
भारत के पारिस्थितिकी-संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में प्लास्टिक प्रदूषण का संकट दिन-प्रतिदिन गंभीर होता जा रहा है। नाजुक और संवेदी पहाड़ों पर 80 प्रतिशत से अधिक प्लास्टिक कचरा सिंगल-यूज खाद्य और पेय पैकिंग से उत्पन्न हो रहा है। चिंताजनक यह है कि इस कचरे में से 70 प्रतिशत वह प्लास्टिक है जिसे न तो रीसाइकल किया जा सकता है और न ही इसका कोई बाजार मूल्य है। कुल कचरे में पीईटी जैसे रीसाइकल योग्य प्लास्टिक की मात्रा मात्र 18.5 फीसदी थी।
द हिमालयन क्लीनअप (टीएचसी) 2024 रिपोर्ट ने 2018 से जम्मू और कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक व्यापक प्लास्टिक कचरा और ब्रांड ऑडिट्स के दौरान यह निष्कर्ष दिया है। रिपोर्ट्स में पाया गया कि अधिकांश प्रदूषण फैलाने वाले ब्रांड्स जैसे इंस्टेंट नूडल्स और ऊर्जा पेय पदार्थों के पैकिंग कचरे में अहम भूमिका निभा रहे हैं। 2024 में नेपाल और भूटान से भी इस अभियान में भागीदारी की है। अभियान में 9 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की 450 से ज्यादा साइटों पर सफाई और कचरा ऑडिट किया गया। 151 साइट्स पर ब्रांड और प्लास्टिक ऑडिट किया गया।
सिक्किम, दार्जिलिंग और लद्दाख जैसे पहाड़ी इलाकों में कचरे की भारी मात्रा को देखते हुए, टीएचसी की रिपोर्ट ने यह भी संकेत दिया है कि कंपनियों की ओर से रीसाइक्लिंग का प्रचार केवल एक भ्रम है क्योंकि अधिकांश प्लास्टिक कचरे को रीसाइकल नहीं किया जा सकता।
पांव पसारता खाद्य पैकेजिंग, स्मोकिंग और गुटखा
टीएचसी रिपोर्ट के मुताबिक, सिक्किम सबसे सक्रिय राज्य रहा, जहां 86 साइट से कुल 53814 (44 फीसदी) कचरे के टुकड़े इकट्ठा किए गए। इसमें से 46908 (87 फीसदी) प्लास्टिक था, और उसमें भी 79 फीसदी ऐसा प्लास्टिक था जिसे रीसायकल नहीं किया जा सकता। चौंकाने वाली बात यह है कि करीब 92 फीसदी प्लास्टिक कचरा केवल खाद्य पैकेजिंग से आया और 6.3 फीसदी कचरा स्मोकिंग और गुटखा उत्पाद का था।
दार्जिलिंग और कलिमपोंग (पश्चिम बंगाल) के पर्वतीय क्षेत्रों में कुल 26 साइट का ऑडिट किया गया। इनमें पाया गया कि 36180 कचरा आइटम्स बटोरे गए, जिनमें 34569 (95.5) फीसदी केवल प्लास्टिक था। इस प्लास्टिक का 72 फीसदी हिस्सा गैर-रीसायकल और 28 फीसदी रिसाइकल योग्य था। कुल कचरे में 79.1 फीसदी फूड पैकेजिंग से संबंधित था। 16.3 फीसदी स्मोकिंग और गुटखा उत्पाद से जुड़ा था व 1.7 फीसदी कचरा पर्सनल केयर का था।
लद्दाख में 11975 कचरे के टुकड़े एकत्र किए गए, जिनमें से 11168 (93.3 फीसदी) प्लास्टिक था और 75.8 फीसदी गैर-रीसायकल। यहां खाद्य पैकेजिंग की हिस्सेदारी 67.6 फीसदी रही और स्मोकिंग मैटेरियल कचरा 23.2 फीसदी व 8 फीसदी हाउसहोल्ड कचरा पाया गया।
उत्तराखंड में 8 ऑडिट साइट में 5937 कचरे के टुकड़े मिले, जिनमें से 4554 (81.1 फीसदी) प्लास्टिक था। इस प्लास्टिक का 67 फीसदी हिस्सा रीसायकल नहीं किया जा सकता था। चौंकाने वाली बात यह रही कि 96.6 फीसदी प्लास्टिक खाद्य पैकेजिंग से संबंधित था। इस फूड पैकेजिंग कचरे में सबसे ज्यादा फूड रैपर फिर बेवरेज की बोतलें और इसके बाद जूस बॉक्स व प्लास्टिक बैग शामिल थे।
नागालैंड में 6 ऑडिट साइट में 6512 कचरे के टुकड़े पाए गए, जिनमें से 5885 (90.4 फीसदी) प्लास्टिक था और उसका 64 फीसदी हिस्सा गैर-रीसायकल था। यहां भी 81.2 फीसदी कचरा खाद्य पैकेजिंग से जुड़ा था़ और 9 फीसदी स्मोकिंग मैटेरियल से जुड़ा था। पैकेजिंग कचरे में सबसे ज्यादा फूड रैपर फिर बेवरेज की बोतलें और इसके बाद जूस बॉक्स व प्लास्टिक बैग शामिल थे।
अरुणाचल प्रदेश में आंकड़ा अपेक्षाकृत कम रहा, एक ऑडिट साइट में पाया गया कि कुल 2705 कचरे के टुकड़े इकट्ठा किए गए, जिनमें से केवल 29.4 फीसदी प्लास्टिक था, परंतु उसमें भी 55 फीसदी हिस्सा गैर-रीसायकल था। आश्चर्यजनक रूप से यहां खाद्य पैकेजिंग से उत्पन्न कचरे की हिस्सेदारी लगभग 99.6 फीसदी रही।
हिमाचल प्रदेश, मणिपुर और मिजोरम जैसे राज्यों में कुल कचरा 3000 से भी कम रहा, और लगभग 80 फीसदी प्लास्टिक होने का अनुमान है। यहां गैर-रीसायकल प्लास्टिक की संख्या स्पष्ट नहीं दी गई है। इन राज्यों में भी खाद्य पैकेजिंग से उत्पन्न कचरा 85 फीसदी से अधिक अनुमानित किया गया है।
पहाड़ों पर इंस्टैंट नूडल्स ब्रांड और स्टिंग जैसे पेय बड़े प्रदूषक
टीएचसी 2024 रिपोर्ट के मुताबिक सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले ब्रांडों में वाइ-वाइ, मामा एंड मीमी जैसे इंस्टेंट नूडल्स ब्रांड्स, जिनके खाली पैकेट हर राज्य में बड़ी संख्या में पाए गए। इनका उपयोग तेजी से बढ़ रहा है और ये एकल उपयोग प्लास्टिक के सबसे बड़े स्रोत बन चुके हैं। दूसरे स्थान पर था मैगी, जो भारत के घरों में लोकप्रिय इंस्टेंट नूडल ब्रांड है। इसके रैपर और पाउच्स सभी प्रमुख पहाड़ी राज्यों में बड़ी मात्रा में मिले।
रिपोर्ट के अनुसार पेप्सिको का स्टिंग, जो एक ऊर्जा पेय है और जिसमें कैफीन और कृत्रिम शुगर होती है, तीसरा सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला ब्रांड है। सभी पेय की बोतलों का 20.3 फीसदी हिस्सा खाली स्टिंग की बोतलें थीं। यह उच्च संख्या पिछले 3 वर्षों से स्थिर रही है, विशेष रूप से सिक्किम और दार्जिलिंग में।
टीएचएस 2023 के डेटा में स्टिंग का विशाल उछाल दर्ज किया गया है, जो 2022 में 11 फीसदी से बढ़कर इस वर्ष 20.3 फीसदी हो गया। ऊर्जा पेयों के अन्य वेरिएंट्स भी हैं, लेकिन स्टिंग सबसे प्रमुख है। यह विशेष रूप से डरावना है, क्योंकि स्टिंग पर जो चेतावनी लिखी है, वह है "बच्चों, गर्भवती महिलाओं या स्तनपान करवा रही माताओं के लिए अनुशंसित नहीं है"। अधिकतर यह देखा गया है कि स्टिंग बच्चों द्वारा पी जा रही है, क्योंकि इसे बच्चों को बेच दिया जाता है, बावजूद इसके कि उस पर चेतावनी दी गई है। यह बढ़ोतरी इस बात को दर्शाती है कि स्टिंग कितना लोकप्रिय हो गया है और यह समुदायों और बच्चों के स्वास्थ्य के लिए अतिरिक्त चुनौतियां पेश करता है, इसके अलावा कचरे की समस्या भी खड़ी करता है।
इन पेय पदार्थों के भी क्षेत्रीय प्राथमिकताएं भी दिखाई दीं, जैसे कि लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में माउंटेन ड्यू और सिक्किम तथा दार्जिलिंग हिमालय में स्टिंग की खपत काफी ज्यादा है।
सेंटरफ्रेश (परफेटी) जैसे च्युइंग गम के रैपर, बिंगो (आईटीसी) और लेज/कुर्कुरे (पेप्सिको) जैसे नमकीन ब्रांड्स की पन्नियां भी बड़ी मात्रा में मिलीं।
फ्रूटी/एप्पी (पारले एग्रो) के जूस कंटेनर और कोका-कोला, पेप्सी, और बिसलेरी की प्लास्टिक बोतलें सभी राज्यों में आमतौर पर देखी गईं, जिससे यह सिद्ध होता है कि पेय पदार्थ कंपनियों की प्लास्टिक पैकेजिंग एक बड़े प्रदूषण स्रोत के रूप में उभर रही है।
वहीं, रिपोर्ट के मुताबिक अन्य प्लास्टिक यानी मल्टी लेयर्ड प्लास्टिक का उपयोग 68.5% है, जबकि पीईटी का उपयोग 18.5 फीसदी, एलडीपीई का का 5.4% और एचडीपीई का का एक फीसदी है।
रिपोर्ट में किए गए प्रमुख सुझावों में मल्टी-लेयर्ड प्लास्टिक (एमएलपी) पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने, खाद्य और पेय ब्रांड्स को उनके प्रदूषण के लिए विशेष रूप से जिम्मेदार ठहराने, और स्कूली क्षेत्रों में जंक फूड और ऊर्जा ड्रिंक्स की बिक्री पर रोक लगाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। इसके अलावा, फ्रंट ऑफ पैकेज लेबलिंग नीति को अनिवार्य करने और रीसायक्लिंग से परे जाकर 'डिज़ाइन आउट वेस्ट' की नीति लागू करने की सिफारिश की गई है, ताकि उत्पादों को उनके जीवनकाल के अंत में पर्यावरण पर न्यूनतम प्रभाव डाले। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ग्रामीण और पर्वतीय निकायों को कचरा प्रबंधन के लिए विशेष संसाधन दिए जाने चाहिए, ताकि इन संवेदनशील क्षेत्रों में प्रभावी और दीर्घकालिक समाधान सुनिश्चित किए जा सकें। इन उपायों के माध्यम से, हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते कचरा संकट का सामना करने के लिए एक समग्र और सशक्त नीति ढांचा तैयार किया जा सकता है।