पर्यावरणविद् इस बात से दुखी हैं कि बिहार की मृतप्राय हो चुकी नदियों के बारे में इस चुनाव में कोई बात नहीं हो रही है।
अधिकारियों के मुताबिक, एक समय में बिहार में लगभग 600 नदी की धाराएं बहती थीं, लेकिन इनमें से अधिकतर सूख चुकी हैं और अपना अस्तित्व खोने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। नदी विशेषज्ञों का कहना है कि नदी की इन धाराओं की वजह से न केवल क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया था, बल्कि इससे क्षेत्र का भूजल भी रिचार्ज होता था, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं।
इन विशेषज्ञों का कहना है कि लगभग 100 नदियां, जिनमें लखंदी, नून, बलन, कादने, सकरी, तिलैया, धाधर, छोटी बागमती, सौरा, फालगू आदि शामल हैं खत्म होने के कगार पर हैं।
हिंदू धार्मिक नगरी गया में बहने वाली फालगू का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए। इस शहर में पिछले लगभग दो दशक से हिंदू तीर्थयात्रियों की संख्या बढ़ रही है, बावजूद इसके इस नदी की ओर ध्यान नहीं दिया गया और अब यहां सीवर का पानी बह रहा है।
नदियों के लिए आंदोलन करने वाले ब्रज नंदन पाठक बताते हैं कि दक्षिण बिहार के कई जिलों के लिए जीवन दायनी मानी जाने वाली इस नदी के किनारों पर जगह-जगह वाटर पम्पिंग स्टेशन लगा दिए गए हैं। इससे नदी तो सूख ही गई, साथ ही आसपास का भूजल स्तर भी गिरता जा रहा है, लेकिन दुख की बात यह है कि यह कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया।
पाठक ने पटना उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें नदी के किनारे अतिक्रमण को हटाने और निर्माणों को तोड़ने की अपील की गई। उनके मुताबिक नदी के किनारे लगभग 2500 परिवारों ने अतिक्रमण किया हुआ है।
इसी तरह पूर्णिया की सौरा नदी का उल्लेख भी किया जाना जरूरी है। नदियों को बचाने के लिए अभियान चलाने वाले अखिलेश चंद्रा बताते हैं कि यह नदी लंदन की थेम्स की तरह थी, जो पूर्णिया शहर के बीचों बीच से गुजरती थी, अब पूरी तरह सूख चुकी है और यहां अब शहर का कचरा डाला जा रहा है।
गंगा मुक्ति आंदोलन के संयोजक एवं नदी विशेषज्ञ अनिल प्रकाश ने डाउन टू अर्थ को बताया कि यह हम लगातार ये मामले राजनीतिक दलों और सरकार के सामने रखते रहे हैं, लेकिन दुख की बात यह है कि राजनीतिक दलों को यह मुद्दा जनता को लुभाने लायक नहीं लगता। आईआईटी खड़गपुर से शिक्षित एवं प्रमुख नदी विशेषज्ञ दिनेश मिश्रा भी इस बात से दुखी हैं कि चुनावों में नदी के मुद्दे पर बात नहीं होती।