आम चुनाव: सार्वजनिक संस्थानों की मजबूती से निकलेगा समाधान

लोग समझ चुके हैं कि जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण उनके लिए बड़ी चुनौती है, लेकिन सार्वजनिक संस्थानों की कमजोरी के चलते उन्हें समाधान नहीं दिख रहा है
Photo : Agnimirh Basu
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किसानों को अब जलवायु परिवर्तन के बारे में पता चल चुका है। आज जिस तरह से मौसम बदल रहा है, बेमौसम बारिश हो रही है,ज्यादा सर्दी-गर्मी पड़ रही है, उससे किसानों की फसलें प्रभावित हो रही हैं। वे अपने नुकसान के बारे में भली-भांति जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि फसल बीमा का वादा उनसे किया गया था, लेकिन बीमा कंपनियां उनके नुकसान की भरपाई नहीं कर रही हैं।  

किसान ही नहीं, बल्कि सब लोग जलवायु परिवर्तन के बारे में जानते-समझते हैं, मगर सवाल यह है कि नेता क्यों नहीं इस बारे में बात कर रहे। केवल जलवायु परिवर्तन ही नहीं, बल्कि इस चुनाव में किसी भी मुद्दे पर बात नहीं हो रही है। 

यहां तक कि रोजगार और पानी के संकट जैसे मुद्दों पर बात नहीं हो रही है। पिछले चुनाव तक बात होती थी, जब सूखे का बड़ा सवाल था। अब न तो महाराष्ट्र के सूखे की बात हो रही है और न ही सौराष्ट्र के सूखे की।

लेकिन आने वाला समय इन नेताओं के लिए बड़ा चुनौती भरा होगा, क्योंकि लोग अब समझ चुके हैं। अब दिल्ली की ही बात करें तो अब सरकारें किसी भी घर के आंगन में कचरे का ढेर नहीं लगा सकतीं। पहले सरकार शहर के बाहर कचरे का ढेर लगा देती थी, लेकिन अब शहर का कोई भी हिस्सा नहीं बचा, जहां लोग न बस रहे हों। अब गरीब भी अपने घर के बाहर कचरा इकट्ठा नहीं होने देता। यह समझ पिछले कुछ समय के दौरान विकसित हुई है, लोगों की सोचने की शक्ति बढ़ी है। यही वजह है कि सरकार के सामने दिल्ली में नया कचरा निस्तारण प्लांट शुरू करना एक बड़ी चुनौती बन गया है।

ओखला में पुराना प्लांट बना हुआ है, लेकिन अब वहां से कुछ दूरी पर स्थित सरिता विहार के लोग लगातार विरोध कर रहे हैं। वे आवाज उठा रहे हैं और बता रहे हैं कि इस प्लांट की वजह से उनके जीवन पर संकट मंडरा रहा है। उनको सांस लेने में तकलीफ हो रही है, उनके बच्चों के स्वास्थ्य पर फर्क पड़ रहा है। इसलिए अब सरकार को नए प्लांट के लिए जमीन नहीं मिल रही है।

ऐसे में सवाल उठता है कि कचरा कहां जाएगा? जब तक हम कचरे का सही ढंग से प्रबंधन नहीं करेंगे, घर-घर में कचरे से कंपोस्ट बनाने का इंतजाम नहीं करेंगे तो कचरा कहां जाएगा? इसमें मध्य वर्ग को भी अपनी भूमिका तय करनी होगी। मध्य वर्ग के लोग बातें तो बहुत करते हैं, लेकिन जब उनसे कहा जाता है कि अपने घर के कचरे को अलग-अलग करिए, उसे कंपोस्ट करिए, कचरा कम से कमकरिए, कबाड़ी वाले को भी सम्मान की दृष्टि से देखिए, तो वे चुप्पी साध लेते हैं।

आज मायापुरी में प्रदूषण की बात हो रही है, लेकिन क्या हम जानते हैं कि मायापुरी के लोग क्या करते हैं? वे पूरे शहर का कबाड़ा-कचरा इकट्ठा करते हैं और उस कचरे से वेल्थ (पैसा) बनाते हैं। हम कई साल से वेस्ट से वेल्थ की बात तो करते हैं, लेकिन उस काम को संरक्षण नहीं देना चाहते और उस काम को करने वालों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते।

कचरा प्रबंधन को लेकर देश ने दो तरीके अपनाने की कोशिश की है। एक तो है टेक्नोलॉजी का तरीका। हमने घोषणा की कि आधुनिक टेक्नोलॉजी लाएंगे, बड़े-बड़े प्लांट बनेंगे, जहां कचरे से बिजली बनेगी और कचरा गायब हो जाएगा, लेकिन यह नहीं हुआ। इसमें केवल सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता। सरकार कोशिश कर रही है। चूंकि कचरे को अलग-अलग करने की दिशा में काम नहीं हो रहा,इसलिए यह टेक्नोलॉजी काम नहीं आ रही है। पहले हमें कचरे को इस योग्य बनाना होगा कि उसका इस्तेमाल प्लांट में किया जा सके।  

हाल ही में अहमदाबाद को स्वच्छ भारत अभियान के तहत पुरस्कार मिला, लेकिन वहां भी दिल्ली जैसा ही हाल है। क्योंकि वहां भी हर घर में कचरे को अलग-अलग करने का काम नहीं हो रहा है। हर घर का कचरा कम्पोस्ट नहीं हो रहा है। अहमदाबाद के लोग अपने घर का कचरा कम नहीं कर रहे हैं। वे कबाड़ी वालों को सम्मान नहीं देते, उन्हें उनका काम नहीं करने देते।

हमारी कचरा प्रबंधन रणनीति विदेशों पर आधारित है। विदेशों में खासकर अमेरिका में लैंडफिल का तरीका अपनाया गया है या वे लोग अपना कचरा उन जगहों पर भेजते हैं, जहां गरीब रहते हैं। पिछले साल जब चीन ने कहा कि हम कोई भी प्लास्टिक वेस्ट नहीं लेंगे तो आज अमेरिका में बहुत दिक्कतें हो रही हैं कि वे प्लास्टिक का क्या करेंगे?

हमारा आकलन है कि यदि कचरे का निस्तारण नहीं किया गया और कचरे के ढेर बनाते रहे तो एक दिन हमें दिल्ली, हैदराबाद व मुंबई के बराबर जगह की जरूरत पड़ेगी। ऐसे समय में जब हमारे पास इतनी जमीन नहीं है कि हम गरीबों को घर दे सकें तो कचरा डालने के लिए इतनी जमीन का इंतजाम कैसे करेंगे?

हालांकि सरकार को कचरे के सवाल उठाने के लिए उसकी सराहना की जानी चाहिए। मगर स्थानीय नगर निकायों, नगर पालिकाओं को कोई दिशा निर्देश नहीं दिया गया कि वे इस दिशा में कैसे आगे बढ़ सकते हैं। ऐसे में, नगर पालिकाएं कचरा निस्तारण की दिशा में काम करना तो चाहती हैं, लेकिन उनके पास कोई स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं हैं।

सरकार स्वच्छ सर्वेक्षण करके शहरों को पुरस्कार तो दे रही है, लेकिन ये वे शहर हैं, जिन्होंने कचरे को सड़क से साफ कर दिया। मगर झूड़ा लगाने और कचरा साफ करने में बहुत फर्क है। झाड़ू लगा कर कचरे को एक जगह से हटा कर दूसरी जगह पर इकट्ठा कर दिया गया, लेकिन कचरे का समाधान नहीं ढूंढ़ा गया। इससे लगता है कि सरकार के पास कोई स्पष्ट नजरिया नहीं है।

कचरा प्रबंधन में सबसे महत्व भूमिका नगर निगम, नगर पालिकाओं की होती है, लेकिन सरकारों ने नगर निगमों को मजबूत करने की बजाय कमजोर किया। कभी भी यह नहीं सोचा गया कि नगर पालिकाओं को पैसा कहां से दें। उनकी ताकत कैसे बढ़ाएं। सफाई कर्मचारियों की संख्या कैसे बढ़ाएं।

नगर पालिकाओं की माली हालत में सुधार करने के लिए मध्य वर्ग को आगे आना चाहिए। अपने हिस्से का टैक्स देना चाहिए। लेकिन मध्य वर्ग ऐसा नहीं करता। पिछले दिनों कहा गया कि गाड़ियों की वजह से प्रदूषण फैलता है, इसलिए गाड़ियों की पार्किंग का शुल्क बढ़ा देना चाहिए, लेकिन मध्य वर्ग ने इसका विरोध कर दिया। जबकि, सरकारें सार्वजनिक परिवहन सेवा पर पैसा नहीं लगाना चाहती।

कचरा प्रबंधन हो या वायु प्रदूषण, इसका बड़ा कारण यह है कि देश में सार्वजनिक संस्थानों, विनियामक संस्थानों, निकाय संस्थाओं की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उनकी स्वतंत्रता, उनकी जवाबदेही को लेकर कोई चर्चा नहीं हो रही है।

चुनाव की बात हो या राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्र की, किसी भी चुनावी घोषणा पत्र में सार्वजनिक संस्थानों की बात नहीं की गई। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को इतना कमजोर कर दिया गया है कि दिल्ली की ही बात करें तो बोर्ड में काफी कम लोग काम करते हैं और जो काम कर भी रहे हैं, वे बेहद कमजोर हैं। कमजोर से आशय है कि उनकी कोई नहीं सुनता। उनके पास इतने अधिकार नहीं हैं कि वे सीधे किसी प्रदूषण फैलाने वाले के खिलाफ कार्रवाई कर सकें। उन्हें कोर्ट के माध्यम से अपनी कार्रवाई करनी पड़ती है। 

इतना ही नहीं, उनके पास ऐसे संसाधन तक नहीं हैं कि वे यह पता लगा सकें कि कोई फैक्ट्री यदि प्रदूषण फैला रही है तो वह किस तरह का प्रदूषण फैला रही है। इसके लिए प्रयोगशाला होनी चाहिए। आपके पास वैज्ञानिक होने चाहिए, ऐसे वकील चाहिए जो पर्यावरण से संबंधित जानकारी रखते हों, यह सब कुछ प्रदूषण बोर्ड के पास नहीं है।

जिस भी देश में पर्यावरण की दिशा में काम किया गया है और वहां हालात में सुधार हुआ है तो उसमें उस देश के सार्वजनिक संस्थानों का बड़ा हाथ रहा है। जैसे अमेरिका में ईपीए (इंवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी) है या कुछ देशों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हैं, लेकिन वे बेहद मजबूत संस्थान हैं। उनकी विश्वनीयता है, उनके पास कर्मचारी हैं। 

लेकिन भारत में हम एक ओर तो अपने संस्थानों को मजबूत नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर, हम नए-नए संस्थान बना रहे हैं, जैसे एनजीटी का गठन। एनजीटी एक अच्छी पहल है, लेकिन वो काम कैसे करेगा? जाहिर है, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के माध्यम से ही काम करेगा। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास इतनी शक्ति नहीं है कि एनजीटी के आदेशों का पालन करा पाए। कुल मिलाकर लोग तो जागरूक हुए हैं। वे समझ रहे हैं कि हमारे सामने प्रदूषण एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि प्रदूषण से निपटने के लिए क्या करें? क्योंकि संस्थान कमजोर हैं, कुछ सोच में भी कमजोरी है। 

 (एक टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार के अंश)

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