नई सरकार को यह समझना होगा कि सभी नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं। 36 में से 31 राज्य एवं केंद्र शासित प्रदेशों से गुजर रही नदियों में प्रदूषण बढ़ रहा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक 2015 में नदियों के 32 हिस्से (स्ट्रेच) प्रदूषित थे, जो 2018 में बढ़कर 45 हो गए। अनियोजित शहरीकरण के कारण नदी के किनारों पर अशोधित जल की मात्रा काफी बढ़ गई है। नदी का पानी पीने के लिए शहरों में भेजा जाता है और शहरों से सीवेज और औद्योगिक प्रदूषित पानी वापस नदी में पहुंच जाता है। ऐसे में, यह बेहद जरूरी हो गया है कि देश के सभी जलाशयों की तत्काल सफाई की जाए।
एनडीए की पिछली सरकार ने स्वच्छता को प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखा था। इसमें शौचालय निर्माण और राष्ट्रीय नदी गंगा की सफाई प्रमुख तौर पर शामिल थी। वैसे तो भारत ने खुले में शौच से मुक्ति के उद्देश्य को हासिल करने के लिए 1986 में एक अभियान की शुरुआत की थी। इसका मकसद लोगों की जीवन गुणवत्ता में सुधार करना था, लेकिन इस अभियान का कोई लक्ष्य वर्ष निर्धारित नहीं किया गया था। इसलिए जो परिणाम सामने आए, वे बहुत अस्पष्ट थे। अगले 28 वर्षों में कई अन्य कार्यक्रम शुरू किये गए, लेकिन इनमें केवल मशीनों (हार्डवेयर) की बात की गई।
2014 में शुरू हुए स्वच्छ भारत मिशन को सबसे अधिक प्रचार मिला। तय किया गया कि यह मिशन अक्टूबर 2019 तक पूरा हो जाएगा और भारत को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) कर दिया जाएगा। कहा गया कि इस मिशन के तहत शौचालय बनाए जाएंगे और उनका इस्तेमाल भी होगा। लाखों की संख्या में शौचालय बनाए गए, हालांकि इस बात पर विवाद भी हुआ कि अगर उन इलाकों में पानी ही नहीं होगा तो शौचालयों का इस्तेमाल कैसे होगा। बावजूद इसके, यह लेख लिखते समय भारत के ग्रामीण घरों में 100 फ़ीसदी शौचालय का लक्ष्य हासिल किया जा चुका होगा।
ऐसे में, एनडीए सरकार द्वारा बड़ी संख्या में बनाए गए शौचालय को प्रबंधन के साथ-साथ नई सरकार को इस बात पर भी ध्यान देना होगा की इससे उत्पन्न होने वाला वेस्ट का निपटारा कैसे किया जाएगा। वाटर ऐड इंडिया 2018 की स्टडी बताती है कि ग्रामीण इलाकों में बनाए गए लगभग 57.8 लाख शौचालयों का डिजाइन की गलत था। इन शौचालयों में केवल एक ही गड्ढा था या इनके सेफ्टी टैंक का डिजाइन गलत था। 2018 में सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरमेंट द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक लगभग 4,077 टन शौच घरों के पास ही खुले में डंप किया जा रहा है। यह अध्ययन उन इलाकों में किया गया, जहां सीवर लाइनें नहीं थी, इन इलाकों में शौचालयों से जुड़े हुए दो गड्ढे (टिवन पिट) बनाए गए हैं, लेकिन यहां या तो भूजल सतह कम है या यहां पानी के जमाव होने की संभावना देखी गई। इतना ही नहीं, सेप्टी टैंक या गड्डे में जमा मल कीचड़ को किसान बिना शोधित किए अपने खेतों में खाद के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे या वातावरण में डंप किया जा रहा था। परिणामस्वरूप इससे आसपास के लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो गया। मल कीचड़ एवं सेप्टेज प्रबंधन (एफएसएसएम) को लेकर 2017 में बनी राष्ट्रीय नीति में भी अधिक से अधिक शौचालय बनने पर इस तरह की चुनौतियों की संभावना जताई गई है।
चूंकि स्वच्छ भारत मिशन के तहत जिन घरों में शौचालय नहीं हैं, वहां सीवर न होने की स्थिति में सेप्टिक टैंक और गड्डे बनने हैं, ऐसी स्थिति में मानव अपशिष्ट की रोकथाम काफी हद तक हो जाएगी, लेकिन इसका सुरक्षित निपटारा (डिस्पोजल) एक बड़ी चुनौती बन गया है। ऐसे में नई सरकार को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा और ऐसी तकनीक का इंतजाम करना होगा, जिससे उसी जगह पर (ऑन साइट) ही मल कीचड़ का सुरक्षित तरीके से शोधित किया जा सके। अन्यथा शौचालय बनाने पर की गई मेहनत बेकार जाएगी। साथ ही, मल कीचड़ न केवल मिट्टी, बल्कि भूजल और जलाश्यों को भी प्रदूषित करेगा। एनडीए ने यह माना था कि देश के स्वच्छता का मतलब भारत के सबसे बड़े नदी क्षेत्र की सफाई करना है। वह नदी क्षेत्र जो देश के 26 प्रतिशत भूभाग को कवर करता है और लगभग 43 प्रतिशत आबादी इससे जुड़ी है। इस राष्ट्रीय नदी की सफाई तीन दशक पहले शुरू हुई थी, यह एक दुखद स्थिति है कि नदी आज भी स्नान करने लायक नहीं है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में अगस्त 2018 को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने एक रिपोर्ट दी, जिसमें कहा गया कि गंगा नदी की 70 निरीक्षण केंद्रों पर जांच की गई तो उसमें से केवल 5 केंद्रों पर गंगा का पानी पीने लायक स्थिति में था, जबकि केवल सात निरीक्षण केंद्र ऐसे थे, जहां का पानी नहाने के लिए उपयुक्त है।नई सरकार को इसे तत्काल मानना होगा कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में शौचालयों से निकलने वाले कचरे का प्रबंधन अच्छी तरह से नहीं किया गया तो गंगा नदी को स्वच्छ करने का काम बेकार जाएगा। गंगा के बेसिन में बसे गांवों को ओडीएफ बनाने का उद्देश्य गंगा में मल के कॉलिफॉर्म स्तर को कम करना है। गंगा से सटे पांच राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक मई 2018 में गंगा बेसिन शहरों में मल कॉलिफॉर्म का स्तर 2,40000 प्रति 100 मिलीलीटर था, जबकि तय मानकों के मुताबिक 2,500 प्रति 100 मिलीलीटर होना चाहिए था।
उसी जगह पर सफाई सुविधाओं (ऑन साइट सेनिटेशन) का अधिक से अधिक इंतजाम करना होगा, ताकि शौचालय के आसपास ही मल अपशिष्ट को शोधित किया जाए, वर्ना ये अपशिष्ट गंगा को प्रदूषित करेंगे। प्रदूषण फैलाने में सीवरेज से अधिक मल अपशिष्ट की भूमिका है, इसलिए इसकी चिंता करनी होगी। सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरमेंट (सीएसई) ने सुरक्षित स्वच्छता और सुरक्षित भविष्य के लिए निम्नलिखित अंतरालों को अपनाने की बात करता है।
हमारे पास सतत विकास लक्ष्य 2030 को हासिल करने के लिए मात्र दस साल का समय बचा है। नई सरकार को इस दिशा में काम करना होगा। स्वच्छ भारत बनने के लिए हमारी चुनौती केवल इतना भर से पूरी नहीं हो जाती कि शौचालय की बिल्डिंग बना दी जाए, बल्कि शौचालय से आशय सफाई के पूरे इंतजाम हों, जो सस्ते भी हैं और टिकाऊ भी। देश सफाई पर सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहा है, इसलिए संस्थानों को मजबूत करने की जरूरत है और सतत जल एवं स्वच्छता सेवाओं के लिए बनी नीतियों के पालन के लिए नियामक ढांचा तैयार करने की जरूरत है।
(लेखिका दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट में प्रोग्राम मैनेजर हैं)