चुनावी भाषणों से गायब है साफ हवा का मुद्दा

जनता फिर दूषित वायु एवं स्मॉग को भूलकर राजनीतिक पार्टियों द्वारा फैलाये गए सामयिक चुनावी मुद्दों में फंस गई है।
चुनावी भाषणों से गायब है साफ हवा का मुद्दा
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हरीश दत्त 

वर्ष 1996 में दिल्ली स्थित गैर-सरकारी संस्था सेंटर फॉर इनवायरमेंट (सीएसई) ने ‘‘स्लो मर्डर” रिपोर्ट प्रकाशित की और राजनीतिज्ञों से यह मांग भी की गई थी कि यदि आपको हमारा वोट चाहिए, तो पहले हमें साफ हवा दे। उस समय दिल्ली में वायु प्रदूषण के कारण हर एक घंटे में एक मौत हो रही थी, 10 में से 1 को कैंसर एवं अस्थमा की शिकायत थी। उस समय वर्ष 1996 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान 85 में से 22 उम्मीदवारों ने यह शपथ भी ली थी कि हम दिल्ली को वायु प्रदूषण से निजात दिलवाने में सकारात्मक कार्य करेंगे। 22 में से 9 बीजेपी एवं 13 कांग्रेस से थे। वर्ष 1997 में वायु प्रदूषण की गंभीरता को लेकर सरकार द्वारा एक श्वेत पत्र भी जारी किया गया, जिसमें सरकार द्वारा वायु प्रदूषण को मापने के लिए नए यंत्रों को उपलब्ध कराने वाली बात करके टाल दिया गया था।

दिल्ली में दूसरा शासन काल सबसे लम्बा 1998 से 2013 तक (लगभग 15 साल) कांग्रेस का,  विकासात्मक परिपेक्ष्य में आया। इस समय में कांग्रेस ने नारा दिया कि विकास के नारे को तोड़ना नहीं चाहिए । इस शासन में विकास की इतनी अति हुई कि उसने पूरी दिल्ली की कमर ही तोड़ दी। जिसके चलते दिल्ली का विस्तार एनसीआर क्षेत्रों की ओर करना आवश्यक हो गया। इसी समय में वर्ष 1998 में दिल्ली के तत्काल स्वास्थ्य मंत्री ने वायु प्रदूषण को लेकर यह बयान तक दे डाला कि ‘‘हृदय एवं फेफड़ों की बीमारी में कोई समस्या नहीं है” , और तो और उस समय में दिल्ली के ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर का तो यह तक कहना था की ‘‘यह सीएनजी वगैरह सब बकवास है”।

बाद में वर्ष 2013 में 48 दिनों के अल्पकाल के लिए नवनिर्मित आम आदमी पार्टी के आने के बाद मुख्यमंत्री द्वारा इस्तीफे से पूरे एक साल के लिए दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा रहा और तब केंद्र में बीजेपी का शासन था, लेकिन वायु प्रदूषण को लेकर कोई भी सुधार संभव नहीं हो सका। पुनः फरवरी, 2015 में आम आदमी पार्टी सरकार दिल्ली में अब पूर्ण पांच वर्षो के लिए आई, जिसने वायु प्रदूषण की सभी हदें पार कर दी एवं पूरे विश्व में वायु प्रदूषण में अग्रणी चीन के बीजिंग शहर को भी पीछे छोड़ दिया है।

ऐसे ही यदि दिल्ली में मुख्य तीन दावेदार पार्टियों के वर्ष 2014 लोकसभा के चुनावी घोषणा पत्रों पर नजर डाली जाये तो बीजेपी ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में पर्यावरण को लेकर कुल 5 बिंदुओं को सूचीबद्ध किया था, जिनमे इकोलॉजिकल ऑडिट जैसे पर्यावरण से संबधित मुद्दे थे, परन्तु वायु प्रदूषण नहीं था, जबकि कांग्रेस ने पर्यावरण को लेकर 11 बिंदुओं को सूचीबद्ध किया गया था, जिसमें नीयमा योजना, जल एवं ग्रामीण क्षेत्रों के लिए साफ ईंधन की योजना जैसे मुद्दे शामिल थे, परन्तु वायु प्रदूषण को लेकर कुछ भी स्पष्ट नहीं था । आप पार्टी के 2014 के घोषणा पत्र में पर्यावरण को लेकर सिर्फ 7 बिंदु शामिल थे और वायु प्रदूषण तो अदृश्य ही था । जबकि वर्ष 2015 में ग्रीनपीस की रिपोर्ट के अनुसार सितम्बर, 2015 में वायु का स्तर वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन के सुरक्षित लेवल से 10 गुना ज्यादा था ।

कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव, 2019 में अपने घोषणा-पत्र में पहली बार वायु प्रदूषण को नेशनल हेल्थ इमरजेंसी माना गया है। यह एक अच्छी पहल जरूर है, परन्तु कब तक कायम रहती है यह तो सत्ता मिल जाने के बाद ही स्पष्ट होगा। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए एनवायरमेंटल  प्रोटेक्शन अथॉरिटी के गठन एवं ‘‘राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम” को मजबूत बनाने का वादा किया। कांग्रेस पार्टी को यह समझ है कि यह मुद्दा चुनावी हवा को बदल पाने में सक्षम हो सकता है, लेकिन सत्ता खो जाने के डर से ही सही, लेकिन किसी ने तो इसकी शुरुआत की।

बीजेपी ने भी वायु प्रदूषण को अपने घोषणा पत्र में जगह दी है। भाजपा ने कहा है कि वायु प्रदूषण के वर्तमान स्तर को कम किया जाएगा। साथ ही कहा है कि कोशिश की जाएगी कि फसल अप्शिष्ठ जलाना पूरी तरह से बंद किया जाए। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम को एक मिशन की दिशा में बदलना एवं देश के 102 सर्वाधिक शहरों पर ध्यान केंद्रित करना शामिल किया गया है। परन्तु बीजेपी द्वारा इस पर ठोस अंकुश लगाने की बात से बचने के लिए ‘‘कोशिश की जाएगी” जैसा नुक्ता जोड़ दिया गया है, ताकि बाद में इससे बाहर निकल पाना आसान हो सके।

अभी तक सिर्फ पूर्ण राज्य के अधिकार के वादे पर ही केंद्रित है, जबकि उसके लिए सबसे प्रमुखता पर वायु प्रदूषण ही होना चाहिए था, जिससे द्वारा वह अन्य राज्यों में फिर अपना विस्तार खोजती तो उसके लिए कुछ संम्भावना बनना उचित हो जाता, परन्तु वास्तविक मुद्दे से भटक जाने को ही राजनीति कहते हैं, शायद इसलिए केजरीवाल इस मुद्दे से बचकर चल रहे हैं।

एक रिपोर्ट के अनुसार हिंदुस्तान में आम बजट में पर्यावरण पर 21 रुपए प्रति व्यक्ति खर्च का प्रावधान किया जाता है।यहां हर एक मिनट में 5 लोगों की मौत सिर्फ वायु प्रदूषण के चलते हो रही है। इसके विपरीत देखा जाये तो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव का अकेला खर्च 3,870 करोड़ था, जबकि पर्यावरण से बचने वाली उद्योगों का मुनाफा अकेले ही 3,000 हजार करोड़ रूपए से ज्यादा है, और तो और भारत के कई राज्यों जैसे हरियाणा एवं पंजाब के पास तो अपना पर्यावरण बजट तक नहीं है ।

पश्चिमी देशों के लिए चुनावों में पर्यावरणीय चिंताएँ महत्वपूर्ण हो जाती हैं, हालांकि यह भारत के लिए उतना ही सही नहीं है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जर्मनी, यूरोप, यूके में पर्यावरणीय चिंताएं है एवं उन्हें ग्रीन पार्टी के द्वारा चुनावों में प्राथमिकता दी जाती है। ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख राजनीतिक दल, ऑस्ट्रेलियाई लेबर पार्टी, यह कहते हुए सत्ता में आई कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी (जॉन हावर्ड सरकार) की पर्यावरण-विरोधी नीतियों के खिलाफ थी। लेकिन अब लेबर पार्टी सत्ता में है, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर उसके कार्य अपने पूर्ववर्ती की तुलना में अधिक दयनीय हैं ।

भारत में मुद्दे समान हैं। राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्रों में इन मुद्दों को शामिल भी कर लिया है, लेकिन सत्ता में हासिल करने के बाद इन मुद्दों पर काम होगा, यह देखना होगा। हालांकि हमारे पिछले अनुभव कड़वे रहे हैं। यदि यह चलन जारी रहा तो वायु प्रदूषण जैसे मुद्दों पर हमें पछताना पड़ेगा। अतः अब समय आ गया है की नागरिक अपने वोट को साफ हवा के अधिकार के साथ जोड़कर राजनीतिक पार्टियों से उनकी जवाबदेही स्पष्ट कर सके।

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