शामिल था जो चिमनी को ढकता था जिसके माध्यम से एमआईसी बाहर निकलता था। इस शामियाना को लगातार गीला रखा जाना था ताकि कोई भी निकलने वाली गैस जो फ्लेयर टावर से जले नहीं, पानी के साथ प्रतिक्रिया करके हानिरहित डाइमिथाइल यूरिया में परिवर्तित हो जाए।
दूसरी व्यवस्था में 3 दिसंबर को सबसे ज्यादा प्रभावित कॉलोनी जयप्रकाश नगर की तरफ कारखाने की परिधि की दीवार पर जूट की चटाई टांगी गई थी। इसे भी गीला रखा जाना था ताकि कोई भी निकलने वाली गैस पानी के साथ प्रतिक्रिया कर सके। छठी सुरक्षा व्यवस्था में भारतीय वायुसेना के हेलीकॉप्टर प्लांट के ऊपर मंडराते रहते थे जो जरूरत पड़ने पर निकलने वाली गैस पर पानी का छिड़काव कर सकते थे। अगर इन सबके बावजूद तुरंत निकासी जरूरी हो जाती तो लोगों को सायरन बजाकर चेतावनी दी जाती और पांच मिनट के नोटिस पर सेना की टुकड़ियां मदद के लिए पहुंच जातीं।
जूट की चटाई पर खास तौर पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की गई। प्रफुल बिदवई ने कहा, “चारदीवारी के एक छोटे से हिस्से पर जूट की पतली सी बोरी बंधी हुई है, जिसे बड़े ही शानदार तरीके से “पांचवी सुरक्षा प्रणाली” कहा जाता है। हवा में लहराती हुई बोरी जमीन से 12 या 15 फीट से ज्यादा ऊपर नहीं पहुंचती। यह दुर्घटनावश गैस के रिसाव की स्थिति में गैस को रोकने के लिए काफी कम ऊंचाई है। वास्तव में अधिकारियों ने बिना किसी आधार के अनुमान लगाया है कि लीक होने वाली गैस भी एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ेगी लेकिन यह जरूरी नहीं है (या जैसा कि वरदराजन कहते हैं “संभव है”) कि बोरी को फैक्टरी की पूरी परिधि की दीवार पर लगाया जाए।”
इन सुरक्षा प्रणालियों के अलावा अखबारों ने पूरे ऑपरेशन के प्रभारी पर भी टिप्पणी की। टाइम्स ऑफ इंडिया ने कहा, “सीएसआईआर के एस वरदराजन के नेतृत्व में भारतीय विशेषज्ञों की मौजूदगी के बावजूद इस बात पर बहुत कम संदेह है कि वास्तव में प्रभारी कौन है। भारतीय विशेषज्ञों की टीम अभी तक पूरी तरह से और सीधे तौर पर नियंत्रण में नहीं दिखती है। काम का विवरण यूनियन कार्बाइड प्रबंधन पर छोड़ दिया गया है। जैसा कि डॉ. वरदराजन कहते हैं, “हम वास्तव में प्लांट को अच्छी तरह से नहीं जानते थे।” इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्तमान ऑपरेशन में यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन, यूएसए के प्रबंधकों की संलिप्तता स्पष्ट है।
यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के वे अधिकारी, जिन्हें त्रासदी के पहले दिन गिरफ्तार किया गया था, उन्हें 16 दिसंबर को इस शर्त पर जमानत पर रिहा कर दिया गया कि वे प्लांट में बची हुई गैस को निष्क्रिय करने में मदद करेंगे। निष्क्रिय करने वाले विशेषज्ञों में अमेरिका के डब्ल्यू वूमर शामिल थे, जिन्हें पहले प्लांट में प्रवेश से इस डर से मना कर दिया गया था कि वे सबूत नष्ट कर देंगे।
विडंबना देखिए कि इतनी अत्याधुनिक तकनीक और विशेषज्ञता के बाद भी यह आस्था का मामला था। मुख्यमंत्री ने 15 दिसंबर की शाम को घोषणा की, “यूनियन कार्बाइड संयंत्र में जहरीली गैस को बेअसर करने के लिए ऑपरेशन का मंच तैयार है। भले ही इसका संचालन यूनियन कार्बाइड के लोगों द्वारा पूरी जिम्मेदारी लेते हुए किया जाना है, लेकिन इसके लिए हमें यानी मुझे ही इजाजत देनी होगी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह मेरे द्वारा लिए गए सबसे महत्वपूर्ण और पीड़ादायक निर्णयों में से एक है। ऐसे नितांत अकेलेपन में हमारे रचयिता (भगवान) में विश्वास से अधिक कुछ भी हमें प्रेरित नहीं करता है। भले ही मानव हृदय में आस्था हमेशा बनी रहती है, लेकिन इस समय यह पिछले कुछ दिनों की भयावह घटनाओं से बुरी तरह हिल गई है। उस आस्था को फिर से जगाना होगा। इसलिए इस ऑपरेशन को ऑपरेशन आस्था कहा जाएगा। आइए, हम इसकी सफलता के लिए प्रार्थना करें।”
रात भर ऑपरेशन की तैयारियां चलती रहीं। पानी के टैंकरों और फायर ब्रिगेड की गाड़ियों ने हर सड़क को पानी से नहला दिया, हालांकि कोई नहीं जानता था कि इससे गैस का लोगों पर असर कैसे रुकेगा। ड्यूटी पर मौजूद पुलिसकर्मियों ने पानी से भरी बाल्टियां और छोटे तौलिये तैयार रखकर अपनी सुरक्षा की तैयारी की।
फैक्ट्री में ही, फायर टेंडरों ने जूट की जाली को गीला कर दिया। अन्य फायर टेंडरों ने प्लांट के एमआईसी सेक्शन को कवर करने वाली स्क्रीन पर पानी की धारें छोड़ीं। हर पांच से दस मिनट में एक हेलिकॉप्टर प्लांट के ऊपर पानी का छिड़काव करता हुआ मंडरा रहा था और कभी-कभी पड़ोसी कॉलोनियों के ऊपर भी। सुरक्षा उपाय के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए प्लांट कर्मियों के लिए सैकड़ों ऑक्सीजन मास्क पहुंचाए गए।
16 दिसंबर को सुबह 8.30 बजे मुख्यमंत्री की बहुप्रचारित उपस्थिति के साथ ऑपरेशन शुरू हुआ। फैक्ट्री के गेट के बाहर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी (जो आगे चलकर प्रधानमंत्री बने) ने पुलिसकर्मियों से बहस की, जिन्होंने पहले तो उन्हें प्लांट में घुसने की अनुमति नहीं दी और फिर उन्हें अंदर जाने दिया। पहले दिन के अंत तक स्टोरेज टैंक नंबर 619 में अनुमानित 15 टन में से चार टन और स्टेनलेस स्टील के ड्रमों में 1.2 टन कीटनाशकों में परिवर्तित हो गए थे।
अगली सुबह फायर टेंडर और हेलिकॉप्टरों की वही दिनचर्या दोहराई गई। लोगों में विश्वास जगाने के लिए गेट के सामने दो सेना अधिकारी ब्रिगेडियर एनके मैनी और मेजर जीएस खनूजा खड़े थे, जिन्होंने 2 दिसंबर की सुबह लगभग 10,000 लोगों को निकालने के लिए अपनी जान जोखिम में डाली थी। उस दिन के अंत तक अन्य चार टन का उपयोग किया गया था। तीसरे दिन के अंत तक 12 टन का निपटान किया गया था, केवल चार टन और परिवर्तित करने के लिए बचा था। लेकिन उस दिन तक सरकारी टीम को यह भी पता चल गया था कि टैंक में फैक्ट्री के रिकॉर्ड में पहले बताई गई मात्रा से कहीं अधिक गैस थी। यह ऑपरेशन चार या पांच दिनों में खत्म होना था लेकिन शुरू होने के सात दिन बाद शनिवार को यह खत्म हो गया और करीब 24 टन गैस को परिवर्तित करना पड़ा, जो अनुमान से 50 प्रतिशत अधिक थी।
यूनियन कार्बाइड को यह भी नहीं पता था कि उसके पास कितनी गैस है।
सरकार का रवैया अनिश्चित और ढुलमुल था। आने वाले दिनों में यह और भी अनिश्चित हो गया। राज्य सरकार के अनुरोध पर केंद्र सरकार ने डॉक्टरों की एक टीम भेजी, उसके बाद केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) की एक टीम भेजी गई। जिला मजिस्ट्रेट ने 3 दिसंबर को ही फैक्ट्री को बंद करने का आदेश दिया और भोपाल में कंपनी के पांच अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। त्रासदी की न्यायिक जांच की घोषणा की गई।
अगले दिन दिल्ली से केमिकल इंडस्ट्री और पर्यावरण विशेषज्ञों की दो टीमें भेजी गईं। नए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपना चुनाव अभियान बीच में छोड़कर भोपाल के लिए उड़ान भरी। इन रुटीन नौकरशाही प्रतिक्रियाओं के अलावा राज्य या केंद्र सरकार ने पहले दो दिनों के दौरान कुछ विशेष नहीं किया। सेना इसका अपवाद जरूर थी। उस सुबह अपने घरों से भागने वाले 1,00,000 से अधिक लोगों को कोई मदद नहीं मिली।
भोपाल के पुलिस अधीक्षक ने दावा किया कि पुलिस ने जो भी वैन और ट्रक उपलब्ध थे, उनका इस्तेमाल किया और लोगों को भोपाल से बाहर निकाला। लेकिन उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि प्रशासन को गैस रिसाव की प्रकृति का कोई सुराग नहीं था, इसलिए वे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे।
सत्ता का केंद्रीकरण और पहल की कमी आम दिनों में ही स्पष्ट दिखाई देती है। दबाव में वह सचमुच धाराशायी हो गई। प्रशासन में बैठे लोगों ने अपनी पूरी ताकत झौंक दी, लेकिन कोई समग्र योजना नहीं बनाई गई। उन शुरुआती कुछ घंटों में पूरी तरह से भ्रम की स्थिति थी।
रिसाव की पुष्टि हो जाने के बाद सरकार ने शहर को खाली करने का फैसला किया। लेकिन किसी ने इस घोषणा को आम जनता तक नहीं पहुंचाया। केवल अभिजात वर्ग के लोगों को ही इसकी जानकारी मिली। इन लोगों में मंत्री और वे लोग शामिल थे जो प्लांट से दूर कॉलोनियों में रहते थे और उनमें भी ज्यादातर के पास टेलीफोन थे। बाकी लोगों को खुद ही अपना खयाल रखना पड़ा।
सचिवों और विभागाध्यक्षों की पहली समन्वय बैठक 4 दिसंबर की रात को बुलाई गई, यानी 40 घंटे से भी अधिक समय बाद। सौभाग्य से राष्ट्रीय अंधत्व नियंत्रण कार्यक्रम के कारण शहर में दवाओं का स्टॉक उपलब्ध था।
दो दिनों तक लगभग 2,000 जानवरों के शव सड़कों और घरों में बिखरे पड़े रहे और हैजा फैलने की आशंका पैदा हो गई थी। आखिर में सेना और भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड से क्रेन और डंपर मंगाए गए। एक क्रेन का तार एक मृत भैंस को उठाते समय टूट गया। भैंसों की लाशें इतनी फूल गई थीं कि उन्हें झुग्गी-झोपड़ियों के घरों के संकरे दरवाजों से बाहर नहीं निकाला जा सकता था। उन्हें निकालने के लिए 32 घरों की दीवारें तोड़नी पड़ीं। अंत में मृत जानवरों को शहर से पांच किलोमीटर दूर ले जाया गया और बुलडोजर से खोदी गई 3 मीटर गहरी खाइयों में फेंक दिया गया और उसमें चार ट्रक नमक, दो ट्रक ब्लीचिंग पाउडर, 10 ट्रक चूना और आधा ट्रक कास्टिक सोडा डाला गया।
तीन सप्ताह बाद महामारी फैलने का डर फिर से फैल गया क्योंकि लाखों मक्खियां ने अनुचित तरीके से निपटाए गए शवों से आकर्षित होकर शहर में धावा बोल दिया। सेना ने शुरू में जानवरों के शवों को हटाने और उनका निपटान करने में मदद की थी, लेकिन अधिकारियों ने स्वीकार किया कि सफाई कर्मचारियों की कमी के कारण सभी जानवरों को दफनाया नहीं जा सका। अधिकांश नगरपालिका कर्मचारी गैस से प्रभावित थे और सफाई कर्मचारियों को दूसरे शहरों से बुलाना पड़ा।
लोगों के सवालों के जवाब में प्रशासन की रवैया संवेदनहीन था। सरकार ने दूसरे दिन ही ऑल इंडिया रेडियो पर समाचार बुलेटिन प्रसारित करना शुरू कर दिया कि स्थिति तेजी से सामान्य हो रही है और सब सुरक्षित है। पत्रकारों ने मुख्यमंत्री को बताया कि यह यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों की घोषणाओं जैसा लग रहा था। लोग जिस हवा में सांस लेते हैं, जिस पानी को पीते हैं और जो मांस, आटा, मछली और सब्जियां खाते हैं, उन सबको संदेह की नजर से देख रहे थे। वे जानना चाहते थे कि क्या मरे हुए जानवरों से महामारी फैलेगी, क्या कारखाने में कोई गैस बची है और क्या यह फिर से लीक हो सकती है।
लोगों को पूरी तरह भरोसे में लेने के बजाय गुमराह करने वाले और विरोधाभासी बयानों की झड़ी लग गई। एक अखबार की रिपोर्ट ने बताया कि 4 दिसंबर को भोपाल दौरे पर राजीव गांधी ने घोषणा की थी कि पानी की जांच की गई है और उसमें कोई जहरीला पदार्थ नहीं पाया गया है। लेकिन बाद में वरदराजन ने खुलासा किया कि जांच 5 दिसंबर को ही शुरू हुई थी। इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि जब बची हुई गैस को बेअसर करने की बात सामने आई तो लोग अभूतपूर्व संख्या में शहर छोड़कर भाग गए।
3 दिसंबर को पहुंची सीबीआई की टीम ने तुरंत प्लांट के अधिकारियों और सुपरवाइजरी में तैनात कर्मचारियों से पूछताछ शुरू कर दी। सीबीआई ने कार्बाइड के अधिकारियों को बिना अनुमति के भोपाल न छोड़ने की चेतावनी दी और एमआईसी के भंडारण और रिलीज से संबंधित सभी लॉग बुक और जरूरी कागजात जब्त कर लिए। जब यूसीसी के अमेरिकी तकनीकी विशेषज्ञों की टीम पूर्व कार्य प्रबंधक डब्ल्यू वूमर के नेतृत्व में दुर्घटना के तीन दिन बाद भोपाल पहुंची तो सरकार ने उन्हें प्लांट में प्रवेश करने से रोक दिया क्योंकि संदेह था कि वे सबूत नष्ट कर सकते थे।
सरकार ने जिस तरह यूसीसी के अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन की गिरफ्तारी का मामला संभाला, वह हास्यास्पद था। जैसे ही एंडरसन यूसीआईएल के अध्यक्ष केशव महिंद्रा और प्रबंध निदेशक वीपी गोखले के साथ भोपाल पहुंचे, तीनों को हिरासत में ले लिया गया। उन्हें भारी पुलिस सुरक्षा के साथ कार में बिठाकर कंपनी के गेस्टहाउस ले जाया गया और अलग-अलग कमरों में रखा गया, जहां से टेलिफोन लाइनें पहले ही काट दी गई थीं।
उन पर कई तरह के आरोप लगाए गए, जिनमें से कई आरोप गैर-जमानती हैं और आजीवन कारावास या पांच से 10 साल तक की सजा हो सकती है। एक सरकारी अधिकारी ने कहा कि गिरफ्तारियां “बड़ी त्रासदी को जन्म देने वाली घटनाओं की जवाबदेही के तौर” के लिए की गई थीं। मुख्यमंत्री ने खुद घोषणा की, “यह सरकार त्रासदी के प्रति मूकदर्शक नहीं रह सकती और हजारों निर्दोष नागरिकों के प्रति अपना कर्तव्य जानती है।” उन्होंने आरोप लगाया कि नागरिकों का जीवन “यूनियन कार्बाइड के प्रबंधन के क्रूर और लापरवाहीपूर्ण रवैये के कारण दर्दनाक रूप से प्रभावित हुआ है।” एक भारतीय समाचार एजेंसी की प्रारंभिक विज्ञप्ति में यहां तक कहा गया कि बहुराष्ट्रीय यूसीसी के अधिकारियों को “मृत्युदंड की सजा दी जा सकती है।” इसके लिए वाइट हाउस तक में विरोध प्रदर्शन किए। लेकिन यह दिलेरी शुरू होते ही खत्म हो गई। गिरफ्तारी के छह घंटे के भीतर एंडरसन को बिना मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए (जो कानून के तहत जरूरी है) पूरी गोपनीयता के साथ भोपाल से ले जाया गया। उन्हें 20,000 रुपए की मामूली जमानत राशि के साथ सरकारी विमान में बिठाया गया और नई दिल्ली ले जाया गया। इस घटना के बाद मुख्यमंत्री ने कहा, “जो कुछ भी किया गया है वह कानून के दायरे में है... हमने सार्वजनिक हित में उन्हें जाने दिया। ऐसा नहीं है कि मुझे हिंसा का डर था, लेकिन ऐसा हो सकता था।” उनकी इन बातों से बहुत कम लोग ही प्रभावित हुए।
सरकार ने सबसे खराब प्रदर्शन राहत कार्य में किया। 9 दिसंबर को सरकार ने सामान्य चोटों के लिए 100 रुपए और गंभीर रूप से घायल व्यक्तियों के लिए 2,000 रुपए की तत्काल राहत की घोषणा की। इसने तुरंत राजनीतिक रंग ले लिया। हमीदिया अस्पताल में कांग्रेस (आई) के पार्षद ने डॉक्टरों से एक मरीज को दोबारा भर्ती करने पर जोर दिया, जबकि डॉक्टरों का आरोप था कि मरीज पांच दिन तक लगातार अस्पताल में भर्ती रहकर 2,000 रुपए की राहत राशि लेना चाहता था, जबकि वह छुट्टी के लिए फिट था। डॉक्टरों ने इस राजनीतिक हस्तक्षेप पर नाराजगी जताई और हड़ताल पर चले गए। पार्षद के माफी मांगने पर ही वे शांत हुए। हड़ताल के एक पोस्टर पर लिखा था, “कांग्रेस का यह बाहुबल एमआईसी से भी ज्यादा घातक है।”
राहत राशि के वितरण को लेकर अखबारों में भी काफी नाराजगी की खबर छपी। एक गैस पीड़ित महिला जिसकी आंखें बुरी तरह प्रभावित हुई थीं, वह 200 रुपए की मामूली राहत राशि वापस करना चाहती थी। आर्थिक सहायता क्रॉस्ड चेक में दी गई थी। इन चेक को भुनाने के लिए पीड़ितों को पहले अपनी पहचान करानी पड़ी और 20 रुपए जमा करके बैंक में खाता खोलना पड़ा।
लोगों ने अपना बढ़ता हुआ असंतोष कई तरीकों से जाहिर किया। गैस प्रभावित विभिन्न इलाकों में युवाओं ने मेडिकल टीमों का घेराव शुरू कर दिया। आपदा के 10 दिन से भी कम समय में गुस्साए युवा इकॉनोमिक टाइम्स के रिपोर्टर को वस्तुस्थिति दिखाने के लिए अपने घरों में ले गए। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा, “लगभग हर घर अस्पताल के वार्ड जैसा लग रहा था।” उसने आगे लिखा, “लगभग हर कोई लगातार खांस रहा था, सीने में दर्द और जलन हो रही थी। पिछले दो-तीन दिनों से इन लोगों को दवा देने या उनकी जांच करने कोई नहीं आया था। कई बीमार लोग अपने बिस्तर से उठने की स्थिति में भी नहीं थे। उनमें से अधिकांश दिहाड़ी मजदूर हैं। उन्हें खाने के लिए कुछ नहीं मिल रहा था। उनके पास अन्न खरीदने के लिए कोई संसाधन नहीं था। अगर उन्होंने अनाज खरीदा भी तो महिलाएं शारीरिक रूप से खाना पकाने की स्थिति में नहीं थीं। जैसे ही वे आग के पास बैठीं, उनकी खांसी बढ़ गई। ये लोग आमतौर पर एक ऐसे आर्थिक वर्ग से आते हैं जो कुपोषण से पीड़ित हैं। अगर उन्हें ऐसी खराब शारीरिक स्थिति में भोजन से वंचित किया जाता है, तो उनमें कोई प्रतिरोध नहीं बचेगा।”
9 दिसंबर को मुख्यमंत्री आवास के सामने प्रदर्शन भी हुआ। प्रभावित लोगों में से अधिकांश गरीब, दिहाड़ी मजदूर थे और वे एमआईसी के प्रभाव से हफ्तों बाद भी पीड़ित पाते थे। लगातार सांस लेने में तकलीफ उनकी मुख्य समस्या थी। उनके लिए मेहनत करना असंभव हो गया, उन्हें धूप में एक किमी चलने पर भी चक्कर आने लगे। काम और पैसे के बिना वे खुद को और अधिक बीमार, कमजोर और भूखे पाते थे। वे भुखमरी के कगार पर पहुंच गए थे।
इस पूरे प्रकरण ने बचे हुए लोगों, उनके स्वास्थ्य और उनकी अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया। 30 वर्षीय ठेले वाले साबिर अहमद ने कहा कि वह गैस रिसाव के लगभग तीन सप्ताह बाद काम करने निकला था। पांच सदस्यों के परिवार को अकेले पालने वाला यह शख्स बीमार होने के बावजूद जल्दी काम पर लौट आया। कुली बिलाल अहमद भी कुछ ऐसी ही स्थिति में थे। उनका 3 दिसंबर को हमीदिया अस्पताल में इलाज हुआ था, लेकिन उसके बाद कुछ नहीं हुआ। उन्हें अब भी आंखों में जलन, सीने में दर्द और घबराहट का अनुभव हो रहा था और काम करना असंभव लग रहा था। खराद मशीन ऑपरेटर 34 वर्षीय श्रवण सिंह को अपना पुराना पेशा जिससे उन्हें प्रतिदिन 25 रुपए मिलते थे, अब थका देने वाला लगने लगा। उन्हें फुटपाथ पर भुने हुए चने बेचने पड़े, जिससे चार लोगों के अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए प्रतिदिन 10 रुपए से भी कम की कमाई हो पाती थी। महिलाओं की हालत और बदतर थी। उन्हें लगातार सिर दर्द और चक्कर आने की समस्या बनी रहती थी और वे लंबे समय तक किसी भी चीज पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती थीं। आग के सामने खाना पकाने से उन्हें लकड़ी के धुएं के संपर्क में आना पड़ता था और उनकी आंखों में जलन बढ़ जाती थी, जिससे एक बार में दो से अधिक रोटियां पकाना असंभव हो जाता था। पास के कुएं या नल से पानी लाना, उन्हें पूरे दिन लिए थका देता था। कई महिलाओं ने अपने बेटों और पतियों को खो दिया था और अब उनके लिए जीवित रहना असंभव था, खासकर जब वे बीमारी में काम नहीं कर सकती थीं। यूनियन कार्बाइड के सामने जेपी नगर में रहने वाली कई महिलाएं बीड़ी मजदूर थीं। उनमें से कुछ बीड़ी मजदूरों ने पाया कि उनसे बीड़ी खरीदने वाला व्यक्ति मर चुका है और इसलिए अब बीड़ी बनाने का कोई फायदा नहीं था। भैंस जैसे जानवरों की सामूहिक मौत ने उन लोगों की कमर तोड़ दी जिनकी आजीविका पूरी तरह से इन पशुओं पर टिकी थी।
खुद को ठीक करने के उतावलेपन में लोग सरकार द्वारा स्थापित मोबाइल क्लीनिक, डिस्पेंसरी और पॉलीक्लिनिक के अलावा स्वैच्छिक एजेंसियों की ओर से स्थापित एक दर्जन अन्य डिस्पेंसरी के सामने लंबी कतारों में बैठे रहे। इन केंद्रों पर उन्हें वही उपचार, एंटीबायोटिक्स और दवाएं मिलीं, जो कुछ समय बाद फायदे की बजाय तकलीफ देने लगीं। जिन लोगों की तकलीफ बेहद बढ़ गई उन्होंने बड़े निजी अस्पतालों का रुख किया, लेकिन वहां से उन्हें चलता कर दिया गया। अन्य लोग घर के बिस्तर पर पड़े रहे। सरकार और भोपाल में चिकित्सा समुदाय ने एक पखवाड़े से भी कम समय में कह दिया कि सबसे बुरा समय बीत चुका है। उनका कहना था कि अब लोग अब मुख्य रूप से झुग्गी बस्ती में व्याप्त एनीमिया और टीबी जैसी आम बीमारियों की ही शिकायत कर रहे हैं। असहाय लोगों ने खुद को एक निर्दयी बहुराष्ट्रीय कंपनी और एक नकारा व समान रूप से निर्दयी सरकार के बीच फंसा हुआ पाया। प्रभावित बस्तियों में काम करने वाली स्वैच्छिक एजेंसियों ने अनगिनत स्वास्थ्य समस्याओं की सूचना दी। नागरिक राहत और पुनर्वास समिति के आयोजक फिल्म निर्माता तपन बोस और सुहासिनी मुले ने कहा, “हमारी महिला स्वयंसेवकों ने पाया है कि एमआईसी से पीड़ित लगभग हर महिला सांस और गैस्ट्रिक जटिलताओं के अलावा प्रजनन संबंधी गंभीर विकारों से पीड़ित है। वे पिछले छह हफ्तों के दौरान पांच मासिक धर्म स्रावों की शिकायत कर चुकी हैं। ज्यादातर महिलाओं को पेट दर्द और अत्यधिक अम्लीय योनि स्राव की शिकायत है जो जलन पैदा करता है। गर्भवती महिलाओं को तो और अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।” सरकार ने समिति के इस सुझाव पर कोई ध्यान नहीं दिया कि प्रभावित क्षेत्रों में पांच निदान और उपचार केंद्र स्थापित किए जाएं।
सरकार ने खुद भी जख्म और उभर रहे नए लक्षणों का कोई गंभीर दस्तावेजीकरण करने का प्रयास नहीं किया। एक्स-रे, रक्त, थूक या मूत्र के नमूने एकत्र करने, उनका विश्लेषण करने और लोगों को निगरानी में रखने का कोई प्रयास नहीं किया गया। इससे भी बदतर यह कि मामला पूरी तरह गोपनीय बना दिया गया। जब लोग बीमारियों की शिकायत कर रहे थे, तब भी सरकार ने सभी सूचनाओं को दबाने की कोशिश की। एक रिपोर्ट के अनुसार, भोपाल में गांधी मेडिकल कॉलेज के डीन ने जनवरी के मध्य में निजी चिकित्सकों के प्रतिनिधियों की एक बैठक बुलाई थी, जिसमें उनसे कहा गया कि वे एमआईसी विषाक्तता से संबंधित कोई भी तथ्य राज्य सरकार के अलावा किसी और से साझा न करें।
जनवरी की शुरुआत में माहौल आक्रोश से भर गया। 1 जनवरी को नागरिक राहत और पुनर्वास समिति ने शहर के मुख्य मार्ग पर चक्काजाम कार्यक्रम आयोजित किया। 3 जनवरी को वैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं द्वारा संगठित जहरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा ने धिक्कार दिवस मनाया और मुख्यमंत्री के घर के सामने धरना दिया। दिन भर का धरना 10 दिनों तक चलने वाले कार्यक्रम में बदल गया और आखिरकार रेल रोको कार्यक्रम में बदल गया। धरने में शामिल कई लोगों को स्टेशन तक पहुंचने से पहले ही पुलिस ने उठा लिया और कई दिनों तक जेल में रखा। कुछ दिनों बाद मुख्यमंत्री ने अपना बहुचर्चित धन्यवाद दिवस मनाया।
लोगों की नाराजगी का सबसे बड़ा कारण सरकार द्वारा अनुग्रह राशि के वितरण में देरी थी। सरकार ने घोषणा की थी कि प्रत्येक मृतक के उत्तराधिकारी को 10,000 रुपए, गंभीर रूप से प्रभावित लोगों को 2,000 रुपए और मामूली रूप से प्रभावित लोगों को 100 से 1,000 रुपए दिए जाएंगे। शुरुआत में सरकार ने भुगतान में जल्दबाजी दिखाई और 5,724 पीड़ितों को 36.67 लाख रुपए का नगद भुगतान किया गया। लेकिन 7 दिसंबर को सरकार ने वितरण को स्थगित कर दिया और घोषणा की कि इसे बाद में शुरू किया जाएगा और भुगतान चेक के माध्यम से होगा। यह काम प्रभावित इलाकों के घर-घर जाकर त्वरित सर्वेक्षण के बाद होगा। इस कारण जनवरी तक भुगतान रुका रहा। कोई भी सरकारी विभाग जरूरतमंदों और त्रासदी से पैसा कमाना वालों के बीच भेद नहीं करना चाहता था। अन्य कठिन प्रश्न भी थे।
जैसे, कौन प्रभावित व्यक्ति था और कौन सा क्षेत्र गंभीर रूप से प्रभावित था? जो लोग मृतक रिश्तेदारों के नाम पर राहत लेना चाहते थे, उनके लिए प्रक्रियाएं बेहद जटिल थीं। इस काम के लिए नियुक्त डिप्टी कलेक्टरों ने दस्तावेजों की मांग की। जब अस्पतालों से संपर्क किया गया, तो डॉक्टर का बर्ताव ठीक नहीं था। वे मृत्यु प्रमाण पत्र मांगने वाले हर व्यक्ति को पैसों के लालची बदमाश के रूप में देखते थे। मेहनतकश और अपने निकटतम रिश्तेदारों को खोने वाले दुखी और गुस्से में थे। इससे भी बदतर था कि उन्हें इधर-उधर भागना पड़ता था। हजारों नामों को देखने में समय लगता था और अस्पतालों में लोग बार-बार आते थे। अपने प्रियजनों को खोने वाले लोग दस्तावेज मांगने से बहुत हैरान थे। उन्हें अपने स्थानीय निगम पार्षदों के पास जाना पड़ा, जिन्हें मुआवजा दावा प्रपत्रों पर प्रतिहस्ताक्षर करने और आगे की जांच के लिए पुलिस को भेजने के लिए अधिकृत किया गया था। दूध और राशन के मुफ्त वितरण को लेकर सरकार का संचालन भी उतना ही ढुलमुल और उदासीन था।
सरकार ने दिसंबर में घोषणा की थी कि प्रतिदिन 1,000 लीटर मुफ्त दूध दिए जाने के अलावा शहर के प्रभावित क्षेत्रों के सभी परिवारों को दिसंबर के लिए उनके राशन कार्ड पर प्रति यूनिट तीन किलो गेहूं और चावल दिया जाएगा। शहर में विरोध प्रदर्शनों के बाद इसे जनवरी तक बढ़ा दिया गया। शहर के सभी झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के लिए यह प्रति यूनिट 12 किलोग्राम तक बढ़ा दिया गया, क्योंकि दिसंबर में शहर का जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया था।
लेकिन सरकार ने लॉजिस्टिक सुनिश्चित करने के लिए कुछ नहीं किया। लगभग 21,000 अस्थायी राशन कार्ड रातों-रात ऐसे निवासियों के लिए बनाने पड़े, जिनके पास कुछ नहीं था। राशन कार्ड बनाने के लिए कोई अतिरिक्त कर्मचारी नियुक्त नहीं किया गया और मौजूदा राशन की दुकानों से अतिरिक्त राशन को वितरित करने की अपेक्षा की गई। इसके परिणामस्वरूप अराजकता की स्थिति पैदा हो गई।
भोपाल त्रासदी ने यह स्पष्ट रूप से दिखा दिया है कि सरकार से ऐसी आपात स्थितियों से किसी भी तरह की दक्षता से निपटने की उम्मीद करना बेमानी है, जिसे अधिक जोखिम वाले औद्योगिकीकरण ने अनिवार्य बना दिया है।