रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, राजौरी, त्रिशूर, पुलवामा में है भूस्खलन का सबसे ज्यादा खतरा: इसरो

1988 से 2022 के बीच भूस्खलन की सबसे ज्यादा 12,385 घटनाएं मिजोरम में दर्ज की गई हैं। इसके बाद उत्तराखंड में 11,219, त्रिपुरा में 8,070 घटनाएं दर्ज की गई थी।
रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, राजौरी, त्रिशूर, पुलवामा में है भूस्खलन का सबसे ज्यादा खतरा: इसरो
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उत्तराखंड में जमीन धंसने का सिलसिला अभी थमा भी नहीं है कि इस बीच सरकारी एजेंसी द्वारा जारी नई रिपोर्ट ने हलचलें बढ़ा दी हैं। रिपोर्ट से पता चला है कि देश में रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, राजौरी, त्रिशूर, पुलवामा, पलक्कड़, मालाप्पुरम, दक्षिण सिक्किम, पूर्वी सिक्किम और कोझिकोड में भूस्खलन का खतरा सबसे ज्यादा है। ये जिले उत्तराखंड, केरल, जम्मू कश्मीर और सिक्किम राज्य में हैं।

रिपोर्ट भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा द्वारा जारी की गई है। “लैंडस्लाइड एटलस ऑफ इंडिया 2023” नामक इस रिपोर्ट से पता चला है कि देश के 147 भूस्खलन प्रभावित जिलों में से 64 पूर्वोत्तर के हैं।

इसरो ने अपनी इस एटलस में हिमालय से लेकर पश्चिमी घाट तक देश के 17 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों को भूस्खलन-संवेदनशील क्षेत्रों में शामिल किया है। इनमें उत्तराखंड के दो जिले रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल सबसे ऊपर हैं। यह एटलस उपग्रह से लिए चित्रों पर आधारित है।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा यह एटलस 1988 से 2022 के बीच रिकॉर्ड किए गए 80,933 भूस्खलनों के आधार तैयार की गई है। इनके आधार पर ही इन जिलों पर मंडराते जोखिम का आंकलन किया गया है। विश्लेषण से पता चला है कि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में भूस्खलन का जोखिम सबसे ज्यादा है।

गौरतलब है कि जोशीमठ सहित उत्तराखंड के अलग-अलग इलाकों में जमीन दरकने के कई मामले सामने आ चुके हैं। 29 जून, 2022 को मणिपुर के नोनी जिले में भूस्खलन की ऐसी ही एक घटना में कम से कम 79 लोगों की मौत हो गई थी।

रिपोर्ट में जोखिम का यह विश्लेषण इंसान और पशुधन की जनसंख्या के घनत्व पर आधारित था, जो इन भूस्खलनों के कारण लोगों पर पड़ने वाले प्रभावों को इंगित करता है। इस एटलस में 2013 में आई केदारनाथ आपदा और 2011 में सिक्किम में आए विनाशकारी भूकंप के कारण हुए भूस्खलन जैसी आपदाओं को शामिल किया है।

रिपोर्ट में जोखिम का यह विश्लेषण इंसान और पशुधन की जनसंख्या के घनत्व पर आधारित था, जो इन भूस्खलनों के कारण लोगों पर पड़ने वाले प्रभावों को इंगित करता है। इस एटलस में 2013 में आई केदारनाथ आपदा और 2011 में सिक्किम में आए विनाशकारी भूकंप के कारण हुए भूस्खलन जैसी आपदाओं को शामिल किया है।

मिजोरम में की गई हैं भूस्खलन की सबसे ज्यादा 12,385 घटनाएं दर्ज

पता चला है कि 1988 से 2022 के बीच भूस्खलन की सबसे ज्यादा 12,385 घटनाएं मिजोरम में दर्ज की गई हैं। इसके बाद उत्तराखंड में 11,219, त्रिपुरा में 8,070, अरुणाचल प्रदेश में 7,689, जम्मू और कश्मीर में 7,280, केरल में 6,039 और मणिपुर में 5,494, जबकि महाराष्ट्र में भूस्खलन की 5,112 घटनाएं दर्ज की गई थी।

वैश्विक स्तर पर देखें तो प्राकृतिक आपदाओं में होने वाली मौतों के मामले में भूस्खलन तीसरे स्थान पर है। वैसे तो यह के प्राकृतिक आपदा है लेकिन जिस तरह से इंसान की बढ़ती लालसा के चलते जंगलों का विनाश हो रहा है और बेतरतीब तरीके से विकास किया जा रहा है वो इसको और बढ़ा रहा है। पता चला है कि 2006 में करीब 40 लाख लोग इससे प्रभावित हुए थे, जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय भी शामिल थे।

देखा जाए तो भारत उन चार प्रमुख देशों में शामिल है, जहां भूस्खलन का खतरा सबसे ज्यादा है। यदि आंकड़ों को देखें तो देश में करीब 4.2 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर भूस्खलन का खतरा मंडरा रहा है, जोकि देश के कुल भू-क्षेत्र का 12.6 फीसदी हिस्सा है। हालांकि इसमें बर्फ से ढंके क्षेत्र क्षेत्र शामिल नहीं हैं।

पता चला है कि इसमें से 1.8 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय के उत्तर पूर्व हिमालय में पड़ता है। वहीं 1.4 लाख वर्ग किलोमीटर हिस्सा उत्तर पश्चिम हिमालय (उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर) में पड़ता है। साथ ही पश्चिमी घाट और कोंकण पहाड़ियों (तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र) में 90 हजार वर्ग किलोमीटर और आंध्र प्रदेश के अरुकु क्षेत्र के पूर्वी घाट में 10,000 वर्ग किलोमीटर भूस्खलन संभावित क्षेत्र है। 

देखा जाए तो भूस्खलन प्राकृतिक आपदा है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु में आते बदलावों के चलते अकस्मात होती भारी बारिश भी भूस्खलन को बढ़ा रही है। पता चला है कि हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन की 73 फीसदी घटनाओं के लिए भारी बारिश और जमीन की पानी को सोखने की घटती क्षमता जिम्मेवार है।

दिल्ली में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान द्वारा 2020 में किए एक अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के कारण भारी वर्षा हो रही है जो ढीली मिट्टी के साथ खड़ी ढलानों को नष्ट कर रही है।

देखा जाए तो कहीं न कहीं इन आपदाओं को हम इंसानों ने ही न्यौता दिया है, जिस तरह से हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में अनियंत्रित विकास हो रहा है वो इस क्षेत्र को विनाश की ओर ले जा रहा है। ऐसे में इन आपदाओं के लिए हम केवल प्रकृति को जिम्मेवार नहीं ठहरा सकते।

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