दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण के खास तत्व पार्टिकुलेट मैटर की स्थित आपात स्तरों की ओर बढ़ रही है। कोविड-19 के दौर में यह और भी घातक हो सकता है। बहरहाल दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए नए बहुसदस्यीय आयोग के गठन का अध्यादेश ऐसा कोई रास्ता नहीं सुझाता है जिससे भविष्य में भी इस समस्या का स्पष्ट समाधान मिले। अध्यादेश सिर्फ और सिर्फ आयोग गठन और उसके सदस्यों की भर्ती प्रक्रिया पर ज्यादा बातचीत करता है। विधि के जानकारों और वायु प्रदूषण पर कानूनी लड़ाई लडने वाले अधिवक्ताओं से डाउन टू अर्थ ने बातचीत की है।
"द कमशीन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट इन नेशनल कैपिटल रीजन एंड एडज्वाइनिंग एरियाज ऑर्डिनेंस 2020" नाम से जारी अध्यादेश में कहा गया है कि एमसी मेहता के डब्ल्यूपी (सी) नंबर 13029 / 1985 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 29 जनवरी, 1998 को ईपीसीए का गठन एनसीआर क्षेत्र के वायु प्रदूषण प्रबंधन के लिए किया गया था लेकिन ईपीसीए की हद दिल्ली तक ही सीमित थी और आस-पास के राज्यों से कोई समन्वय नहीं था। इसी कारण से ही 2020 में आदित्य कुमार के एक स्टबल बर्निंग यानी पराली जलाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली को आदेशों का पालन करने के लिए एक सदस्यीय निगरानी समिति गठित किया था।"
सरकार ने इसी आदेश को आधार बनाकर आयोग की जरूरत बताई है। वहीं, राष्ट्रपति से आदेश लेकर अध्यादेश लाने की हडबड़ी भी विशेषज्ञों के समझ से परे है क्योंकि आयोग का गठन होने में कम से कम यह प्रदूषण वाली सर्दी निकल जाएगी।
अध्यादेश के इस खंड पर अधिवक्ता राहुल चौधरी कहते हैं कि ईपीसीए का दायरा सिर्फ दिल्ली ही नहीं रहा है बल्कि एनसीआर के सारे शहर ईपीसीए के साथ समन्वय में रहे हैं। इसलिए सिर्फ ईपीसीए का दायरा सीमित है औऱ आयोग की जरूरत थी यह उचित नहीं जान पड़ता।
वहीं, इस मामले में एमसी मेहता डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि वाहनों से वायु प्रदूषण नियंत्रण और प्रबंधन के लिए सुप्रीम कोर्ट गठित दिवंगत जस्टिस केएन सेकिया की समिति में वे भी सदस्य थे। उनकी समिति ने 17 रिपोर्ट दीं। इन रिपोर्ट पर किसी भी सरकार ने प्रभावी कदम नहीं उठाए। फिर जस्टिस लोकुर की समिति हो या फिर भूरेलाल समिति सभी ने अच्छी रिपोर्ट और सिफारिशें समय-समय पर दी हैं। इनका दायरा सिर्फ दिल्ली और एनसीआर ही नहीं रहा बल्कि यह देश भर के लिए सुझाए गए थे। स्वच्छ हवा के लिए जो भी सिफारिशे हुईं उन्हें सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। ऐसे में सिर्फ किसी समिति का दायरा छोटा है और उसकी जगह पर आयोग होगा यह वायु प्रदूषण की समस्या का निदान नहीं लगता।
अध्यादेश में कहा गया है कि समिति में करीब 26 सदस्य होंगे, जिनमें ब्यूरोक्रेट्स की संख्या काफी ज्यादा है। इस पर डाउन टू अर्थ से एमसी मेहता कहते हैं कि यह देखा गया है कि छोटी समितियां ज्यादा सुलझे हुए निर्णय लेती हैं। यदि आयोग में इतने सारे सदस्य होंगे और उनके बीच किस तरह से बैठक होगी और कैसे एक निर्णय बनेगा। इसका कोई खाका यदि नहीं है तो आयोग प्रभावी कैसे बनेगा।
वहीं, राहुल चौधरी कहते हैं कि वायु प्रदूषण के कारकों की पहचान काफी अच्छे तरीके से की जा चुकी है। कमी रही है तो उन पर कार्रवाई की। यह सरकारों की विफलता है जो आयोग से शायद सफल नहीं होगी।
इसके अलावा क्या केंद्र और राज्य के विषय को लेकर चल रही लड़ाई आयोग पाट सकेगा?
इस सवाल पर राहुल चौधरी कहते हैं कि अध्यादेश में सिविल कोर्ट में भले ही मामला न उठाया जा सके लेकिन एनजीटी जाने का रास्ता खुला है। ऐसे में मतभेद बनने पर एनजीटी लोग पहुंचते रहेंगे। अदालत से निकली लड़ाई अदालत में ही जाकर फंस जाएगी।
सीएसई की कार्यकारी निदेशक अनुमितारॉय चौधरी ने हाल ही में कहा कि केंद्र के द्वारा अधिसूचित किया गया कंप्रिहेंसिव एक्शन प्लान दरअसल वायु प्रदूषण की चुनौतियों को चरण-दर-चरण हल करने के लिए ही था, लेकिन नया कानून कैसे इसकी भरपाई करेगा।
दिल्ली-एनसीआर में पुरानी सभी समितियों और अतिरिक्त उपायों को खत्म करके वायु प्रदूषण के लिए बहुसदस्यीय आयोग तो होगा लेकिन आयोग के सामने रास्ता क्या होगा यह अभी तक धुंधला ही है औऱ इस सर्दी में यह धुंधला ही शायद बना रहे।