स्पेशल रिपोर्ट: वन कानून में संशोधन क्यों मांग रहा है हिमाचल?

उत्तराखंड की तरह हिमाचल प्रदेश को आपदाओं से तबाह हुए गांवों का पुनर्वास करना पड़ रहा है, लेकिन कहां?
हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के सराज क्षेत्र में हुई तबाही का निशान तीन माह बाद भी दिखाई दे जाते हैं
हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के सराज क्षेत्र में हुई तबाही का निशान तीन माह बाद भी दिखाई दे जाते हैं(फोटो: रोहित पराशर)
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सारांश
  • हिमाचल प्रदेश में मानसून की तबाही के बाद पुनर्वास की चुनौती बढ़ गई है।

  • सरकार ने केंद्र से वन भूमि पर अस्थायी पुनर्वास की अनुमति मांगी है

  • लेकिन अब तक कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिला है।

  • राज्य में 2025 में भारी बारिश और भूस्खलन से 468 लोगों की मौत हुई और हजारों लोग बेघर हो गए हैं।

30 जून 2025 को हिमाचल प्रदेश के सराज क्षेत्र में तबाही का निशान अभी भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं। गांव चापड़ के 100 से अधिक परिवार लगभग चार माह बीतने के बाद भी अलग-अलग जगह अस्थायी शिविरों में रह रहे हैं। प्रशासन और कुछ स्वयंसेवी संगठनों की ओर से खाने पीने का इंतजाम किया गया है।

हालांकि कुछ उन लोगों को सरकार ने पहले सात लाख रुपए और बाद में 1.20 लाख रुपए की राशि दी है, जिनके पास सुरक्षित जगह पर जमीन है। इस पैसे से ये लोग फिर से अपना आशियाना बनाने में जुट गए हैं। गांव के हेतराम कहते हैं, “ऐसे लोगों की संख्या कम ही है, क्योंकि कई लोगों के पास सुरक्षित जगह पर जमीन नहीं है और ना ही लोग फिर से घर बनाने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं।” प्रशासन के निर्देश हैं कि नालों व गदेरों से कम से कम 75 मीटर की दूरी पर ही मकान या दुकान बनाएं।

सराज मंडी जिले का वह क्षेत्र है, जहां बीते मानसून सीजन में हिमाचल प्रदेश में सबसे अधिक तबाही हुई है। सराज क्षेत्र में उस रात लगभग 25 किलोमीटर के इलाके में 9 जगह बादल फटे और शिकारी देवी धार के दोनों ओर जंजेहली व करसोग की तरफ भारी तबाही मची। चापड़ जंहहेली ब्लॉक में आता है।

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आसपास के लगभग 12 गांवों में चार माह बाद भी हालात सामान्य नहीं हो पाए हैं। इस आपदा में 17 लोगों की जान चली गईं और 11 अभी भी लापता हैं। हेतराम कहते हैं कि उनका इलाका समुद्र तल से 6,000 फुट से लेकर 9,000 फुट तक फैला है। मौसम ठंडा हो चला है। आने वाले समय में कभी भी बर्फ पड़ सकती है, इसलिए सरकारी भवनों में ठहरे लोगों की चिंता बढ़ती जा रही है।

खेत खलिहाल, बगीचे लगभग सब कुछ खत्म हो गए हैं, इसलिए लोगों के पास फिलहाल कोई काम भी नहीं है। थुनाग कस्बे के रहने वाले लीला धर चौहान बताते हैं कि उनका क्षेत्र सेब के लिए बहुत मशहूर है, लेकिन बड़ी संख्या में बगीचों को नुकसान हुआ है। स्थिति यह है कि इस सीजन में सेब बागवानों को भारी नुकसान हुआ है और आने वाले सीजन में भी हालात सामान्य होते नहीं दिखते।

हिमाचल प्रदेश में 19 जून से सक्रिय मानसून 2025 ने भीषण तबाही मचाई। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार इस सीजन में 47 बार बादल फटे और 148 बड़े भूस्खलन हुए। आपदा में अब तक 468 लोगों की मौत और 29,534 पशुओं की हानि हुई है। प्रदेश के विभिन्न जिलों में भूस्खलन की घटनाओं से 174 से अधिक गांव और बस्तियां प्रभावित हुई हैं। इन घटनाओं में 1,152 से अधिक मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं, 377 पशुशालाएं और 52 दुकानें प्रभावित हुई हैं। लगभग 6,462 लोग विस्थापित हुए हैं, 1,457 परिवार अपने घरों से उखड़ गए हैं और करीब 365 हेक्टेयर भूमि प्रभावित हुई है।

सरकार ने राज्यभर में पोस्ट डिजास्टर नीड्स असेसमेंट (पीडीएनए) शुरू करने का आदेश जारी किया है। इसमें राज्य सरकार के वरिष्ठ अधिकारी और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के तकनीकी विशेषज्ञ शामिल होंगे। टीम आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, बिजली, पर्यटन सहित सभी क्षेत्रों में नुकसान का आकलन कर पुनर्निर्माण की योजना बनाएगी। मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित यह समिति “बिल्ड बैक बेटर” सिद्धांत पर आधारित दीर्घकालिक पुनर्वास रणनीति तैयार करेगी।

लेकिन उत्तराखंड की तरह राज्य में सबसे बड़ी समस्या पुनर्वास की ही है। यही वजह है कि 28 अगस्त 2025 को हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव में केंद्र सरकार से आग्रह किया कि राज्य में हुई भारी बारिश और भूस्खलन को “राष्ट्रीय आपदा” घोषित किया जाए और आपदा प्रभावित परिवारों को बसाने के लिए वन भूमि पर अस्थायी पुनर्वास की अनुमति दी जाए। राज्य सरकार ने यह भी कहा कि वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 की धारा 2 के तहत केंद्र से विशेष छूट दी जाए, ताकि पुनर्वास हेतु सीमित वन भूमि का उपयोग किया जा सके।

इसके बाद राज्य के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव से मुलाकात की और जमीन गवां चुके आपदा प्रभावित परिवारों के पुनर्वास के लिए एक बीघा भूमि आवंटित करने की अनुमति देने का आग्रह किया। हालांकि इस दिशा में अब तक राज्य सरकार को कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिले हैं।

केंद्रीय कृषि मंत्रालय के 2005 के भूमि उपयोग के आंकड़े बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश के कुल 45.47 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में से लगभग 12.21 प्रतिशत भूमि खेती के अधीन है, जबकि 24.06 प्रतिशत क्षेत्र वन है। स्थायी चारागाह और घासभूमि लगभग 33.63 प्रतिशत क्षेत्र घेरते हैं। अन्य भूमि उपयोग में 1.25 प्रतिशत वृक्ष फसलें, 2.73 प्रतिशत परती भूमि, 0.29 प्रतिशत गैर-वर्तमान परती और 1.19 प्रतिशत वर्तमान परती शामिल हैं। वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2021 के अनुसार, राज्य के कुल 55,673 वर्ग किलोमीटर में से 37,948 वर्ग किलोमीटर (68.16 प्रतिशत) कानूनी वन क्षेत्र है, जबकि 15,443 वर्ग किलोमीटर (27.73 प्रतिशत) पर वास्तविक वन आवरण है।

ऐसी स्थिति में सरकार को वन भूमि का विकल्प ही दिख रहा है। विशेषज्ञ भी इस मामले में राज्य सरकार के साथ दिखते हैं। हिमालय नीति अभियान के संयोजक गुमान सिंह कहते हैं कि साल 1952 में हिमाचल प्रदेश की लगभग 49 फीसदी राजस्व भूमि प्रबंधन के लिए वन विभाग को सौंपी गई थी, लेकिन बाद में इसे वन भूमि मान लिया गया और 1980 में लागू हुए वन संरक्षण अधिनियम के बाद तो वन भूमि पर केंद्र सरकार का अधिकार हो गया।

सिंह के मुताबिक राज्य के पास राजस्व भूमि नहीं है, इसलिए आपदा में बेघर होने के साथ-साथ अपने खेत व बगीचे गंवा चुके लोगों को फिर से बसाने के लिए वन भूमि के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

सिंह कहते हैं कि केंद्र सरकार इस मामले में दोहरा रवैया अपना रही है। साल 2023 में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने बॉर्डर से लगे इलाकों में 100 किलोमीटर के दायरे में किसी भी तरह के प्रोजेक्ट्स को वन संरक्षण अधिनियम से छूट दे दी थी। अभी हाल ही में हिमाचल में प्रदेश में बिछाई जाने वाली रेलवे लाइन के प्रोजेक्ट को भी पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईएआई) से छूट दी गई है। जबकि स्थानीय लोगों के लिए आवास व आजीविका के लिए वन भूमि की इजाजत नहीं दी जा रही है।

हिमाचल में उत्तराखंड की तरह पुनर्वास नीति नहीं है, लेकिन हिमधारा एनवायरमेंट रिसर्च एंड एक्शन कलेक्टिव की सह-संस्थापक मानसी अशर ने डाउन टू अर्थ से कहा, “राइट टू फेयर कंपंसेशन एंड ट्रांसपेरेंसी इन लैंड एक्वीजिशन, रिहेबलिटेशन एंड रिसेटलमेंट एक्ट 2013 में भी प्रावधान है कि यदि आपदा-संबंधित पुनर्वास की आवश्यकता हो, तो इस केंद्रीय कानून के प्रावधानों का उपयोग किया जा सकता है। हिमाचल प्रदेश के भौगोलिक क्षेत्र का बड़ा हिस्सा वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है, इसलिए पुनर्वास एक चुनौती है, क्योंकि इसके लिए वन संरक्षण अधिनियम के तहत वन भूमि के डायवर्जन की आवश्यकता पड़ती है।”

अशर कहती हैं कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 में भी पुनर्वास से संबंधित एक धारा मौजूद है। इसका अर्थ है कि आपदा के बाद पुनर्वास के लिए भूमि उपलब्ध कराना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है।

वह समझाती हैं कि यह काम एक ऐसी प्रक्रिया के तहत किया जाता है जिसमें सटीक डेटा इकट्ठा किया जाता है, जैसे प्रभावित लोगों की संख्या, बह गए मकान, नष्ट हुई कृषि भूमि आदि। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत यह डेटा तैयार करने के दो तरीके हैं: मेमोरेंडम ऑफ लॉस एंड डैमेज और पोस्ट डिजास्टर नीड्स असेसमेंट, लेकिन अब तक आंकड़े नहीं आए हैं।

राज्य सरकार का प्रस्ताव है कि वन भमि विनिमय की व्यवस्था की जाए। यानी एक ओर की जमीन वन विभाग ले ले, उस पर पौधारोपण और सुरक्षा कार्य करे, और दूसरी ओर कुछ भूमि प्रभावित लोगों को बसाने के लिए दी जाए। राज्य ने ऐसे कुछ क्षेत्र चिन्हित भी किए हैं और यह प्रक्रिया चल रही है कि कितने गांव पुनर्वास के दायरे में आएंगे और कितनी जमीन की आवश्यकता होगी। साल 2023 में राज्य में 2025 से ज्यादा नुकसान हुआ था।

हिमाचल प्रदेश हिमाचल प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग (आपदा प्रबंधन प्रकोष्ठ) द्वारा वर्ष 2023 के मानसून सीजन में बादल फटने, अचानक बाढ़ और भूस्खलन से हुए नुकसान की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2023 के मानसून ने राज्य के 201 गांवों और बस्तियों को “अनावासीय” यानी रहने अयोग्य बना दिया। करीब 11,895 लोग अपने घरों से बेघर हुए। कई जगहों विशेषकर मंडी, सोलन, सिरमौर और किन्नौर में कई इलाके खाली कराने पड़े।

सरकार ने इन क्षेत्रों के लिए “विशेष पुनर्वास पैकेज” की जरूरत पर जोर दिया था, लेकिन साल 2025 की तबाही ने लोगों व सरकार की दिक्कतें फिर से बढ़ा दी।

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