वायु प्रदूषण : न भागने की जगह है, न छिपने का ठौर

दिल्ली में 50 हजार औद्योगिक ईकाइयां और सैकड़ों निजी डीजल बसों ने अपना कारोबार फैला लिया लेकिन कार्रवाई कुछ न हुई। वायु प्रदूषण के प्रमुख कारक यूं ही छूटे रहे।
Photo : मयूर विहार एक्सटेंशन पर निजी बस अड्डा
Photo : मयूर विहार एक्सटेंशन पर निजी बस अड्डा
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उत्सव के संग अक्तूबर से नवंबर की ओर बढ़ना उमंग भरा होता था, अब स्थिति कष्टदायी हो चली है। हर वर्ष दिल्ली-एनसीआर में इन्हीं दो महीनों के दर्मियान वायु प्रदूषण आपात स्तर की रेखा को पार कर जाता है। अब तक इसकी रोकथाम के लिए तमाम प्रतिबंधों के साथ भारी वाहनों को प्रवेश द्वार पर ही रोकना पड़ता था। फिलहाल हालात बड़े सम और विषम है। अब लोगों को ही गैस चैंबर के बाहर रुकने की सलाह दी जा रही है। हाल ही में एम्स के चिकित्सकों ने छठ पूजा में घर गए लोगों को तत्काल न लौटने की सलाह दी थी। इस बीच न जाने कितनी सरकारी एजेंसियां वायु प्रदूषण के अपराधी की खोज-बीन में भी लगी हैं। लेकिन सच यह है कि अभी तक उसकी ठीक से शिनाख्त भी नहीं हो पाई है। ऐसा तब होता है जब अपराधी मन में छुपा हो और टॉर्च लेकर उसे बाहर ढ़ूंढने का दिखावा किया जाए। इसीलिए वायु प्रदूषण के कारकों में नीति-अनीति पर विचार नहीं है। खराब हवा की तरह कुछ कुविचार जरूर हमारे इर्द-गिर्द चैंबर बनाए हुए हैं।

वायु प्रदूषण के तमाम कारकों में हम सिर्फ किसानों पर बहस कर रहे हैं लेकिन डीजल बसों और अन्य कारकों से होने वाले वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए कार्रवाई की वकालत बहुत कम है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दिल्ली से दूर पंजाब और हरियाणा की पराली आग में घी का काम करती है। लेकिन पहले घर की आग बुझाने का इंतजाम तो किया जाए। आगे सचित्र समझने की कोशिश भी करेंगे। पहले डीजल बस कथा जरूरी है।

दिल्ली में आनंद विहार बस अड्डे की तरह मयूर विहार एक्सटेंशन में भी एक नया अवैध निजी बस अड्डा बन चुका है। इस दिवाली में बड़ी मुस्तैदी थी कि वाहनों का प्रदूषण भी नियंत्रित किया जाए लेकिन सैकड़ों डीजल बसें मनचाही कीमतों पर सवारियों को चारों दिशाओं में लेकर निकल गईं। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ दीवाली के समय था। अब भी बसों का रेला मयूर विहार एक्सटेंशन में क्राउन होटल के पास लगा रहता है। कोई भी आसानी से इन डीजल वाली स्लीपर बसों का सुबह और शाम दर्शन कर सकता है। पुलिस वाले तो रोजाना दर्शन करने पहुंचते हैं। कुछ पूछने पर बसों की वकालत भी करते हैं। भले ही आजकल वकीलों से उनकी मुखालफत हो। स्थानीय प्रदूषण स्रोतों में शामिल इन डीजल बसों को नियंत्रित करने के उपाय और कार्रवाई का एक ठोस कदम नहीं उठाया गया। स्मॉग के कारण आंखों के आगे हो रहे सारे पाप छुप गए।

दिल्ली में आपात स्तर के वायु प्रदूषण पर रोकथाम के लिए 4 नवंबर, 2019 से लागू सम-विषम की यह तीसरी परीक्षा है। आपात कदमों का जल्दी-जल्दी और ढ़ीला इस्तेमाल उसके असर को हल्का बना देता है। साथ ही वांछित परिणाम भी नहीं मिलते। सम-विषम में तमाम तरह की छूट है। दो-पहिया वाहनों को भी बाहर रखा गया है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट (सीएसई) के मुताबिक दिल्ली में 2018 तक दोपहिया वाहनों की हिस्सेदारी 56 फीसदी (63.8 लाख) है। वहीं, 14 फीसदी डीजल और 8 फीसदी पेट्रोल कार हैं। आईआईटी कानपुर, 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में दोपहिया वाहन ही ट्रकों के बाद प्रदूषण उत्सर्जन में सबसे ज्यादा भागीदारी करते हैं। सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा दिए जाने की सलाह भी दिल्ली में बेईमानी साबित हुई है। तमाम आदेशों के बाद मनचाही रूट पर निर्बाध चलने वाली बसें आपको राष्ट्रीय राजधानी में नहीं मिलेंगी। 

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 2017 में वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए सुबह ऑफिस आने-जाने वालों के लिए डेस्टिनेशन बसों को चलाने का आदेश दिया था। साथ ही दिल्ली सरकार से इसके जोर-शोर से प्रचार-प्रसार करने को भी कहा था। दिखावे का विज्ञापन निकला, लेकिन बस कभी भी रूट से नहीं निकली। 1 मई 2017 से लागू होने वाली यह विफल योजना दो वर्ष मना चुकी है। दिल्ली में 10 हजार नई बसें भी वादा बनकर रह गईं। 2016 से करीब तीन स्मॉग चैप्टर बीत चुके हैं और सार्वजनिक परिवहन वाली नई बसें सड़कों पर नहीं हैं। मेट्रो का महंगा सफर भी बीते वर्ष मुद्दा बना था लेकिन अब लोग ढ़ल गए हैं। सार्वजनिक परिवहन में कोई सुधार नहीं हुआ और हम बेहतर हवा की उम्मीद बांधे हुए हैं। दिल में ईएमआई पर चार पहिया और दो पहिया लेने का ख्याल है लेकिन सार्वजनिक परिवहन की सुध नहीं। 

पृथ्वी मंत्रालय के अधीन सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च (सफर) की 2018 रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण परिवहन है। दिल्ली में परिवहन के कारण होने वाला प्रदूषण 41 फीसदी है। इसके बाद दूसरे नंबर पर वायु प्रदूषण का दूसरा सबसे बड़ा कारण उद्योग हैं। इन उद्योगों के कारण होने वाला प्रदूषण करीब 18.6 फीसदी है। फिर तीसरा नंबर ऊर्जा का है। ऊर्जा क्षेत्र से 4.9 फीसदी प्रदूषण होता है। वहीं, आवासीय यानी झुग्गी-बस्तियों, फसल अवशेषों, गोबर के ऊपलों, डीजल जनरेटर, लकड़ी आदि जलाने की वजह से करीब 3 फीसदी प्रदूषण होता है। हां यह ध्यान रखने लायक है कि दिल्ली के बाहरी इलाकों से इस श्रेणी में करीब 18.5 फीसदी प्रदूषण होता है। हवा से आने वाली धूल के कारण दिल्ली में 21 फीसदी प्रदूषण होता है। वहीं अन्य कारकों से 11 फीसदी प्रदूषण होता है। यह साल भर होने वाले दिल्ली के प्रदूषण की औसत साझेदारी है।  

दिल्ली के रिहायश में 51 हजार से अधिक अवैध औद्योगिक ईकाइयों का मामला भी अभी तक नहीं सुलझ पाया है। एनजीटी ने 2018 में इस मामले पर कार्रवाई के लिए दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति, दिल्ली के नगर निगम और उद्योग विभाग को आदेश दिया था। आदेश की प्रति आने के बाद लंबी डेट थी तो साल भर निकल गया कोई काम नहीं किया गया। 18 जुलाई 2019 को जब तारीख आई तो आनन-फानन जवाब तैयार हुए और एनजीटी ने लापरवाही के लिए दिल्ली सरकार पर 50 करोड़ रुपये का जुर्माना लगा दिया। अब इस मामले पर 19 नवंबर को सुनवाई होगी तभी पता चलेगा कि यह जुर्माना भी वसूला गया या नहीं। परिवहन के बाद उद्योगों के प्रदूषण पर नियंत्रण की कहानी भी अधूरी रह गई।

अब बात पराली की है। शरद ऋतु में दिल्ली-एनसीआर के आस-पास राज्यों में पराली का जलाना और दीपावली के आस-पास आतिशबाजी का प्रदर्शन वायु प्रदूषण के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। प्रदूषण के 24 घंटे के औसत स्तर तुरंत आपात स्तर की तरफ दौड़ लगा देते हैं। प्रदूषण के विभिन्न स्तर जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते हैं गले की फांस कसती जाती है। कुछ की मृत्यु भी हो जाती है। किसान आर्थिक और मशीनी सहायता न मिलने की दुहाई देते रहे। उनकी सुनने कोई न गया। स्मॉग सीजन आते ही आखिरकार मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और पराली न जलाने के एवज में 100 रुपये प्रति कुंतल सहायता की बात तय की गई है। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि दिल्ली-एनसीआर ही नहीं बल्कि उत्तर-भारत में इस वक्त स्मॉग जैसी स्थिति बनने लगी है। तेजी से खेती से विमुख होते किसान पीढ़ियों की चिंताएं कम नहीं हैं। गलत नीतियों से किसानों को एक दुष्चक्र में ढ़केला जा रहा है। जो पराली और उससे उपजी समस्या की ही एक कड़ी है। 

फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) के आंकड़ों के मुताबिक भारत में चावल का भंडार 127 लाख टन होना चाहिए। हालांकि, 1 अक्तूबर, 2019 तक भारत के पास 289 लाख टन चावल भंडार हैं। यह तय लक्ष्य से दोगुना से भी ज्यादा है। जबकि 2016 में भारत का चावल भंडार 144 लाख टन था। इस भंडार से ही पीडीएस का बंटवारा किया जाता है। सरकार ने देशभर में अनाज का जन वितरण (पीडीएएस) करने के लिए पैदावार का जिम्मा कुछ राज्यों पर ही छोड़ रखा है। पीडीएस के लिए गोदामों को भरने की आधी खरीदारी अकेले पंजाब और हरियाणा से की जा रही है। शेष खरीदारी आंध्र, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ से की जाती है। ऐसे में इन्हीं पांच राज्यों को हर वर्ष करीब 80 हजार करोड़ रुपए की खाद्य सब्सिडी और करीब 3 हजार करोड़ रुपए उर्वरक की सब्सिडी दी जा रही है। यह दुष्चक्र वायु ही नहीं जल और मिट्टी का भी दुश्मन बन चुका है। आज यह राज्य सिर्फ धान और गेहूं उगाने पर विवश हो गए हैं। मुफ्त बिजली और भू-जल निकालने की सुविधा ने इन राज्यों के किसानों को ज्यादा पैदावार के लिए उकसाया भी है।

यही कारण है कि ज्यादा पैदावार से होने वाले नुकसान की कीमत भी सबसे पहले किसान ही उठाता है। और पराली जलाने पर सबसे पहले प्रदूषित हवा के कारण किसान और उसका परिवार ही प्रभावित होता है। उत्तर-पश्चिम से हवा चलकर दिल्ली-एनसीआर की हवा को और भी ज्यादा प्रदूषित करती है। यह तब और तेज होता है जब दिल्ली-एनसीआर में हवा की गति मंद पड़ जाती है और वायुमंडल की मिश्रित परत अपने सामान्य ऊंचाई 800 मीटर से जमीन की तरफ नीचे जा जाती है। फिर पंजाब-हरियाणा की तरफ से आने वाले प्रदूषित हवाएं इसी मौसम के जाल में फंस जाती हैं और पराली (बायोमास) से जो धुआं उठता है उसमें खतरनाक व महीन पार्टिकुलेट मैटर 2.5 होते हैं जो हवा में कैद हो जाते हैं। इसे हम गैस चैंबर कहते हैं। 

एक अक्तूबर से 5 नवंबर तक खास-खास तारीख पर पराली जलाए जाने और दिल्ली-एनसीआर की हवा में 2.5 के घटने-बढ़ने की स्थिति को सचित्र समझते हैं।

ऊपर एक अक्तूबर को अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की सेटेलाइट तस्वीर देखिए। पंजाब से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक आग जलने का कोई निशान नहीं हैं। इसमें दाएं तरफ दिल्ली-एनसीआर के पीएम 2.5 की स्थिति है। यह 24 घंटे के औसत सामान्य मानक 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से भी आधा 30 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर यानी अति सामान्य है।

09 अक्तूबर, 2019 को नासा की सेटेलाइट इमेज में पंजाब के अमृतसर, पटियाला और हरियाणा के पानीपत, जींद, सिरसा, यूपी में रामपुर मुरादाबाद की तरफ पराली जलने के निशान दिखाई देते हैं। वहीं, सीपीसीबी के मुताबिक दिल्ली-एनसीआर में 24 घंटे निगरानी वाला पीएम 2.5 अपने सामान्य मानक 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर को पार कर जाता है। स्पष्ट संकेत है कि पराली जलाने से दिल्ली-एनसीआर में पीएम 2.5 की बढ़ोत्तरी।

20 अक्तूबर, 2019 को पराली जलाने के क्षेत्र आकार में बढ़ोत्तरी हुई। खासतौर से पटियाला के बाद हरियाणा की तरफ ज्यादा आग है। फरीदाबाद, पानीपत, जींद, सिरसा व यूपी में मेरठ और आस-पास आग की घटनाएं स्पष्ट हैं। इसका असर दिल्ली-एनसीआर के पीएम 2.5 पर भी दिख रहा। 9 अक्तूबर को सामान्य मानक को पार कर चुके पीएम 2.5 ने 20 अक्तूबर को 111.2 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर का स्तर हासिल कर लिया।

27 अक्तूबर, 2019 यानी दिवाली के दिन पंजाब, हरियाणा, यूपी के कई स्थानों पर खेतों में आग लगाई गई। रात 11 बजे तक दिल्ली-एनसीआर की हवा में पीएम 2.5 का स्तर बढ़कर 191.7 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रिकॉर्ड किया गया। सामान्य मानक 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से तीन गुना ज्यादा।

दिवाली के बाद भी लगातार पराली का जलाना जारी रहा। यूपी और हरियाणा के खेतों में आग कम लगी लेकिन पंजाब के खेतों में आग जबरदस्त लगी रही। इधर दिल्ली-एनसीआर की हवा में 30 अक्तूबर की रात को पीएम 2.5 ने सामान्य मानक से चार गुना ज्यादा की बढ़त हासिल कर ली और 31 अक्तूबर लगते ही इस सीजन में पहली बार पीएम 2.5 ने आपात स्तर की रेखा को पार कर लिया।

02 नवंबर को पंजाब से लेकर यूपी तक खेतों में आग शांत रही। इसका असर दिल्ली-एनसीआर की हवा पर भी दिखाई दिया। हवा में पीएम 2.5 आपात स्तर से लुढ़ककर 256.3 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर पर पहुंच गई। यह खुशी क्षणभंगुर थी।

03 नवंबर, 2019 को दिल्ली-एनसीआर ने वह मंजर देख और महसूस कर लिया जिसमें दम घुटने की नौबत आ गई। हरियाणा की अपेक्षा पंजाब में जबरदस्त पराली जली और नतीजा दिल्ली-एनसीआर की हवा पर स्पष्ट तौर पर दिखा। दिल्ली-एनसीआर की हवा में पीएम 2.5 अपने औसत सामान्य मानक 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से 9 गुना ज्यादा 555.8 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर पर पहुंच गया। इस दिन दिल्ली-एनसीआर में मौसम ने भी साथ नहीं दिया। हवा की गति बेहद मंद थी और मिक्सिंग हाईट भी सतह के करीब पहुंच गई थी। इसलिए चरम प्रदूषण रहा।

04 और 05 नवंबर को भी पंजाब, यूपी में पराली जलाई गई लेकिन दिल्ली-एनसीआर की हवा में पीएम 2.5 की स्थिति में सुधार हुआ है। तेज हवा और मौसम साफ होने के कारण प्रदूषण कैद नहीं हो सका। लिहाजा पीएम 2.5 का स्तर 4 नवंबर की शाम 5 बजे के बाद आपात स्तर के नीचे आ गया। और 6 नवंबर की शाम को लुढ़ककर 111 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के पास आ गया है। आगे पराली जलाए जाने की घटना में कमी हो सकती है ऐसे में हवा में पराली के प्रदूषण का असर भी कम हो सकता है।

06 नवंबर को केंद्र सरकार की ओर से भी 1 अक्तूबर से लेकर 5 नवंबर तक की हरियाणा, पंजाब और यूपी में पराली जलाए जाने की घटना का बुलेटिन जारी किया गया। इसके मुताबिक तीनों राज्यों में 1 अक्तूबर से 5 नवंबर तक कुल खेतों में 42437 आग लगाने की घटनाएं रिकॉर्ड की गई। इनमें अकेले पंजाब में 35566 घटनाएं रहीं। जबकि हरियाणा में इस अवधि में 5050 और यूपी में 1821 घटनाएं रिकॉर्ड हुईं।  सबसे ज्यादा पंजाब में ही फसल अवशेष जलाया गया। इनमें संगरूर (4461), फिरोजपुर (3748), बठिंडा (3065), पटियाला (3134), तरन तारण (2953) प्रमुख पराली जलाने वाले जिले रहे। जबकि हरियाणा में सबसे प्रमुख जिला कैथल (1099), करनाल (942), कुरुक्षेत्र (725) और फतेहाबाद (825) रहा। इस बार यूपी में सबसे कम पराली जलाई गई। यूपी में सर्वाधिक पराली मथुरा (396) में जलाई गई। यूपी में धान की फसल के बजाए किसानों ने गन्ने की तरफ रुख किया है। वहीं देर से हुई बुआई के कारण संभावना है कि अगले दो से चार दिन फसल अवशेष और जलाए जाएं। केंद्र सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब और हरियाणा व यूपी में पराली जलाने की घटनाओं में कमी आई है। सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में 48.2 फीसदी गिरावट है। वहीं, हरियाणा में 11.7 फीसदी और सबसे कम पंजाब में महज 8.7 फीसदी गिरावट है।

आईआईटी कानपुर की 2016 में जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि धान की फसल कटाई के बाद किसान गेहूं की बुआई के तैयारी करने लगते हैं।  इसमें 15 से 20 दिन का बेहद कम वक्त होता है। इसी दौरान किसान जल्द और बिना पैसों के खेतों की सफाई के लिए पुआल में आग लगा देते हैं। कृषि मंत्रालय की 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक देश में कुल 50.17 करोड़ टन फसल अवशेष पैदा होता है। सरप्लस फसल अवशेष 14.08 करोड़ टन है। साथ ही प्रतिवर्ष 9 करोड़ 28 लाख टन फसल अवशेष जला दिया जाता है। उत्तर प्रदेश और पंजाब उसके बाद हरियाणा न सिर्फ देश में सबसे बड़े फसल अवशेष उत्पादक राज्य हैं बल्कि भंडारण और उसे जलाने के मामले में भी सबसे आगे है। यूपी में प्रतिवर्ष 2 करोड़ 19 लाख टन, पंजाब में प्रतिवर्ष 1 करोड़ 96 लाख टन व हरियाणा में 90 लाख टन फसल अवशेष जला दिया जाता है। आंकड़ों से पता चलता है कि अभी यूपी और हरियाणा में फसल अवशेष में कुछ कमी आई है लेकिन पंजाब में पराली जलाने की गतिविधि अब भी जारी है। अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अगले वर्ष के लिए तैयारी न हुई तो हम फिर से स्मॉग का नया अध्याय पढ़ रहे होंगे और तब हमारे पास न भागने की जगह होगी और न छिपने का ठौर।

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