विश्व की भीषण औद्योगिक त्रासदी यानी भोपाल गैस कांड को 34 बरस पूरे हो गए हैं। दो और तीन दिसंबर 1984 की दरम्यानी स्याह और सर्द रात को भोपाल में यूनियन कारबाइड के कारखाने से निकली प्राणघातक गैस के नासूर को रिसते दो लाख 97 हजार 280 घंटे से ज्यादा अर्सा बीत गया है। लेकिन तंत्र की तंद्रा अब तक भंग नहीं हुई है। कुछ सवाल उस रात मौतों की चीत्कार सुनकर ठिठक कर खड़े हो गए थे, वे अब तक वहीं खड़े हैं। आखिर ये ‘भोपाल’ क्यों घटा? किसने घटने दिया? और किसने दोषियों को ‘कवच कुंडल’ दिए? प्रश्नों के उत्तर जहां से आने हैं, वहां चुप्पी के ताले हैं और उस रात शुरू हुआ सतत हादसे का अंतहीन दौर अब तक जारी है। न्याय की बात तो कौन करे, जिंदा बच गए लोग अपने सीने में दफ्न गैस पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपने को अभिशप्त हैं। उन्हें संवेदनहीन तंत्र ने पल-पल मौत का संत्रास झेलते-झेलते मौत की आखिरी पेशी की आवाज सुनने के लिए अभिशप्त कर दिया है।
कोई नहीं जानता कि इस हादसे की उम्र कितनी लंबी होगी। संततियां विकलांग और बीमार पैदा होने की बात तो आईसीएमआर की पहली रिपोर्ट में हादसे के तीन बरस बाद ही 1987 में बता दी थी। हादसे में रिसी गैस को मिथाइल आइसोसाइनेट इंगित करने वाली यह रिपोर्ट बताती है कि गर्भवती स्त्रियों में से 24.2 प्रतिशत गर्भपात का शिकार हो गई थीं। जो जन्मे उनमें से 60.9 प्रतिशत शिशु भी ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सके। मौत के पंजे से बच निकले शिशुओं में से भी 14.3 प्रतिशत शिशु दुनिया में शारीरिक विकृति लेकर आए। यह विकृति भी उन शिशुओं में ज्यादा पाई गई जो गैस रिसाव के समय गर्भ में तीन से लेकर नौ माह तक की अवस्था में थे। इतना ही नहीं हादसे के वक्त पांच बरस के रहे बच्चों पर भी गैस का घातक असर हुआ। वे उम्र बढ़ने के साथ ही सांस की तकलीफ के बढ़ने का शिकार भी हुए। यानी आज जो 33 बरस से 38 बरस की उम्र के गैस पीड़ित हैं, उनकी तकलीफें मुसलसल जारी हैं। कार्बाइड प्लांट के कचरे को ठिकाने लगाने का सवाल अब तक अनुत्तरित है। कई बार स्थान तलाशने और विदेशों तक में इसे डंप करने के उपाय तलाशे जा चुके हैं। मगर अब तक स्थायी निदान नहीं हो पाया है।
सियासत की बात करें तो उस वक्त की सूबे की और केंद्र की सरकारों ने क्या किया था, जबकि उन्हें करना क्या चाहिए था? यह सवाल अब तक अनुत्तरित हैं। दोनों ही कांग्रेस की सरकारें थीं। प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह। सरकारों ने गिरफ्तार आरोपी वारेन एंडरसन को सुरक्षित और सम्मान सहित अमेरिका जाने का इंतजाम किया था। इस पर सियासत से लेकर बौद्धिक बहसों के अनेक कारवां गुजर चुके हैं। भाजपा तो भोपाल में बकायदा गैस हादसे और पीड़ितों की समस्या को चुनावी मुद्दा बनाती रही है। गैस त्रासदी और उस वक्त के पूरे वार्डों यानी समूचे शहर को गैस पीड़ित मानने पर जोर देती रही। यह पार्टी बीते करीब डेढ़ दशक से प्रदेश की सत्ता में हैं, लेकिन गैसकांड वाले मुद्दे पीछे छूट गए हैं। जब-जब गैस कांड और एंडरसन का मामला चर्चा में आया, जांच के लिए कमेटियां बना दी गर्इं। वर्तमान सरकार ने भी करीब सात साल पहले न्यायिक जांच कमेटी बनाई थी। न तो हादसे का मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन इस दुनिया में है और न ही उसके मददगार बने तत्कालीन सरकारों के मुखिया। गैस पीड़ितों की उस वक्त मदद करने वाले लोगों के संगठन भी छिन्न भिन्न होकर नेताओं की संख्या उतनी संख्या तक जा पहुंचे ही है जितनी बरसियां बीतती जा रही हैं। न तो गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदारों को सजा ही मिली और न ही पीड़ितों को न्याय। “भोपाल” को लेकर सियासत बदस्तूर जारी है।
यक्ष प्रश्न यह है कि हमने और दुनिया ने विश्व की भीषणतम युद्ध त्रासदी हिरोशिमा नागासाकी की ही तरह विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस कांड से क्या सीखा? ये हादसा दुनिया के रहबरों के माथे पर सिकन पैदा नहीं कर पाया था, लेकिन इससे सबक लिए बिना दुनिया का भला नहीं हो सकता। गैस त्रासदी में एक रात में काल कवलित हुए साढ़े तीन हजार और तैतीस बरस से लगातार जारी हादसे में तिल-तिलकर मृत हुए करीब 35 हजार लोगों को सही मायने में श्रद्धांजलि यही होगी कि जो बचे हैं उन्हें बेहतर इलाज और मुआवजे से महरूम रह गए लोगों को उनका हक मिले, वर्ना हर साल बरसी में हम संख्या की एक एक गिरह बढ़ाते जाएंगे, होगा कुछ नहीं।