
हिमाचल प्रदेश का 45 फीसदी से अधिक क्षेत्र बाढ़, भूस्खलन और हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), रोपड़ के शोधकर्ताओं के अध्ययन में यह बात सामने आई है।
टीम ने हाल ही में हिमालयी राज्यों में कई तरह के प्राकृतिक खतरों का आकलन किया है। उन्होंने पूरे राज्य में खतरे का मानचित्रण भी किया है। इसका लक्ष्य अधिक खतरों वाले इलाकों की पहचान करना और आपदा के खतरों को कम करने की रणनीतियों में सहायता करना है।
इस अध्ययन की अगुवाई आईआईटी रोपड़ में एसोसिएट प्रोफेसर रीत कमल तिवारी द्वारा की गई है। अध्ययन में हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक खतरों के प्रति मूल्यांकन करने के लिए स्थानीय आंकड़ों का उपयोग किया गया है।
अध्ययन में ज्योग्राफिकल इन्फॉर्मेशन सिस्टम (जीआईएस) आधारित मैपिंग का इस्तेमाल किया गया। इस तकनीक से भूमि, पानी, और अन्य प्राकृतिक चीजों के बारे में जानकारी एकत्रित करके नक्शे बनाए जाते हैं। अध्ययन में नक्शे दिखाते हैं कि बाढ़ और भूस्खलन वाले इलाके आमतौर पर निचली ऊंचाई वाली नदी घाटियों में होते हैं, जबकि ऊंचे पहाड़ों पर हिमस्खलन का खतरा अधिक होता है।
क्या कहता है अध्ययन?
स्प्रिंगर नेचर लिंक नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में कहा गया है कि 5.9 डिग्री और 16.4 डिग्री के बीच औसत ढलान वाले क्षेत्र और 1,600 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्र विशेष रूप से भूस्खलन और बाढ़ दोनों के लिए प्रवण हैं। इस बीच 16.8 डिग्री और 41.5 डिग्री के बीच ढलान वाले भारी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में हिमस्खलन और भूस्खलन दोनों होने की अधिक आसार हैं।
कहां सबसे ज्यादा खतरा?
शोध के मुताबिक खड़ी पहाड़ी ढलान और 3,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्र सबसे अधिक खतरे में हैं। जीआईएस-आधारित मानचित्रण का उपयोग करते हुए, अध्ययन ने खतरे-प्रवण क्षेत्रों को वर्गीकृत किया, जिसमें दिखाया गया कि बाढ़ और भूस्खलन-प्रवण क्षेत्र आमतौर पर निचली-ऊंचाई वाली नदी घाटियों में होते हैं, जबकि बहुत ज्यादा ऊंचाई वाले पहाड़ों में हिमस्खलन का अधिक खतरा होता है।
अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया कि किस प्रकार एक खतरा, आंतरिक कारणों के कारण, दूसरे को भी जन्म दे सकता है तथा इस बात पर बल दिया गया कि आपदा नियोजन और खतरे के प्रबंधन में सुधार के लिए यह जानकारी होना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर तथा पूर्वोत्तर राज्यों में कई तरह के प्राकृतिक खतरों की संवेदनशीलता का आकलन करने के लिए अध्ययन किए जा रहे हैं।