उत्तराखंड: वरुणावत भूस्खलन के बाद उपचार की तैयारी, विशेषज्ञों की रिपोर्ट का इंतजार

तकरीबन 21 वर्ष बाद यहां सक्रिय हुए भूस्खलन के चलते स्थानीय लोगों, प्रशासन से लेकर राज्य सरकार तक, एक बार फिर अंदेशे के बादल घिर आए
उत्तरकाशी में वरुणावत पर्वत से भूस्खलन के कारणों की पड़ताल करते विशेषज्ञ। फोटो: डीडीएमए
उत्तरकाशी में वरुणावत पर्वत से भूस्खलन के कारणों की पड़ताल करते विशेषज्ञ। फोटो: डीडीएमए
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लगातार बारिश के बीच 27 अगस्त की रात करीब 11 बजे उत्तरकाशी में वरुणावत पर्वत से भूस्खलन शुरू हुआ था। पहाड़ से रुक-रुक कर पत्थर और बोल्डर गिर रहे थे। कुछ पेड़ भी टूटकर नीचे आए। पर्वत की तलहटी में बसे गोफियारा आवासीय क्षेत्र, भटवाड़ी रोड की इंद्रा कॉलोनी समेत अन्य रिहायशी इलाकों से लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया।

गंगोत्री और यमुनोत्री का प्रवेश द्वार कहा जाने वाला उत्तरकाशी भागीरथी नदी के किनारे वरुणावत पर्वत की तलहटी में बसा है। इससे भूस्खलन का मतलब पूरे रिहायशी इलाके का खतरे की जद में आना है।

वरुणावत पर्वत का पूरा क्षेत्र कई मायनों में बेहद संवेदनशील है। भूकंप के लिहाज से सक्रिय क्षेत्र में स्थित है। वर्ष 1991 में यहां रिक्टर स्केल पर 6.1 तीव्रता का भूकंप आ चुका है।

उत्तरकाशी निवासी और पर्यावरणविद् द्वारिका प्रसाद सेमवाल कहते हैं “चीड़ का वन होने के चलते गर्मियों में यहां वनाग्नि की घटनाएं होती हैं और मिट्टी की पकड़ ढीली होती है। अब बारिश भी पहले की तरह रिमझिम नहीं होती। इस बार की बारिश में ऐसी-ऐसी सड़कें और पहाड़ टूटे जो बेहद मजबूत हार्ड रॉक माने जाते थे। जिनकी कोई कल्पना नहीं थी। जिनसे कभी पत्थर का एक टुकड़ा नहीं गिरता था”।

तत्कालीन आपदा प्रबंधन अधिकारी देवेंद्र पटवाल (एक हफ्ते पहले चंपावत में तबादला) बताते हैं कि टीएचडीसी (टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड), जीएसआई( भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण) और यूएलएमएमसी (उत्तराखंड भूस्खलन शमन एवं प्रबंधन केंद्र) के विशेषज्ञों की समिति ने भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र का निरीक्षण किया है। समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं की है।  

समिति की सदस्य और यूएलएमएमसी की भू-वैज्ञानिक डॉ रुचिका टंडन भी सेमवाल की बातों की पुष्टि करती हैं। वह डाउन टु अर्थ बताती हैं “हम वरुणावत पर्वत के शिखर तक भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र का सर्वेक्षण किया है। हमने जंगल की आग का असर वहां देखा। कहीं-कहीं जली घास भी दिखाई दी। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि मृदा क्षरण होने से ऊपरी सतह कमज़ोर हुई हो। 26-27 अगस्त को अच्छी बारिश हुई थी। पहाड़ के जिस हिस्से से भूस्खलन हुआ, वहां ऊपरी हिस्से में 30 डिग्री की ढलान है लेकिन उसके बाद खड़ी ढाल है। बारिश की तेज़ बौछारों से यहां से पत्थर टूटकर गिरे”।

वरुणावत पर्वत। गूगल इमेज
वरुणावत पर्वत। गूगल इमेज

पहाड़ों में एक ही जगह होने वाली तेज़ बारिश नुकसान को बढ़ा रही है। डॉ टंडन कहती हैं कि सेटेलाइट तस्वीरों में इस जगह पहले से ही हलकी टूट फूट दिखाई दे रही थी। “पर्वत के शिखर पर हमें दरारें नहीं मिलीं। मौजूदा स्थितियों में हम यह मान रहे हैं कि फिलहाल यहां किसी बड़े भूस्खलन का खतरा नहीं है। लेकिन बीच-बीच में मलबा फंसा हुआ दिखा है। इसके थोड़ा-थोड़ा कर नीचे आने की आशंका बनी हुई है”।

यूएलएमएमसी ने अपनी रिपोर्ट में वरुणावत पर त्रिस्तरीय सुरक्षा दीवार अलग-अलग ऊंचाई पर बनाने की सलाह दी है। डॉ टंडन बताती हैं “मज़बूत सुरक्षा और पत्थरों से बनाई जाने वाली गेबियन दीवार बनाने के लिए लिखा है। ताकि ऊपर से यदि मलबा आता भी है तो नीचे अटक जाए और उसके नीचे आने का वेग कम हो जाए। पत्थर को नीचे आने से हम रोक नहीं सकते लेकिन मजबूत सुरक्षा दीवार मज़बूत बनाकर नीचे आबादी क्षेत्र को बचाया जा सकता है। हालांकि दीर्घकाल में यहां मिट्टी की पकड़ मजबूत बनाने जैसे कार्य के ज़रिये पर्वत को मजबूती दी जा सकती है”।

मौजूदा भूस्खलन की जगह वर्ष 2003 के भूस्खलन से अलग है। इसलिए विशेषज्ञों की टीम यह मान रही है कि इसका पुराने भूस्खलन से कोई संबंध नहीं है।

23 सितंबर 2003 में वरुणावत अचानक धंसना शुरू हो गया था। पत्थर गिरने से 360 से ज्यादा इमारतें पूरे या आंशिक तौर पर क्षतिग्रस्त हुए थे। हजारों लोग प्रभावित हुए। एक तरह से शहर का पुराना हिस्सा उस भूस्खलन में तबाह हो गया था। 

उस समय भूस्खलन का निरीक्षण करने वाले विशेषज्ञों की टीम ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा “2003 का वरुणावत का भूस्खलन तांबाखानी भूस्खलन का विस्तार था। करीब 15 दिनों तक भूस्खलन सक्रिय रहा था। जिससे पूरा क्षेत्र अस्थिर हो गया था। बारिश का पानी भर जाने के चलते पहाड़ी की चट्टानें कमजोरो हुईं और टूटकर गिरीं”।

उस समिति ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि भूस्खलन से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए पहाड़ियों की तलहटी में शहर नहीं बसाए जाने चाहिए। बल्कि पहाड़ का बफ़र ज़ोन विकसित करना चाहिए। वहीं, द्वारिका प्रसाद सेमवाल बताते हैं कि भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील वरुणावत पर्वत के आसपास लगातार अवैध अतिक्रमण हो रहा है और लोग मकान बनाकर रह रहे हैं।

उत्तरकाशी जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के सलाहकार जय पंवार बताते हैं कि विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर वरुणावत के उपचार का कार्य शुरू किया जाएगा। “फिलहाल प्रभावित क्षेत्र में रह रहे करीब 27 परिवारों को राहत शिविरों या अन्य सुरक्षित स्थानों पर रहने के लिए कहा गया है। वे दिन में अपने कार्यों से घर आते हैं लेकिन रात में नहीं ठहरते”।

लैंड स्लाइड एटलस ऑफ इंडिया के मुताबिक उत्तराखंड के 13 में से 8 जिले भूस्खलन के लिहाज से अति संवेदनशील जिलों की सूची में आते हैं।

वरुणावत भूस्खलन के बाद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भूस्खलन से संबंधित चेतावनी प्रणाली को विकसित करने के निर्देश दिए।

 भू-वैज्ञानिक और उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कार्यकारी निदेशक पद से इस वर्ष ही इस्तीफा देने वाले डॉ पीयूष रौतेला कहते हैं “जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया भूस्खलन से संबंधित चेतावनी जारी करता है। आमतौर पर बारिश के साथ जोड़कर भूस्खलन की चेतावनी जारी की जाती है। लेकिन भूस्खलन ठीक-ठीक कब और कहां होगा ये कहना बहुत मुश्किल है”।

 पहाड़ पर बसा शहर होने के चलते नैनीताल में वर्ष 1997 तक भूस्खलन की मॉनिटरिंग की जा रही थी। डॉ रौतेला कहते हैं “जिन पहाड़ियों पर भूस्खलन से आबादी को खतरे की आशंका ज्यादा है वहां भूस्खलन की मॉनिटरिंग कर चेतावनी प्रणाली विकसित की जा सकती है। इसके लिए आज हमारे पास ज्यादा बेहतर तकनीक भी है”।

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