“इस प्लास्टिक के टैंट में दिन भर हमें 40 डिग्री तापमान झेलना पड़ता है, ऐसे में पढ़ाई नहीं हो सकती है। रात बाहर बजे के बाद जब तापमान कम होता है, तब हम पढ़ पाते हैं।“ अंकुर मंडल युवा हैं, सीए की तैयारी कर रहे हैं। वे पिछले एक साल से बिहार के मधुबनी जिले के अपने गांव नरुआर में टैंट में रह रहे हैं। पिछले साल 14 जुलाई को कमला नदी में आई बाढ़ में उनका मकान ध्वस्त हो गया, जहां मकान था, वहां अभी भी पानी जमा हुआ है। ऐसे में उनके पास जल संसाधन विभाग के कार्यालय परिसर में टैंट लगाकर रहने के सिवा कोई चारा नहीं है।
अंकुर मंडल की तरह इस गांव के कुल 59 परिवार इस कार्यालय परिसर में पिछले एक साल से प्लास्टिक के टैंटों में रह रहे हैं। पिछले साल उनकी बस्ती और उनके घरों को तबाह करने वाली कमला नदी की बाढ़ का पानी अभी तक उतरा नहीं है। उनके मकान मलबे में तब्दील हो चुके हैं। पिछले एक साल से उनका जीवन राहत शिविर में रहने वाले शरणार्थियों जैसा हो गया है। उन्हें उम्मीद भी नहीं है कि कब वे फिर से सामान्य घरों में रह पायेंगे।
यह कहानी उस बिहार राज्य की है, जहां हर साल बारिश के महीनों में बाढ़ आती है और राज्य के बाढ़ प्रभावित 28 जिलों के लोग आशंकाओं से घिर जाते हैं। इस साल भी सरकार ने बाढ़ से बचाव की तैयारियां पूरी करने का दावा किया है और पिछले हफ्ते राज्य के मुख्य सचिव दीपक कुमार ने यह भी कहा है कि इस बार के राहत शिविर खास तरीके के होंगे। वहां सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखा जायेगा, लोगों को राहत सामग्री के साथ मास्क और सेनिटाइजर भी बांटा जाएगा। मगर इस बीच किसी सरकारी अमले का ध्यान नरुआर गांव के इस राहत शिविर नुमा कैंप पर नहीं है, जो पिछले एक साल से टेंटों में हैं। इसी हालत में उन्होंने कोरोना और लॉक डाउन को भी झेल लिया। इतनी ही भीड़-भाड़ में बिना मास्क और सेनीटाइजर के।
उस कैंप में प्लास्टिक के छोटे से टैंट में पांच से दस लोगों का परिवार किसी तरह रहता है। वहां रह रहे कामेश्वर मंडल कहते हैं, थोड़ी सी बारिश में यहां पानी जमा हो जाता है और हमें अपनी चौकियों पर सिकुड़कर बैठे रहना पड़ता है। फिर सांप, बिच्छू और कीड़े मकोड़ों की भरमार हो जाती है। प्लास्टिक की वजह से गर्मी इतनी पड़ती है कि लगता है किसी चूल्हे पर सीझ रहे हैं।
आम दिनों में पुरुषों से लिए समय काटना थोड़ा आसान होता है, वे बाहर भी निकल जाते हैं। सबसे अधिक मुसीबत वहां रह रही महिलाओं को होती है। उस टोले की वार्ड सदस्य कुसुम देवी औरतों की समस्या का उल्लेख करते हुए कहती है कि जवान युवतियों को भी शौच के लिए बाहर जाना पड़ता है। यहां पहले चार अस्थायी शौचालय बने थे, मगर उनकी टंकियां भर गयी हैं।
स्कूल दूर रहने की वजह से कैंप में रहने वाले बच्चों की पढ़ाई छूट गयी है। पहले सरकार की तरफ से एक शिक्षक की व्यवस्था की गयी थी कि वह यहां आकर बच्चों को पढ़ाया करेंगे। मगर एक माह पढ़ाने के बाद उन्होंने आना बंद कर दिया। अब इन बच्चों को अंकुर मंडल और उनके भाई जैसे पढ़े-लिखे युवा पढ़ाते हैं।
अब यह लगभग तय है कि इनकी बस्तियों से बाढ़ का पानी नहीं उतरेगा, इनके मकान ध्वस हो चुके हैं। ऐसे में सरकार इनके पुनर्वास के लिए क्या सोच रही है। इस सवाल पर कामेश्वर मंडल कहते हैं, चार महीने पहले सरकार की तरफ से जमीन के पट्टे का कागज दिया गया था। यह कहा गया था कि अगले 15 दिनों में उन्हें जमीन मिल जायेगी। मगर सरकार अब तक उनके रहने के लिए जमीन का इंतजाम नहीं कर पायी है।
वे कहते हैं, हमलोग तो जमीन की आस में ही इन कैंपों में रह रहे हैं। नहीं तो सपरिवार दिल्ली या किसी और महानगर की तरफ पलायन कर जाते। वहीं मेहनत मजदूरी करके गुजारा करते।
उस इलाके के रहने वाले साहित्यकार और समाजसेवी ईशनाथ झा कहते हैं, नरुआर गांव के इन लोगों के हालात से आप बिहार सरकार की बाढ़ की तैयारियों का अनुमान लगा सकते हैं। वे कहते हैं कि जहां पिछले वर्ष तटबंध टूटा था, उस जगह के मरम्मत का काम भी अभी तक पूरा नहीं हो पाया है।
विदित हो कि बिहार सरकार हर साल अप्रैल महीने में सभी बाढ़ प्रभावित जिलों के नाम एक चिट्ठी जारी करती है और मई महीने के आखिर तक तटबंधों को सुरक्षित करने और बाढ़ आने की स्थिति में लोगों के बचाव और राहत की तैयारी कर लेने के निर्देश जारी करती है। मगर नरुआर की स्थिति से यह जाहिर है कि इस पत्र को प्रशासन के लोग कभी गंभीरता से नहीं लेते। दोबारा बाढ़ आने पर ही सरकार सजग होती है।