दुनिया में पड़ने वाले सूखे से कृषि और खाद्य सुरक्षा पर 9 गुना तक बढ़ जाएगा खतरा

सदी के अंत तक दुनिया भर में हर साल लगभग 12 करोड़ लोगों पर गंभीर सूखे का असर पड़ सकता है।
फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स
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दुनिया भर में धरती के विभिन्न इलाकों में एक ही समय में पड़ने वाले सूखे से दुनिया भर में कृषि प्रणाली पर एक बहुत बड़ा दबाव पड़ सकता है। साथ ही इससे लाखों लोगों की खाद्य और जल सुरक्षा को भी खतरा पैदा हो सकता है।

वाशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी की अगुवाई वाली एक शोध टीम ने जलवायु, कृषि और जनसंख्या वृद्धि के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। विश्लेषण से पता चला है कि निरंतर जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता से 21वीं सदी के मध्य तक धरती के कई इलाकों में एक साथ सूखा पड़ने की आशंका 40 फीसदी तक बढ़ जाएगी। वहीं 21वीं सदी के अंत तक सूखा पड़ने के आसार को 60 फीसदी तक बढ़ा सकती है। जब तक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कदम नहीं उठाए जाते हैं, तब तक दुनिया भर में एक साथ पड़ने वाले गंभीर सूखे से कृषि और मानव आबादी पर लगभग 9 गुना तक खतरा बढ़ सकता है।

प्रमुख अध्ययनकर्ता जितेंद्र सिंह ने कहा दुनिया भर में लगभग 12 करोड़ लोग सदी के अंत तक हर साल गंभीर सूखे से प्रभावित हो सकते हैं। उन्होंने कहा हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि कई क्षेत्र सूखे को लेकर पहले से ही कमजोर हैं और इसलिए इन जगहों पर सूखे के आपदा बनने की आशंका अधिक है। जितेंद्र सिंह स्विट्जरलैंड के ईटीएच ज्यूरिख में डब्ल्यूएसयू स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट में शोधकर्ता हैं। 

सिंह और उनके सहयोगियों द्वारा अनुमानित सूखे के अधिक खतरे अल नीनो और ला नीना की घटनाओं की आवृत्ति में अनुमानित 22 फीसदी की वृद्धि करेंगे। साथ ही गर्म होती जलवायु के चलते, अल नीनो दक्षिणी दोलन (ईएनएसओ) के दो विपरीत चरण एक साथ चलेंगे। 

शोधकर्ताओं ने बताया कि भविष्य में लगभग 75 फीसदी सूखा दुनिया भर के महासागरों में जलवायु परिवर्तन को खतरनाक तरिके से बढ़ाएगा। महासागरों ने विश्व इतिहास में कुछ सबसे बड़ी पर्यावरणीय आपदाओं में बड़ी भूमिका निभाई है।

उदाहरण के लिए, 1876-1878 के दौरान एशिया, ब्राजील और अफ्रीका में समवर्ती रूप से आए अल नीनो-ईंधन वाले सूखे के कारण समकालिक फसल की हानि हुई, जिसके बाद अकाल पड़ा जिसमें 5 करोड़ से अधिक लोग मारे गए।

डब्लूएसयू स्कूल में सहायक प्रोफेसर और सह-अध्ययनकर्ता दीप्ति सिंह ने कहा कि जबकि आज की तकनीक और अन्य परिस्थितियां 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध की तुलना में बहुत अलग हैं। एक ऐसा हिस्सा जो इसके बाकी हिस्सों के लिए अनाज पैदा करता है या ब्रेड बास्केट क्षेत्रों में फसल की हानि अभी भी दुनिया भर के  खाद्य उपलब्धता को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। यह बदले में दुनिया भर में खाद्य कीमतों में अस्थिरता को बढ़ा सकता है। लोगों की भोजन तक पहुंच को प्रभावित कर सकता है और खाद्य असुरक्षा को बढ़ा सकता है। खासकर वो क्षेत्र प्रभावित होंगे जो पहले से ही सूखे की गंभीर चपेट में हैं।

शोधकर्ताओं का विश्लेषण विशेष रूप से धरती के 10 क्षेत्रों पर केंद्रित है जहां जून से सितंबर के दौरान अधिकांश वर्षा होती हैं। मासिक गर्मी की वर्षा में बहुत अधिक बदलाव होता है और ईएनएसओ में होने वाले अलग-अलग बदलाओं से यह प्रभावित होती है। ऐसे कारणों से एक साथ सूखा पड़ने के आसार बढ़ जाते हैं। विश्लेषित किए गए कई देशों में उनके महत्वपूर्ण कृषि क्षेत्र शामिल हैं जो वर्तमान में भोजन और पानी की असुरक्षा का सामना कर रहे हैं।

उनके परिणामों से पता चलता है कि उत्तर और दक्षिण अमेरिका के क्षेत्रों में भविष्य में सूखा पड़ने की अधिक आशंका है। एशिया के क्षेत्रों की तुलना में गर्म जलवायु, जहां कृषि भूमि का अधिकांश भाग के नम होने का अनुमान है।

इसलिए अमेरिका में उत्पादित भोजन जलवायु संबंधी खतरों के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका मुख्य अनाज का एक प्रमुख निर्यातक है और वर्तमान में दुनिया भर के देशों को मक्का भेजता है। भविष्य की जलवायु में सूखे के जोखिम में मामूली वृद्धि भी क्षेत्रीय आपूर्ति में कमी का कारण बन सकती है। साथ ही यह वैश्विक बाजार में बदल सकती है, वैश्विक कीमतों को प्रभावित कर सकती है और खाद्य असुरक्षा को बढ़ा सकती है।

सह-अध्ययनकर्ता वेस्टन एंडरसन ने कहा खाद्य सुरक्षा संकट की संभावना बढ़ जाती है, भले ही ये सूखे इलाके प्रमुख खाद्य उत्पादक क्षेत्रों को प्रभावित नहीं कर रहे हों, बल्कि ऐसे कई क्षेत्र हैं जो पहले से ही खाद्य असुरक्षा की चपेट में हैं। एंडरसन मैरीलैंड विश्वविद्यालय में प्रणाली विज्ञान के शोध वैज्ञानिक हैं। खाद्य असुरक्षा वाले क्षेत्रों में एक साथ सूखे से आपदा राहत के लिए जिम्मेदार अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों पर तनाव बढ़ सकता है।

एंडरसन ने कहा शोधकर्ताओं का काम एक उच्च जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन परिदृश्य पर आधारित है। हाल के वर्षों में, वैश्विक समुदाय ने कार्बन उत्सर्जन को कम करने की दिशा में प्रगति की है जो 21वीं सदी के अंत तक एक साथ पड़ने वाले सूखे की आवृत्ति और तीव्रता को बहुत कम कर देगा।

साथ ही, भविष्य की जलवायु में ईएनएसओ की घटनाओं के साथ-साथ लगभग 75 फीसदी सूखे की घटनाओं का अनुमान लगाने की क्षमता पर प्रकाश डालती है।  

दीप्ति सिंह ने कहा, इसका मतलब यह है कि ईएनएसओ की घटनाओं के दौरान होने वाला सूखा संभवतः उन्हीं भौगोलिक क्षेत्रों को प्रभावित करेगा जो वह आज तक करता आया है। यह अनुमान लगाना कि सूखा कहां पड़ेगा और उनके प्रभावों से समाज को कितना आर्थिक नुकसान होगा? इसके बारे में  पता लगाने, इसको कम करने और ऐसी जलवायु संबंधित आपदाओं से लोगों की समस्याओं को कम करने के लिए योजनाओं और प्रयासों को विकसित करने में मदद कर सकते हैं।

शोधकर्ताओं ने इस बात पर करीब से नजर डालने की योजना बनाई है, कि कैसे एक साथ पड़ने वाला सूखा वैश्विक खाद्य नेटवर्क के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करेगा। इस तरह की जलवायु की चरम सीमाओं से कमजोर लोग कैसे प्रभावित होते हैं? साथ ही प्रबंधन के लिए बेहतर तरीके कैसे तैयार किए जा सकते हैं? इन पर और विचार करने की जरूरत है। यह अध्ययन नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित हुआ है।

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