अनिल अग्रवाल डायलॉग 2024: वक्ताओं ने कहा, हमारे कपड़ों में प्लास्टिक कचरा एक नई व बड़ी चुनौती बना

साल 2015 में पॉलिएस्टर कपड़ों के लिए लगभग 70,600 करोड़ किलोग्राम ग्रीनहाउस गैसें निकली, जो 185 कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के वार्षिक उत्सर्जन के बराबर है
अनिल अग्रवाल डायलॉग के दूसरे दिन प्लास्टिक कचरे पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई। फोटो: विकास चौधरी
अनिल अग्रवाल डायलॉग के दूसरे दिन प्लास्टिक कचरे पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई। फोटो: विकास चौधरी
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आज 60 प्रतिशत से अधिक नए कपड़े प्लास्टिक से बने होते हैं। आखिरकार यह 'नया' प्लास्टिक कचरे कहां पहुंच रहा है? यह प्लास्टिक कचरा हमारे शहरों में ठोस कचरा प्रबंधन के लिए एक और बड़ी व नई चुनौती बन गया है। क्योंकि हमारे शहरों के कचरा भराव क्षेत्र (लैंडफिल) में टेक्सटाइल वेस्ट तीसरा बड़ा स्रोत बन गया है।

यहां अनिल अग्रवाल एनवायरमेंट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में चल रहे अनिल अग्रवाल डायलॉग में चर्चा के विषयों में टेक्सटाइल वेस्ट भी शामिल था। अनिल अग्रवाल डायलॉग सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) का सालाना कार्यक्रम है, जिसमें देशभर से 100 से अधिक ऐसे पत्रकार, जो पर्यावरण व विकास के मुद्दों पर रिपोर्टिंग करते हैं, शामिल होते हैं।
इसी कार्यक्रम में स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट 2024 रिपोर्ट भी जारी की गई।

सीएसई के सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट एंड सर्कुलर इकोनॉमी यूनिट के कार्यक्रम निदेशक अतिन बिस्वास ने कहा- “प्लास्टिक की लोकप्रियता का शायद सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि सिंथेटिक फाइबर जैसे पॉलिएस्टर, ऐक्रेलिक, नायलॉन आदि से बने कपड़े, प्राकृतिक कपड़ों की तुलना में काफी सस्ते होते हैं। हालांकि पहली नजर में प्लास्टिक से बने कपड़े हानिरहित दिखाई देते हैं, लेकिन कपड़ा उद्योग में उनकी घुसपैठ चिंता का कारण है। इन सिंथेटिक कपड़ों का उत्पादन, उपयोग और निपटान तीनों ही पर्यावरण पर नकारात्मक असर डाल रहे हैं।

उन्होंने बताया कि प्लास्टिक फाइबर में हाई कार्बन फुटप्रिंट होते हैं, क्योंकि उनके लिए जीवाश्म ईंधन का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। कुल वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में से 10 प्रतिशत के लिए टेक्सटाइल इंडस्ट्री जिम्मेदार है। जो अंतरराष्ट्रीय उड़ानों और शिपिंग के मुकाबले अधिक है। यदि वर्तमान गति से टेक्सटाइल उद्योग ने कार्बन उत्सर्जन जारी रखा तो साल 2030 तक यह 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ जाएगा। वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट का कहना है कि साल 2015 में पॉलिएस्टर कपड़ों के लिए लगभग 70,600 करोड़ किलोग्राम ग्रीनहाउस गैसें निकली, जो 185 कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के वार्षिक उत्सर्जन के बराबर है।

विश्व बैंक के अनुसार, हर साल लगभग 30 लाख टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है, जिसमें प्लास्टिक से बनने वाले कपड़ों की हिस्सेदारी पांचवी है। आज, दुनिया के सभी फाइबर उत्पादन में सिंथेटिक फाइबर की हिस्सेदारी 69 प्रतिशत है। 1980 के मुकाबले 2014 में प्लास्टिक फाइबर का उत्पादन लगभग 900 प्रतिशत बढ़ गया।

बताया गया कि प्लास्टिक फाइबर अकेले ही "फास्ट फैशन" को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार हैं। यह एक ऐसा चलन है, जिसमें उपभोक्ता तेजी से कपड़े खरीदते हैं और फेंक देते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि एक ऐसा बिजनेस मॉडल होना चाहिए, जिसममें हाई-एंड ब्रांड कंपनियों को बनाने, रखने और निपटान (डस्पोज) की जिम्मेवारी लेनी चाहिए। इसकी जिम्मेवारी उपभोक्ता पर नहीं थोपी जानी चाहिए।
सीएसई में इसी टीम के प्रोग्राम मैनेजर सिद्धार्थ जी सिंह ने कहा कि प्लास्टिक कचरे को रोकने और प्रबंधित करने में प्लास्टिक फाइबर एक बड़ी नई चुनौती बनकर उभरा है। चूंकि ये कपड़े तेल-आधारित प्लास्टिक से बने होते हैं, इसलिए ये प्राकृतिक रेशों की तरह बायोडिग्रेड नहीं होते हैं और कई दशकों तक पर्यावरण में व हमारे लैंडफिल में रह सकते हैं।

सिंथेटिक कपड़े हर बार धोने और घिसने पर प्लास्टिक के छोटे-छोटे टुकड़े भी छोड़ते हैं। ये सूक्ष्म प्लास्टिक महासागरों, मीठे पानी और जमीन को गंभीर रूप से प्रदूषित करते हैं और इनका उपभोग करने वाले जानवरों के लिए खतरा पैदा करते हैं, जिससे उनका विकास व प्रजनन बाधित होता है। हाल के शोध से पता चला है कि यह मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है, हालांकि यह अभी तक स्थापित नहीं हुआ है।

सिंह ने कहा, “उद्योग विशेषज्ञों का मानना है कि पॉलिएस्टर की जरूरत है, क्योंकि प्राकृतिक कपड़े बढ़ती मांग को पूरा नहीं कर सकते हैं। हालांकि, वे यह भी कहते हैं कि मौजूदा मॉडल टिकाऊ नहीं है। भारत को पॉलिएस्टर कपड़े से होने वाले कचरे को प्लास्टिक के रूप में पहचानने की आवश्यकता है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि देश में वर्तमान में प्लास्टिक कचरे को संभालने के लिए मजबूत कानून है, लेकिन कपड़े से निकलने वाले कचरे पर कोई नियम कानून नहीं है। यह मोटे तौर पर नगर निगम ठोस अपशिष्ट नियम, 2016 के अंतर्गत आता है।

उन्होंने कहा कि पहला कदम फैशन उद्योग को जवाबदेह बनाना है। समस्या का समाधान करने का एक तरीका पॉलिएस्टर के लिए विस्तारित उत्पादकों की जिम्मेदारी (ईपीआर) शुरू करना है ताकि जिम्मेदार ब्रांड मालिकों पर जिम्मेदारी डाली जा सके।

सिंह के मुताबिक भारत में, प्लास्टिक, टायर, बैटरी और ई-कचरा क्षेत्रों के लिए ईपीआर मौजूद हैं, जहां उद्योग के पास कचरे को इकट्ठा करने और रीसाइक्लिंग का लक्ष्य है। इससे स्वच्छ उत्पादन के अलावा, यह लैंडफिल तक पहुंचने से पहले कपड़ा कचरे के इकट्ठा करने में भी सुधार करेगा

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