आज भी खाना पकाने के लिए दूषित ईंधन का प्रयोग कर रही है दुनिया की 36 फीसदी आबादी

280 करोड़ लोग आज भी खाना पकाने के लिए लकड़ी, कोयला और चारकोल जैसे पारम्परिक ईंधनों का प्रयोग कर रहे हैं। वहीं अनुमान है कि 2030 तक इस स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आएगा
आज भी खाना पकाने के लिए दूषित ईंधन का प्रयोग कर रही है दुनिया की 36 फीसदी आबादी
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दुनिया की 36 फीसदी आबादी यानी 280 करोड़ लोग आज भी खाना पकाने के लिए लकड़ी, कोयला और चारकोल जैसे पारम्परिक ईंधनों का प्रयोग कर रहे हैं। हालांकि पिछले तीन दशकों में दूषित ईंधन का प्रयोग कर रही आबादी के प्रतिशत में लगातार कमी आई है।

जहां 1990 में यह आंकड़ा 53 फीसदी था वो 2020 में घटकर 36 फीसदी पर पहुंच गया है। वहीं अनुमान है कि यदि इसमें इसी रफ्तार से गिरावट जारी रहती है तो यह 2030 में घटकर 31 फीसदी पर पहुंच जाएगा। लेकिन देखा जाए तो यह आंकड़ा पूरी कहानी बयां नहीं करता है क्योंकि भले ही यह इस बात को दर्शाता है कि दूषित ईंधन का उपयोग करने वालों के प्रतिशत में कमी आई है पर उनकी जो संख्या है, उसमें कोई खास बदलाव नहीं आया है।

यदि 1990 के आंकड़ों को देखें तो यह आंकड़ा 300 करोड़ था जो 2020 में घटकर 280 करोड़ पर पहुंच गया था। इसके बारे में अनुमान है कि यह आंकड़ा 2030 तक मामूली कमी के साथ 270 करोड़ पर ही पहुंचेगा। हालांकि इसमें कहीं ज्यादा कमी करने की जरुरत है। यह जानकारी हाल ही में जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित शोध में सामने आई है।      

यदि क्षेत्रीय तौर पर देखें तो दुनिया में उप-सहारा अफ्रीका की एक बड़ी आबादी आज भी खाना पकाने के लिए दूषित ईंधनों पर निर्भर है। अनुमान है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो 2025 तक अफ्रीका में उनका आंकड़ा बढ़कर 100 करोड़ से ज्यादा हो जाएगा। रिपोर्ट के अनुसार इस क्षेत्र में खाना पकाने के लिए चारकोल सबसे पसंदीदा ईंधन बन चुका है। 

इस प्रदूषित ईंधन के कारण जलवायु और पर्यावरण पर भी व्यापक प्रभाव पड़ रहा है। अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के करीब 25 फीसदी हिस्से के लिए घरों में खाना पकाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा बायोमास ईंधन जिम्मेवार है। 

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने खाना पकाने के लिए इस्तेमाल हो रहे छह प्रकार के ईंधनों बिजली, गैसीय ईंधन, मिट्टी का तेल, बायोमास, लकड़ी का कोयला और चारकोल को शामिल किया है। इसमें 1990 से लेकर 2030 तक इन ईंधनों के उपयोग की भविष्यवाणी की गई है। 

स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण और जलवायु को भी पहुंच रहा है नुकसान

इस पर विश्व बैंक द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट से पता चला है कि दूषित ईंधन के उपयोग से स्वास्थ्य और जलवायु पर पड़ने वाले असर की बात करें तो इससे हर साल अर्थव्यवस्था पर 177.2 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। वहीं यदि अकेले स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को देखें तो इसके चलते हर साल 103.4 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है| गौरतलब है कि इनसे होने वाले वायु प्रदूषण के संपर्क में ज्यादा समय तक रहने से हृदय रोग, निमोनिया, फेफड़ों के कैंसर और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है।

इसका सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है, यदि उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और उत्पादकता पर पड़ रहे  प्रभाव का आंकलन करें तो वो करीब 59 लाख करोड़ रुपए के बराबर बैठता है, जबकि जलवायु और पर्यावरण पर पड़ रहे असर को देखें तो वो करीब 14.8 लाख करोड़ रुपए के बराबर है|

वहीं यदि विश्व बैंक की रिपोर्ट से जुड़े आंकड़ों को देखें तो भारत में भी करीब 16 करोड़ परिवार खाना पकाने के लिए पारंपरिक बायोमास कुकस्टोव पर निर्भर थे| जिसके कारण घर के सदस्यों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा था|

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार हर साल करीब 40 लाख असमय मौतों के लिए इंडोर एयर पोलूशन जिम्मेवार होता है, जिसमें से ज्यादातर महिलाएं और बच्चे होते हैं| भले ही दुनिया भर में 2030 तक सभी के लिए स्वच्छ ईंधन की उपलब्धता का लक्ष्य रखा गया है| इसके बावजूद सरकारों की अनदेखी के चलते आज भी खाना पकाने के लिए प्रदूषण उत्पन्न करने वाले ईंधनों का उपयोग किया जा रहा है| इसका खामियाजा उन महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है जिन पर भोजन तैयार करने की जिम्मेदारी होती है|

ऐसे में शोधकर्ताओं का मत है कि इंडोर एयर पोलूशन के स्वास्थ्य और पर्यावरण सम्बन्धी जोखिम को कम करने के लिए वैश्विक नेताओं और नीति निर्माताओं को त्वरंत कार्रवाई करने की जरुरत है। डब्ल्यूएचओ और इस शोध से जुड़ी शोधकर्ता हीदर अडायर-रोहानी ने इंडोर एयर पोलूशन के मूल कारणों से निपटने के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि “खाना बनाने के लिए साफ सुथरे ईंधन तक पहुंच, विकास से जुड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। इनके उपयोग से बीमारियों को रोका जा सकता है। साथ ही सबसे गरीब तबके के जीवन में सुधार के साथ-साथ जलवायु की भी रक्षा हो सकती है।“ 

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