
बानो बी, 72 साल
मेरी पैदाइश उत्तर प्रदेश के महोबा जिले की है। घर वालों ने बारह साल की उम्र में मेरा निकाह कर दिया। मेरे शौहर इनायत खान काम की तलाश में भोपाल आए। यहां रेलवे गोदाम में हम्माली करने लगे। एकाध साल बाद मैं भी उनके पीछे यहां आ गई। यहीं जेपी नगर में रहने लगे। तब यह उतना बसा नहीं था। जेपी नगर के ठीक सामने यूनियन कार्बाइड का कारखाना था। यहां की फिजा बहुत अच्छी थी, भोपाल शहर अपना सा लगने लगा। सोलह साल की उम्र में मैं पहली बार मां बनी। फिर आठ बच्चे हुए।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि वह काली रात आई। मेरे घर से पांच लाशें उठीं। शौहर नहीं रहे और चार बच्चे भी चले गए। देवर और भाई को भी खोया। उस रात हम सब खाना खाकर सो गए थे। अचानक खांसी आने लगी। हम उठे। बच्चे भी खांस रहे थे। आंखों में मिर्ची लग रही थी। फिर आंसू आना शुरू हो गए। कमरे में लाइट की रोशनी कम हो गई थी।
सबकी खांसी बढ़ती जा रही थी। हम घबरा गए कि अचानक क्या हुआ। सोचा किसी ने मिर्ची जला दी है। बाहर निकले तो सब ओर इंसान भाग रहे थे। चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं। हम घरों से निकले। नहीं पता चल रहा था कि क्या हुआ। बस हम घरों से भाग गए। हमारे पति, बच्चे सब बिछड़ गए। बाद में पता चला कि हमें जहरीली गैस लग चुकी थी। आंखें सूजी हुई थीं, चेहरा काला पड़ गया था। पेट में भी जलन हो रही थी।
मायके वालों को खबर मिली तो वे भोपाल पहुंचे। शौहर और बच्चों की खोज हुई। बहुत खोजने के बाद पति दूसरे दिन काटजू अस्पताल में मिले। उनको आवाज से हमने पहचाना। उनकी हालत खराब थी। बच्चे हमीदिया स्कूल में भर्ती थे। सभी की हालत खराब थी। वे हमें बच्चे नहीं दे रहे थे, पूछ रहे थे कि बताओ कौन से कपड़े पहने थे। एक बड़े आदमी के कहने पर बच्चे हमें मिले। पति की हालत दिन ब दिन खराब होती चली गई। एक साल बाद उनका इंतकाल हो गया। फिर एक-एक करके शमीम, सलीम और बबलू भी अल्लाह को प्यारे हो गए। गैस का दंश भुगतने के लिए मैं बची रह गई और आज भी भुगत रही हूं।
पहले मैं तकरीबन 100 किलो की थी। बीमारियों ने ऐसा पकड़ा कि जीना मुश्किल हो गया। गैस लगने के बाद ही महीनों तक बाहर बैठी रही, मेरा पीरियड खराब हो गया। हाथ पैर में दर्द रहने लगी। सिरदर्द और दुनियाभर की बीमारियां लग गईं। बस अस्पताल के चक्कर ही लगाते रहे। डॉक्टर दवाई देते हैं और हर बार नया मर्ज सामने आ आता है। फिर नई जांच होती है। इलाज के लिए संभावना एनजीओ के क्लीनिक में जाने लगे।
मुझे बीते 40 साल में हर दिन औसतन 11 गोलियां खानी पड़ी हैं। मेरे पास डॉक्टरों के ढेरों पर्चे हैं। मैं किस्म-किस्म की आठ से दस गोलियां खाती हूं। अगर 40 साल में दवाओं का हिसाब लगाया जाए तो करीब 150 किलो दवा खा चुकी हूं।
मुझे उच्च रक्तचाप, डायबिटीज टाइप 2, सिरदर्द, जोड़ों का दर्द, चक्कर आना, अनिद्रा और पाचन संबंधी समस्याएं जैसी कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अब तो डॉक्टर ने भी दवाई लिखने से मना कर दिया। लेकिन नींद नहीं आने पर गोलियां लेनी पड़ती थीं। डॉक्टर बोलने लगे हैं और गोलियां खाओगी तो पागल हो जाओगी।
मेरा लड़का है इस्माइल। उसको भी बहुत तकलीफ है। एक दिन काम करता है, चार दिन घर बैठता है। उसकी सांस फूल जाती है। उसके बच्चे की उम्र भी बारह साल हो गई है। गैस कांड का ही असर है कि वह ठीक से समझ नहीं पाता। विकलांगों के स्कूल में जाता है। इसके दिमाग का विकास ही नहीं हुआ।
हमने अपने हकों के लिए बहुत संघर्ष किया। मुआवजा मिला पर पच्चीस हजार से क्या होता है। सरकार ने पेंशन चलाई थी, पर हमें नहीं मिली। जो गैस के बाद तुरंत खत्म हुए थे, उनके ही नाम आए। हमारे शौहर एक साल बाद खत्म हुए थे, हमें केवल विधवा पेंशन मिलती है। पर यह तो सभी विधवाओं को मिलती है, हमें अलग क्या मिला। हमारी किस्मत में आई केवल जहरीली हवा और जहरीला पानी। आज भी कचरा कारखाने के अंदर दबा है। सरकार कुछ नहीं कर पाई उसका।
साफ पानी के लिए हमने खूब लड़ाई लड़ी। दो बार भोपाल से दिल्ली तक पैदल गए। पैदल चलते-चलते हमारी जांघें आपस में टकराकर छिल गईं। एक बार हमें पकड़कर तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। तेरह दिन हम अंदर रहे। मनमोहन सिंह की सरकार थी। फिर किसी ने कहा यह अपराधी थोड़े ही हैं आंदोलनकारी हैं, हमें छोड़ा गया, फिर हम बाहर आए। अब जाकर हमें नर्मदा का पानी मिलता है।
हमें तो इसी जहर के साथ जीना है, कब तक जिएंगे पता नहीं। पर हर दिन लगता है कि उस एक रात ने हमारी जिंदगी को जहर बना दिया। हम अब तक न्याय की राह देख रही हैं, न्याय केवल पैसों से नहीं मिलता, जिनकी लापरवाही से यह सब हुआ, उनको क्या सजा हुई, आप ही बताइए।
दिनेश साहू, 41 साल
पिछले बीस साल से मैं अस्पताल के चक्कर लगा-लगाकर परेशान हूं। मेरी तो पूरी जवानी ही अस्पताल में निकल गई। कभी मैं 72 किलो का जवान आदमी था। अब मेरा वजन केवल 42 किलो है। दवा और मशीनों से मेरा खून चूस लिया है।
मैं भोपाल के इतवारा का निवासी हूं। पिता हरेप्रसाद साहू, भोपाल शहर में गल्ले यानी अनाज खरीदने और बेचने का काम करते थे। माता नत्थोबाई गृहिणी थी। पांच भाई और एक बहन थी। गैस कांड वाले साल यानी 1984 के मार्च महीने में ही मेरा का जन्म हुआ। गैस कांड के वक्त मैं केवल छह महीने का था। जैसे-जैसे गैस कांड की उम्र बढ़ती चली गई, मेरी मुश्किलें भी बढ़ती गईं। कोई एक दिन की घटना कैसे किसी आदमी की जिंदगी को प्रभावित कर सकती है, यह मेरी जिंदगी में झांककर समझ सकते हैं।
पुराने भोपाल के लक्ष्मी टॉकीज पर मेरी रेडीमेड कपड़े की दुकान है। मुझे 3 दिसम्बर 1984 की वह भयानक रात याद तो नहीं, लेकिन मेरी मां अक्सर उस काली रात के किस्से सुनाया करती थी। इतवारा पर हम रहते थे। रात में बस आंखों में जलन हुई और सब कुछ तितर-बितर हो गया। गैस कांड का असर मेरे पूरे परिवार पर पड़ा।
जिंदगी गुजर ही रही थी कि 2005 मेरे लिए बड़ी मुसीबत बनकर आया। जिस उम्र में कोई व्यक्ति अपने पूरे जीवन को मजबूत करने की बुनियाद गढ़ता है, उसी वक्त मुझे पता चला कि मेरी किडनी ही खराब है। मुझे भूख लगना बंद हो गई। कई जगह दिखाया। पहले तो इसकी असली वजह ही पता नहीं चल रही थी। भोपाल के प्रसिद्ध डॉक्टर एनपी मिश्रा ने कहा कि किडनी खराब है। इसके बाद डायलिसिस शुरू हुआ। अस्पताल के चक्कर पर चक्कर काटे। प्राइवेट अस्पतालों में पैसा पानी की तरह बह रहा था। एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिए यह कमर तोड़ देने वाला था।
मैंने और परिवारवालों ने सोचा कि किडनी ट्रांसप्लांट करवा लेनी चाहिए। यह थोड़ा मुश्किल था। उस वक्त भोपाल में यह सुविधा उपलब्ध भी नहीं थी। फिर इंदौर में पता किया। 2007 में किडनी बदल दी गई। 14-15 लाख रुपए खर्च हुए।
मैं यह समझ नहीं पाता कि हमारे घर में न कोई धूम्रपान करता है न कोई नशा, फिर आखिर यह मुसीबत मेरी सिर आकर कैसे पड़ी। यह भोपाल गैस कांड का असर था या कुछ और। हालांकि मेरे माता-पिता को गैस कांड संबंधी कोई गंभीर बीमारियां नहीं हुईं, पर मैं जब अपने आस-पड़ोस में देखता हूं तो ऐसे कई लोगों को पाता हूं जिन्हें मेरे जैसी ही परेशानियां हैं।
इन्हीं परेशानियों के चलते मैंने अपना घर भी नहीं बसाया। सोचा मेरी अपनी जिंदगी का तो पता नहीं, किसी और की जिंदगी के लिए क्यों मुसीबत बनूं। अकेले ही जिंदगी गुजार रहा हूं। कोविड के बाद एक बार फिर जिंदगी ने टर्न लिया। पता चला कि किडनी ने सपोर्ट करना बंद कर दिया है।
बस तभी से सप्ताह में दो बार डायलिसिस और दवाई शुरू हो गई। मेरे हाथ में कितनी जगह छेद होंगे, आप गिन भी नहीं पाएंगे। यह कोहनी के पास जो गठाने हैं, वह भी इसी प्रक्रिया का फल है। एक बार डायलिसिस होता है तो 100 ग्राम खून तो ऐसे ही चला जाता है, खून धीमे बनता है शरीर में। इसलिए बस शरीर सूख गया है।
वो तो शुक्र है कि भोपाल मेमोरियल में डायलिसिस हो जाता है। खर्चा बच जाता है। फिर भी महीने की पांच हजार की दवाएं तो आती ही हैं। एक दिन में 14 से 15 टेबलेट खाता हूं। मेरा शरीर टेबलेट्स की कृपा से ही बचा है। डॉक्टर दवाओं से ही शरीर को संतुलित रखे हैं। यदि आप मेरी अब तक खाई गई दवाओं को तराजू पर एक साथ रख देंगे तो तीस किलो से कम वजन नहीं आएगा।
एक बार फिर कोशिश है कि किडनी का एक बार और ट्रांसप्लांट हो जाए। एक डोनर भी तैयार है। पर इसकी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसकी परमिशन लेने में ही लंबा वक्त लग जा रहा है। केवल मैं ही परेशान नहीं हूं, मेरे परिचय में ऐसे और भी लोग हैं जिनके पास डोनर भी हैं, लेकिन वह करवा इसलिए नहीं पा रहे क्योंकि इसकी परमिशन नहीं मिल पा रही है। मरीज वैसे ही परेशान है, यह परमिशन के चक्कर मरीज को और मानसिक मुसीबत में डालते हैं। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
हालांकि फिर से किडनी लगाने में बहुत खर्च आएगा जो मेरे लिए मुश्किल है, पर करेंगे। सरकार ने एक बार डेढ़ लाख का मुआवजा दिया था। इतने बड़े दर्द के लिए यह क्या होता है? सरकार को चाहिए कि वह गरीब की आगे बढ़कर मदद करे। यह देखे कि गैस कांड का असर कहां-कहां और कैसे हो रहा है। पर गैस कांड अब एक दिन की बरसी बनकर रह गया है। बस यह दौड़ रहा है तो लोगों के शरीर में। मैं इसका जीता-जागता उदाहरण हूं।
अबु हसन, 8 साल
मेरा नाम सूफिया है। चिंगारी सेंटर मैं पिछले छह महीने से हर रोज इसी उम्मीद से आती हूं कि मेरा बच्चा ठीक हो जाए। दुनियाभर का इलाज करवा लिया। आठ दस लाख रुपए खर्च हो गए। पर फायदा तो दिखता नहीं। बस यही सोचती हूं कि अल्लाह ने खिदमत करने का मौका दिया है। एक दिन मेरा बच्चा ठीक हो जाएगा।
मेरा जन्म इतवारा में हुआ था। अब्बा मेहनत मजदूरी करते थे। हमें गैस कांड तो याद नहीं है। पर अम्मी अक्सर उस रात के किस्से सुनाया करती थी। उस रात सभी लोगों की खांसते-खांसते हालत खराब हो गई थी। आंखों में मिर्ची लग रही थी। मेरी बहन की आंखें तो सूजकर बहुत बड़ी हो गई थीं। बस इसके बाद परेशानियां ही परेशानियां। घर में मम्मी-पापा को सांस की शिकायत थी। बहुत इलाज करवाया। खुदा का शुक्र है कि मैं उन परेशानियों से बची रही।
रायसेन जिले के ओबेदुल्लागंज में मेरी शादी हो गई। मेरे पति का नाम जनाब मुशर्रफ रहमान है। वो ट्रक ड्राइवर हैं। आठ साल पहले मेरे घर बेटे का जन्म हुआ। हम बहुत खुश थे। हमने उनका नाम अबु हसन रखा। बहुत एहतियात से उनकी परवरिश कर रहे थे। पहले साल भर में हमें कुछ अंदाजा ही नहीं था कि अबु के साथ कुछ गड़बड़ है। वह मोटे और लंबे थे। पर जैसे-जैसे वह बढ़े हो रहे थे वैसे-वैसे पता चल रहा था कि वह दूसरे सामान्य बच्चों से अलग हैं। डेढ़ साल का होते-होते हमको पता चला कि वह ठीक नहीं हैं।
उनका सब काम लेट हो रहा है। वह देर से सीख रहे हैं। बोल नहीं पा रहे हैं। और सबसे बड़ी बात तो वह गुस्सा बहुत हो रहे हैं। उसको भोपाल के सभी नामी-गिरामी अस्पतालों में दिखा दिया। हौम्योपैथी, आयुर्वेद, अंग्रेजी हर तरह का इलाज करवा लिया। पिछले सात सालों से हम बस उसके लिए अस्पतालों के चक्कर ही लगा रहे हैं।
बचपन से ही अबु हसन दवाएं खाते हैं। यदि देखा जाए तो उसने आठ साल की उम्र में चार गोली रोज खाई होगी। यदि एक ग्राम की एक गोली भी मान ली जाए तो अपनी इस छोटी सी उम्र में वह 10 किलो टेबलेट खा गए होंगे। इस दौरान हमारा आठ दस लाख रुपए उनके इलाज पर खर्च हो गया होगा। छह महीने पहले हम उनके इलाज के लिए भोपाल आए। यहीं पर किराये से घर लिया है। पिता और दो छोटी बच्चियों मारिया और हानिया के साथ इतवारा में रहते हैं। यहीं चिंगारी पर अबु की फिजियोथैरेपी होती है। रोज बस इस उम्मीद से आते हैं कि एक दिन वह सही हो जाएं।
आप सोचेंगे कि यह गैस कांड का असर है या कोई और। उनकी तो पैदाइश भी यहां की नहीं है। हम भी ऐसा सोचते थे, लेकिन इस सेंटर पर आप दूसरे बच्चों को देखिए आखिर इस इलाके में ही ऐसे बच्चे और इतने ज्यादा क्यों हैं। अबु हसन की नानी को गैस लगी थी। हमें तो गैस लगी भी नहीं। पर अब यह तो बड़े डॉक्टर लोग ही बता सकते हैं कि गैस का असर आखिर इन बच्चों पर कैसे हो रहा है? हम तो इस सेंटर में रोज आते हैं और यहां आकर हमारा मन खराब हो जाता है कि इन बच्चों को यह सजा क्यों मिल रही है।