केरल के वायनाड जिले में 30 जुलाई की रात को हुए कई बड़े भूस्खलन ने चूरालमाला और मुंडक्काई इलाकों (मेप्पाड़ी ग्राम पंचायत के वार्ड) को राज्य के नक्शे से ही मिटा दिया। एक हफ्ते बाद भी 6 अगस्त को 2,000 लोगों की एक बड़ी बचाव टीम मिट्टी की मोटी परतों के नीचे दबे हुए शवों को निकाल रही थी। हादसे में करीब 400 लोगों की मौत हो चुकी है।
3,000 से ज्यादा बेघर लोगों को अस्थायी अस्पतालों और शिविरों में रखा गया है। जिला प्रशासन के मुताबिक, 17 अगस्त तक 119 लोग लापता थे। यह हाल के समय में केरल में आई सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में से एक है। बचाव दल का कहना है कि पश्चिमी घाट की पहाड़ियों के खूबसूरत गांव “कीचड़ के टीले” में तब्दील हो चुके हैं।
आपदा आने से ठीक एक दिन पहले वायनाड में अभूतपूर्व बारिश हुई थी। जिले की सालाना औसत का लगभग 6 प्रतिशत बारिश महज एक दिन में बरस गई। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक, केरल का करीब 40 प्रतिशत हिस्सा भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील है।
इसमें मुंडक्काई भी शामिल है। इसलिए 29 जुलाई को कुछ परिवार भूस्खलन की आशंका को देखते हुए शेल्टर हाउस चले गए थे। लेकिन चूरालमाला को आधिकारिक तौर पर भूस्खलन वाला गांव नहीं घोषित किया गया था, इसलिए वहां से कोई भी अपना घर छोड़कर जाने की जहमत नहीं उठाता था।
30 जुलाई की रात 1 बजे मुंडक्काई में भूस्खलन हुआ। करीब 4 बजे एक दूसरी घटना ने इरुवाझिंजी नदी को ब्लॉक कर दिया, जिससे उसका रास्ता बदल गया और उसके नए रास्ते में चूरालमाला आया और बह गया। भारी बारिश से भूस्खलन इतना भीषण था कि 200 से ज्यादा शव चालीयार नदी में करीब 40 किलोमीटर दूर मिले (देखें, जानलेवा तबाही,)।
क्या इन जानों को बचाया जा सकता था? क्या नुकसान को कम किया जा सकता था? जल्दी से लोगों को सुरक्षित जगह पर पहुंचाना मददगार हो सकता था, लेकिन किसी भी इलाके में किसी भी समय भूस्खलन होने की संभावना का पहले से पता लगाने वाली शुरुआती चेतावनी प्रणाली यानी अर्ली वॉर्निंग सिस्टम (ईडब्ल्यूएस) भारत में अभी भी प्रयोग के स्तर पर है।
ऐसा तब है जबकि भारत, “लैंडस्लाइड एटलस ऑफ इंडिया” के मुताबिक, सबसे ज्यादा जोखिम वाले दुनिया के शीर्ष चार देशों में से एक है। दुनियाभर में बारिश से होने वाले भूस्खलन का 16 प्रतिशत तो सिर्फ भारत में होता है।
वायनाड में त्रासदी आने से मुश्किल से दो हफ्ते पहले 19 जुलाई को भारत ने अपना पहला भूस्खलन ईडब्ल्यूएस शुरू किया था। केंद्रीय कोयला और खान मंत्री जी. किशन रेड्डी ने कोलकाता में नेशनल लैंडस्लाइड फोरकास्टिंग सेंटर (एनएलएफसी) का उद्घाटन किया और कहा कि देश के सभी भूस्खलन संभावित क्षेत्रों में 2030 तक ऐसे ही पूर्वानुमान केंद्र होंगे।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) के तहत स्थापित एनएलएफसी ने 23 जुलाई से तीन क्षेत्रों- पश्चिम बंगाल के कालिम्पोंग और दार्जिलिंग जिलों के अलावा तमिलनाडु के नीलगिरी जिले के लिए दैनिक पूर्वानुमान बुलेटिन जारी करना शुरू कर दिया है। यह हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल के 13 अन्य भूस्खलन संभावित जिलों के लिए भी पूर्वानुमान बुलेटिन जारी कर रहा है, लेकिन प्रयोग के तौर पर।
जीएसआई के उप महानिदेशक साईबल घोष ने डाउन टू अर्थ को बताया, “इन प्रयोगात्मक पूर्वानुमान बुलेटिन को जनता के साथ साझा नहीं किया जाना है क्योंकि हम अभी भी आपदा प्रबंधन अधिकारियों द्वारा साझा किए गए इनपुट और फीडबैक के साथ मॉडल को अंतिम रूप दे रहे हैं।” उन्होंने कहा कि भूस्खलन जटिल घटनाएं हैं और भारत ने अभी-अभी इस क्षेत्र में कदम रखा है।
कई कारक
भूस्खलन की भविष्यवाणी करने का विचार 1970 के दशक से ही है, जब शोधकर्ताओं ने बारिश और भूस्खलन के बीच संबंध पाया था। पहला क्षेत्रीय भूस्खलन ईडब्ल्यूएस 1977 में हांगकांग में स्थापित किया गया था, जो भारत की तरह ही अधिक बारिश से होने वाले भूस्खलन का गवाह है। तब से अमेरिका, कनाडा, ब्राजील, कोलंबिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, ताइवान, इटली, स्कॉटलैंड, नॉर्वे, सेंट्रल अमेरिका व कैरिबियन और इंडोनेशिया में भूस्खलन ईडब्ल्यूएस स्थापित किए गए हैं।
इटली में नेशनल रिसर्च काउंसिल के अनुसंधान निदेशक फॉस्टो गुजेट्टी कहते हैं, “पिछले तीन या चार दशकों में भूस्खलन की भविष्यवाणी करने की हमारी क्षमता में काफी सुधार हुआ है और यह लगातार जारी है।” गुजेट्टी उन अग्रदूतों में से हैं जिन्होंने भूस्खलन की भविष्यवाणी पर काम किया है। फिर भी, दुनिया भर में केवल कुछ ही ईडब्ल्यूएस हैं जो सुचारू ढंग से काम कर रहे हैं। फ्रंटियर्स अर्थ साइंसेज में 2020 के एक पेपर में बताया गया है कि ज्यादातर भूस्खलन ईडब्ल्यूएस उन जगहों पर काम नहीं करते हैं जहां अधिकांश घातक भूस्खलन होते हैं और आबादी को खतरा अधिक होता है।
समस्या यह है कि अन्य प्राकृतिक खतरों के उलट भूस्खलन में कई ट्रिगर शामिल होते हैं- भूवैज्ञानिक से लेकर मौसम विज्ञान तक और मानवजनित तक। उदाहरण के लिए, बारिश या बर्फ पिघलने के मामले में पानी मिट्टी में घुस जाता है और मिट्टी, रेत, बजरी या चट्टान के बीच की जगह भर देता है। इससे मिट्टी की मजबूती कम हो जाती है और भूस्खलन होता है।
इंग्लैंड के डरहम विश्वविद्यालय में प्राकृतिक और पर्यावरणीय खतरों के प्रोफेसर ब्रूस मालामुद बताते हैं, “कल्पना कीजिए कि रेत के दानों के बीच पानी की एक पतली परत डाली जाए तो क्या होगा? इससे रेत के एक दाने के दूसरे पर बहने की अधिक संभावना होगी।” अन्य ट्रिगर में भूकंप के झटके, ज्वालामुखी विस्फोट और निर्माण कार्य, कानूनी और अवैध खनन, पहाड़ियों की अनियंत्रित कटाई और खराब जल निकासी जैसी मानवीय गतिविधियों से पैदा हुईं गड़बड़ी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली चरम घटनाएं भी ट्रिगर की सूची में शामिल हो रही हैं।
हालांकि शुरुआत धीमी है, लेकिन जीएसआई ने बारिश से होने वाले भूस्खलन की भविष्यवाणी करने के लिए अपने ईडब्ल्यूएस को सावधानीपूर्वक डिजाइन किया है। इसने 2014-15 में शुरू किए गए राष्ट्रीय भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्रण कार्यक्रम के तहत देश के लिए पहले से ही एक संवेदनशीलता मानचित्र विकसित किया है। यह मानचित्र स्थानीय इलाके, ढलान के स्तर, मिट्टी और वनस्पति के प्रकार, पर्यावरणीय स्थितियों और सड़कों और इमारतों जैसे बुनियादी ढांचे की उपस्थिति को ध्यान में रखते हुए किसी क्षेत्र में भूस्खलन की संभावना का अनुमान लगाता है।
मानचित्र ने मुंडक्काई जैसे भूस्खलन की आशंका वाले क्षेत्रों की पहचान की है और अनुमान लगाया है कि 4.2 लाख वर्ग किमी या 12.6 प्रतिशत भूभाग (बर्फ से ढके क्षेत्र को छोड़कर) आपदा के लिहाज से संवेदनशील है। इतने विशाल क्षेत्र में भूस्खलन का खतरा है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे सबसे उत्तरी हिमालयी राज्य पारिस्थितिकी के लिहाज से नाजुक हिमालय में अपने स्थान के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
हालांकि, पश्चिमी घाट, विशेष रूप से केरल में हिमालयी क्षेत्रों की तुलना में कम भूस्खलन का अनुभव होने के बावजूद उच्च जनसंख्या और आवास के कारण ज्यादा जोखिम वाला क्षेत्र है। यह मानचित्र दिखाता है। जीएसआई के वैज्ञानिकों का कहना है कि इस डेटाबेस को लगातार अपडेट किया जाएगा और इसका उपयोग पूर्वानुमान बनाने के लिए आधार मानचित्र के रूप में किया जाएगा।
अगला कदम एक पूर्वानुमान मॉडल तैयार करना था, जिसके लिए 2016 और 2021 के बीच, जीएसआई लैंडस्लिप प्रोजेक्ट (लैंडस्लाइड मल्टी-हजार्ड रिस्क असेसमेंट, प्रिपेयरनेस एंड अर्ली वार्निंग इन साउथ एशिया) नाम के एक अंतरराष्ट्रीय संघ में शामिल हुआ, जो प्रोटोटाइप विकसित करने के लिए था। घोष के अनुसार, दार्जिलिंग और नीलगिरी के लिए प्रोटोटाइप तैयार किए गए थे, जो बारिश से होने वाले भूस्खलन के कारण जान के नुकसान और बड़े पैमाने पर सामाजिक-आर्थिक प्रभावों से पीड़ित हैं। इन प्रोटोटाइप का उपयोग अब एनएलएफसी द्वारा जिलों के लिए लाइव पूर्वानुमान जारी करने के लिए किया जा रहा है।
ये मॉडल 24-48 घंटे पहले जारी किए गए अल्पकालिक पूर्वानुमान और 10 दिन पहले जारी किए गए मध्यम अवधि के पूर्वानुमान दोनों को रिले करने में सक्षम हैं। अल्पकालिक पूर्वानुमान के लिए, मॉडल ऐतिहासिक और हाल के आंकड़ों का उपयोग करके वर्षा सीमा का अनुमान लगाता है।
इसका अर्थ है किसी विशेष क्षेत्र में भूस्खलन शुरू करने की संभावना वाली बारिश की मात्रा का पूर्वानुमान। मध्यम अवधि के पूर्वानुमानों के लिए, जो 10 दिन पहले अलर्ट जारी कर सकते हैं, वैज्ञानिकों ने 30 मौसम पैटर्न से संबंधित डेटा को संवेदनशीलता मानचित्रों के साथ एकीकृत किया है। ये मौसम पैटर्न पूरे वर्ष होने वाले सभी मुख्य मॉनसून और गैर-मानसूनी सर्कुलेशन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
दार्जिलिंग-सिक्किम हिमालय में भूस्खलन के बारे में जागरुकता फैलाने वाले कलिम्पोंग स्थित गैर-लाभकारी संगठन सेव द हिल्स के अध्यक्ष प्रफुल राव बताते हैं कि प्रोटोटाइप के विकास के दौरान, वैज्ञानिकों ने उन जगहों के विवरण के लिए जमीनी स्तर के संगठनों को भी शामिल किया था जहां भूस्खलन हुए थे। घोष कहते हैं, “हम देखते हैं कि हमें भविष्य में लगातार नए डेटा मिलेंगे। जनता से मिले आंकड़ों और प्रतिक्रिया के आधार पर अन्य देशों में प्रचलित सर्वोत्तम प्रथाओं का पालन करते हुए सिस्टम को ठीक किया जाएगा।”
सटीक पूर्वानुमान
जीएसआई द्वारा शुरू किए जा रहे ईडब्ल्यूएस व्यापक क्षेत्रों को कवर करते हैं। इसलिए, कई विज्ञान संस्थान और शोधकर्ता ऐसे मॉडल पर काम कर रहे हैं जो साइट-विशिष्ट अलर्ट जारी कर सकते हैं। ये मॉडल किसी स्थान विशेष में भूस्खलन का पूर्वानुमान कर सकते हैं।
ऐसा ही एक समूह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मंडी द्वारा चलाया जा रहा एक स्टार्टअप है। इसने अब तक हिमाचल प्रदेश के मंडी, किन्नौर और कांगड़ा में बारिश, मिट्टी की नमी और आर्द्रता को मापने के लिए 60 सेंसर स्थापित किए हैं। आईआईटी, मंडी के एसोसिएट प्रोफेसर और स्टार्टअप के सह-संस्थापक कला वेंकटा उदय का दावा है कि हालांकि अब केवल 45 सेंसर ही काम कर रहे हैं, लेकिन हमारे द्वारा विकसित की गई प्रणाली तीन घंटे पहले 99 प्रतिशत की सटीकता के साथ भूस्खलन की भविष्यवाणी कर सकती है। 24 घंटे के अग्रिम पूर्वानुमान के लिए, सटीकता स्तर गिरकर 90-92 प्रतिशत हो जाता है। भूमि की गतिविधि के मामले में टीम आसपास रहने वाले लोगों को टेक्स्ट संदेशों के माध्यम से अलर्ट जारी करती है और यातायात संकेतों के माध्यम से वाहनों की आवाजाही की चेतावनी देती है।
उदय बताते हैं, “भूस्खलन एक दिन की घटना नहीं होती, जब तक कि यह विस्फोट के कारण अचानक चट्टान गिरना न हो। वे समय के साथ जमा होते हैं, हफ्तों से लेकर महीनों और सालों तक। घटना घटने से पहले जमीन पर तीव्र गतिविधि होती है।” सेंसरों ने पांच साल से अधिक का डेटा इकट्ठा किया है। उदय को अब पता है कि मिट्टी में किस तरह की गतिविधियां उत्पन्न हो रही हैं और कौन से ढलान तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। उनका कहना है कि इन आंकड़ों को तापमान, बारिश और मिट्टी की नमी के आंकड़ों के साथ मिलाकर भविष्यवाणी में सुधार किया जा सकता है।
अमृता विश्व विद्यापीठम, कोल्लम, केरल के शोधकर्ताओं ने भूस्खलन का पता लगाने के लिए एक रियल टाइम वायरलेस सेंसर नेटवर्क भी विकसित किया है और इसे इडुक्की जिले के मुन्नार में एक पहाड़ पर तैनात किया है, जो 2.8 हेक्टेयर में फैला है। जुलाई 2009 में इस प्रणाली ने मूसलाधार बारिश के दौरान मिट्टी की गतिविधि पर डेटा की निगरानी के बाद एक संभावित भूस्खलन की सफलतापूर्वक चेतावनी दी थी।
2024 में आईआईटी रुड़की के वैज्ञानिकों ने “नेचुरल हैजर्ड्स एंड अर्थ सिस्टम साइंसेज” में एक नए मॉडल पर एक अध्ययन प्रकाशित किया है जो मलबे के प्रवाह की भविष्यवाणी करता है। मलबे का प्रवाह एक प्रकार का तेज गति से चलने वाला भूस्खलन है जो जीवन और संपत्ति के लिए खतरनाक है। अमेरिकी भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, मलबे का प्रवाह 56 किलोमीटर प्रति घंटे से अधिक की गति से बढ़ सकता है। वायनाड और 2013 में केदारनाथ में हुए भूस्खलन बड़े पैमाने पर मलबे के प्रवाह के कुछ उदाहरण हैं।
चूंकि देश में मलबे के प्रवाह को शुरू करने वाली बारिश की तीव्रता के ऐतिहासिक रिकॉर्ड सीमित हैं, इसलिए वैज्ञानिकों ने सिंथेटिक भूस्खलन बनाए हैं। आईआईटी रुड़की में “आपदा शमन और प्रबंधन में उत्कृष्टता केंद्र” (सेंटर ऑफ एक्सिलेंस इन डिजास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट) के फैकल्टी श्रीकृष्णन शिवा सुब्रमण्यन ने अध्ययन का नेतृत्व किया है। वह कहते हैं, “हमने इस आपदा को ट्रिगर कर सकने वाली स्थितियों के बारे में अधिक जानने के लिए विभिन्न मात्राओं की वर्षा के तहत भूस्खलन की घटनाओं का अध्ययन किया।”
शोधकर्ता इस बात पर ध्यान देते हैं कि मॉडल का उपयोग क्षेत्रीय ईडब्ल्यूएस की सटीकता में सुधार के लिए किया जा सकता है। अब वे पूरे राज्य में विस्तार करने से पहले मॉडल को उत्तराखंड के कुछ कैचमेंट में इस्तेमाल करने की योजना बना रहे हैं। वे कहते हैं, “अगर हमें मौका मिला तो हम इसे पश्चिमी घाट और भारत के अन्य भूस्खलन-संभावी क्षेत्रों तक बढ़ा सकते हैं।”
चाहे क्षेत्रीय हो या साइट-विशिष्ट आंकड़े, वैज्ञानिक मानते हैं कि ऐतिहासिक डेटा की कमी और अनियमित मौसम पैटर्न के कारण सटीक पूर्वानुमान करना एक चुनौती है। मालामुद कहते हैं, “एक भूस्खलन ईडब्ल्यूएस केवल उतना ही अच्छा रहेगा जितना अच्छा डेटा रहेगा।” उदाहरण के लिए, वैज्ञानिकों को चार मुख्य सवालों के जवाब चाहिए। जैसे भूस्खलन कहां और कब होते हैं, उनका आकार और प्रकार क्या है। इसके लिए पिछले और छोटे भूस्खलन या कम आबादी वाले क्षेत्रों में होने वाले भूस्खलन से संबंधित डेटा की जरूरत होती है। देश में ऐसी जानकारी कम है।
अन्य शोधकर्ता क्षेत्रीय पूर्वानुमान मॉडल की सटीकता में सुधार के लिए मशीन लर्निंग यानी एक प्रकार की कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) का इस्तेमाल करने का सुझाव देते हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी, सिडनी के प्रतिष्ठित प्रोफेसर बिस्वजीत प्रधान, व्याख्या योग्य एआई (जो बताता है कि एआई सिस्टम कैसे फैसला लेते हैं) को पूर्वानुमान मॉडल के साथ जोड़ने में संभावना देखते हैं। उन्होंने भूटान में एक अध्ययन के लिए पहले ही इस तरह के मॉडल का उपयोग किया है। यह संयोजन पारंपरिक मॉडल की तुलना में अधिक सटीक है। परिणाम जल्द ही प्रकाशित होने की उम्मीद है। अन्य शोधकर्ता साइट-विशिष्ट भूस्खलन पूर्वानुमान का सुझाव देते हैं। इसके लिए जमीन पर लगे सेंसर का इस्तेमाल करके अलग-अलग पहाड़ी ढलानों से डेटा जुटाने की जरूरत होगी। ये गैजेट मिट्टी की नमी, आर्द्रता और बारिश के साथ-साथ मिट्टी की गति का पता लगा सकते हैं।
हालांकि, घोष का कहना है कि सबसे बड़ी चुनौती शुरुआत से ही नागरिकों को शामिल करना है। इसका उद्देश्य अधिकतम परिणाम प्राप्त करने के लिए एक वास्तविक जन-केंद्रित भूस्खलन ईडब्ल्यूएस विकसित करना होना चाहिए।
विक्रम गुप्ता, प्रोफेसर, भूगर्भ विज्ञान विभाग, स्कूल ऑफ फीजिकल साइंसेज, सिक्किम यूनिवर्सिटी, गंगटोक
हर भूस्खलन अलग होता है, क्योंकि ये अलग-अलग ढलानों पर होते हैं। भूस्खलन की भविष्यवाणी करने की चुनौती यह है कि इसे समय पर किसी विशिष्ट स्थान पर पकड़ा जाए। एक शुरुआती चेतावनी प्रणाली हमें उस स्थान पर भूस्खलन के बारे में जानकारी देगी जहां इसे स्थापित किया गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम घटना की भविष्यवाणी कर पाएंगे। भारत में पहले से स्थापित शुरुआती चेतावनी प्रणालियां (ईडब्लूएस) आम तौर पर केवल बारिश के आधार पर भूस्खलन का अनुमान लगाती हैं। हम उस ढलान का पता नहीं लगा सकते जहां ये होंगे। इनमें से कुछ सिस्टम सेंसर पर आधारित होते हैं जो काफी सटीक होते हैं। लेकिन, इनमें से अधिकांश को उन क्षेत्रों में स्थापित किया गया है जो पहले से ही भूस्खलन के लिए जाने जाते हैं।
(विवेक मिश्रा से बातचीत पर आधारित)
बिस्वनाथ दास, असिस्टेंट प्रोफेसर, मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग, बिट्स पिलानी, हैदराबाद
हम जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश के पैटर्न में तेज बदलाव देख रहे हैं। इस बदलाव पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। वायनाड के मामले में हमें न केवल सटीक बारिश के पूर्वानुमान की आवश्यकता थी, बल्कि भूस्खलन और बाढ़ जैसे परिणामों के रियल टाइम विश्लेषण की भी जरूरत थी। इस प्रकार, हमें खतरे की चेतावनी देने वाली सेवाओं से परे ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है और एक बहु-खतरे वाली शुरुआती चेतावनी प्रणाली उपलब्ध कराने की जरूरत है। इसके अलावा, इस तरह के विश्लेषण को जमीनी स्तर के क्षेत्रीय डेटा द्वारा पुष्ट किया जाना चाहिए और स्थानीय प्रशासन और सामुदायिक स्वयंसेवकों की मदद से कार्रवाई की जानी चाहिए। पारंपरिक तीव्रता सीमा-आधारित दृष्टिकोण से ऐसी प्रणाली मूल्य श्रृंखला में अधिक ऊंची है, क्योंकि यह कमजोर आबादी के हित को डिजाइन की गई शुरुआती चेतावनी प्रणाली के केंद्र में रखती है।