बिहार में बाढ़ की वजह से बहुत नुकसान लोगों को झेलना पड़ता है फiइल फोटो / CSE
बिहार में बाढ़ की वजह से बहुत नुकसान लोगों को झेलना पड़ता है फiइल फोटो / CSE

आपदा और नीति निर्माण में सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतकों की भूमिका

बिहार के बाढ़-ग्रस्त क्षेत्रों में कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था को इतना प्रभावित किया है कि कई लोग अपने घरों की बेटियों को बेचने पर बाध्य हो जाते हैं
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हम आपदाओं के युग में हैं। कभी बाढ़, कभी अकाल, कभी भूकंप, तो कभी भू-स्खलन से हमारा साक्षात्कार होता ही रहता है। हम लगातार जिस तरह की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं, वह निरंतर आपदाओं को बढ़ावा दे रही है। एंथनी गिडेंस और उलरिच बेक जैसे विख्यात समाजशास्त्रियों ने भी इन आपदाओं को अति-विकसित मानवीय आर्थिक गतिविधियों का परिणाम माना है।

आपदा को देखने के तरीकों को लेकर अलग-अलग मत हो सकते हैं, लेकिन यदि इसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए, तो हम इसे सुविधा के लिए कम से कम तीन कालखंडों में बाँट सकते हैं — पारंपरिक समाजों में इसे ‘एक्ट्स ऑफ गॉड’ यानी ईश्वर की क्रिया माना गया; फिर पुनर्जागरण के बाद की आधुनिकता में इसे ‘एक्ट्स ऑफ नेचर’ के रूप में विचार किया गया; और वर्तमान समय में इस पर विमर्श का तरीका और अधिक आलोचनात्मक तथा सूक्ष्म हो गया है। अब सरकारी राजनीतिक-आर्थिक नीतियों और वैश्विक कॉर्पोरेशनों को इसके लिए अधिक जिम्मेदार माना जाता है, और निस्संदेह इस मान्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

वर्तमान वैश्विक अर्थतंत्र जिस तरह से संसाधनों का अनियंत्रित दोहन कर रहा है, और उसमें जिस लालच व अनैतिकता के साथ वैश्विक कंपनियां सम्मिलित हैं, उससे पूरी दुनिया में एक पर्यावरणीय असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हुई है। इस असंतुलन से केवल पर्यावरण की ही क्षति नहीं हो रही, बल्कि यह सामाजिक संरचना के भीतर भी भीषण रूपांतरण ला रहा है, जो मानवीय जीवन में असुरक्षा और अनिश्चितता का बड़ा कारण बन रहा है।

आपदाओं के परिणामों की बात करते समय हम सामान्यतः इसके भौतिक नुकसानों पर ही अधिक बल देते हैं — जैसे कितने लोगों की मृत्यु हुई, कितनी सड़कें या इमारतें ध्वस्त हुईं, या कितनी संपत्तियों का नुकसान हुआ। यह आपदा से हुए नुकसान का भौतिक पक्ष है, जो दिखाई देता है, लेकिन आपदाओं से होने वाली सांस्कृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक क्षति के प्रति हम अधिक सजग नहीं होते, जबकि यह नुकसान भी उतना ही अहम है जितना संपत्तियों या इमारतों का नुकसान।

यह समाज के भीतर एक बड़े उथल-पुथल को जन्म देता है, जिसे कोई भी सरकारी नीति आसानी से नहीं समझ पाती। पलायन, सामाजिक संस्थाओं का टूटना, लैंगिक विषमता, आर्थिक-सामाजिक शोषण में वृद्धि, पारंपरिक ज्ञान परंपरा का नुकसान, ऋणग्रस्तता, कुप्रथाओं का विकास — ये अनगिनत परिणाम हैं जिन पर अक्सर नीति-निर्माताओं का ध्यान नहीं जाता। वे आर्थिक सहायता से आपदाओं के नुकसानों की भरपाई करने का एक असफल प्रयास करते हैं, लेकिन ऐसे प्रयासों से आपदा के बाद अपेक्षित परिवर्तन नहीं होता। आपदाओं के साथ-साथ सरकारी राहत की नीतियाँ भी बिना किसी ठोस परिणाम के जारी रहती हैं।

हम यहां कुछ ऐसे मामले संक्षिप्त रूप में रख रहे हैं, जिन्हें हमने अपने अध्ययन और भ्रमण के दौरान देखा-समझा है, और जिन पर पर्याप्त शोध भी उपलब्ध है।

बिहार के बाढ़-ग्रस्त क्षेत्रों में कुछ ऐसे जिले हैं जहां बाढ़ ने लोगों की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था को इतना प्रभावित किया है कि कई लोग अपने घरों की बेटियों को बेचने पर बाध्य हो जाते हैं। बेटियों का विवाह करने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं होते कि वे विवाह का खर्च उठा सकें। साथ ही, चूंकि गांव के लोग पलायन कर चुके होते हैं, तो उनके जाति-समुदाय के लोगों की अनुपस्थिति भी उनके विवाह के पारंपरिक तौर-तरीकों और अवसरों को कमजोर कर देती है।

ऐसे में वे बाध्य होते हैं कि अपनी बेटियों को किसी व्यक्ति को पैसे के बदले बेच दें। बेटी बेचने की परंपरा भारत के कुछ समुदायों में परंपरा से देखने को मिलती है। निश्चय ही ऐसी कुप्रथाएँ आर्थिक विपन्नता के कारण भी उपजती हैं। कई शोधों से ऐसे मामलों के भी प्रमाण मिलते हैं जब बाढ़-ग्रस्त क्षेत्रों में लड़कियों को देह व्यापार में लगा दिया गया।

यह जानना अजीब लग सकता है कि आपदाएं सामाजिक और आर्थिक विभेद की खाई को न केवल उत्पन्न करती हैं, बल्कि पहले से मौजूद उस विभेद को और मजबूत भी करती हैं। बहराइच के एक बाढ़-ग्रस्त क्षेत्र में हमने देखा कि जब बाढ़ आती है तो यह किसानों की खेती की ज़मीन को कटान में मिला देती है, जिससे बाढ़ के बाद यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि कौन-सी ज़मीन किसकी है। ऐसे में समाज में पहले से ही शक्तिशाली समुदाय अपनी जातीय और वर्गीय शक्ति के माध्यम से उन ज़मीनों पर भी अधिकार कर लेते हैं जो उनकी होती ही नहीं। इस प्रकार बड़े किसान और बड़े बन जाते हैं, और छोटे किसान भूमिहीन होकर या तो दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं या फिर अपना गाँव-देश छोड़कर बाहर चले जाते हैं।

जब बाढ़ से किसानों की खेती का नुकसान होता है, तो वे इससे उबरने के लिए कई बार सेठ-साहूकारों से ऋण लेते हैं। ऋण की दर इतनी अधिक होती है कि उसे चुकता न कर पाने की स्थिति में उन्हें कई तरह के शोषण का सामना करना पड़ता है। बाढ़-ग्रस्त क्षेत्रों में सूदखोरी की व्यवस्था भी तेजी से विकसित हुई है। समाज का साधन-संपन्न वर्ग अब इसे एक अतिरिक्त आय के स्रोत के रूप में देखने लगा है और सूद पर किसानों व मजदूरों को पैसे देता है। अनगिनत ऐसे मामले सामने आए हैं जब सूद की राशि के बदले किसानों की ज़मीन जबरन लिखवा ली जाती है।

गाँव केवल लोगों का एक पारंपरिक समूह नहीं होता, बल्कि यह एक ऐसा समुदाय भी होता है जिसके पास अपनी एक विशिष्ट ज्ञान-विज्ञान की परंपरा होती है। इन पारंपरिक ज्ञानों से वे अपनी आजीविका इस प्रकार चलाते हैं जो धारणीयता के मूल्यों को समाहित किए होती है। जैसे, बहराइच में एक बुजुर्ग ने बताया कि वह अपनी आजीविका के लिए बांस, जंगली लताएँ, फूस, घास आदि पर निर्भर था, लेकिन अब यह संभव नहीं है क्योंकि लगातार आने वाली बाढ़ों ने इन वनस्पतियों को भी विलुप्त कर दिया है। इसके साथ ही नई पीढ़ी ऐसी वनस्पतियों से न केवल अनजान हो गई है, बल्कि उससे जुड़ी कला और आजीविका के पक्षों से भी वंचित हो गई है। यह एक तरह से एक विशेष ज्ञान-विज्ञान का अंत है।

आपदाएँ सामाजिक मनोविज्ञान को भी बुरी तरह से प्रभावित करती हैं। कमजोर मनोबल के साथ वे अपना भविष्य तय नहीं कर पाते। उन क्षेत्रों में जहां आपदाएँ वार्षिक तौर पर आती हैं, वहां लोग कुछ भी स्थायी रूप से नहीं बना पाते — न घर, न रोजगार, न शिक्षा, न नातेदारी। आपदाएँ ऐसी सामाजिक अनियमितता को जन्म देती हैं जहां संभावनाएँ समाप्त हो जाती हैं।

भारत में दुर्भाग्यवश आपदाओं से निपटने के जो तरीके अपनाए जाते हैं वे अधिकतर तकनीकी और नौकरशाही आधारित होते हैं, जिसके चलते वे सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत नहीं कर पाते। आपदा के परिणाम बहुआयामी हैं, इसलिए इससे निपटने के लिए भी बहुआयामी दृष्टिकोण से ही विमर्श किया जाना चाहिए। यह आवश्यक है कि आपदाओं से संबंधित नीति निर्माण के समय सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन से जुड़े विशेषज्ञों की भी पर्याप्त सहायता ली जाए। साहित्य, दर्शन, कला, समाजविज्ञान, और प्राकृतिक विज्ञान — इन सभी माध्यमों से विचार कर ही हम इस आपदाग्रस्त सभ्यता में नवजीवन की उम्मीद पैदा कर सकते हैं।

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