हिमालयी इलाकों में भूकंप के सबसे अधिक खतरों का अंदेशा: पर्यावरण मंत्रालय

भूकंपीय खतरों के मूल्यांकन और भूकंप पूर्व अध्ययन के लिए उत्तर-पश्चिम और पूर्वोत्तर हिमालय में लगभग 70 ब्रॉडबैंड सीस्मोग्राफ स्टेशन काम कर रहे हैं
फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, दारियो सेवेरी
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भारत के हिमालयी इलाकों पर अक्सर भूकंप का खतरा बना रहता है, भूकंप आने से इन इलाकों में रहने वाले लोगों को भूस्खलन का सबसे अधिक सामना करना पड़ता है।     

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि, भारत के विभिन्न संगठन भूकंपीय इलाकों के मानचित्रण और उनके प्रभाव को कम करने के लिए देश भर में भूकंप के भारी खतरे वाले क्षेत्रों की पहचान के लिए लगातार निगरानी कर रहे हैं।

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र भारी भूकंपीय क्षमता वाले हिमालयी क्षेत्रों पर विशेष जोर देते हुए 24 घंटे हफ्ते में सातों दिन देश और उसके आसपास भूकंप की गतिविधि की निगरानी करता है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के तहत वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के पास भूकंप गतिविधियों की निगरानी, भूकंपीय खतरों के मूल्यांकन और भूकंप पूर्व अध्ययन के लिए उत्तर-पश्चिम और पूर्वोत्तर हिमालय में लगभग 70 ब्रॉडबैंड सीस्मोग्राफ स्टेशन काम कर रहे हैं।

भूकंप से भूस्खलन हो सकता है, मशीन लर्निंग एल्गोरिदम पर आधारित टेक्टोनिक गतिविधि को शामिल करके भूस्खलन की संवेदनशीलता और कमजोरी का मानचित्र भी तैयार किए गए हैं।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्व हिमालय के साथ-साथ भूस्खलन के प्रति संवेदनशील इलाकों का मानचित्रण किया है। इसरो ने क्रिस्टल विरूपण की प्रक्रिया की निगरानी के लिए हिमालयी इलाकों में 30 ग्लोबल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम आधारित लगातार चलने वाले स्टेशनों का एक नेटवर्क भी स्थापित किया है।

उपरोक्त के अलावा, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) ने देश के भूस्खलन की आशंका वाले क्षेत्रों में क्षेत्रीय सत्यापन के साथ शोध और विकास के अध्ययन किए हैं। जीएसआई ने प्लेट मूवमेंट की निगरानी करने और समरूपता में तनाव वाले क्षेत्रों के मानचित्रण करने के उद्देश्य से देश के विभिन्न हिस्सों में स्थायी ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) स्टेशन भी स्थापित किए हैं।

जीएसआई ने सीस्मो-जियोडेटिक डेटा रिसीविंग और प्रोसेसिंग सेंटर की स्थापना की है जो देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित रिमोट ब्रॉडबैंड सीस्मिक वेधशालाओं से वास्तविक समय सीस्मो-जियोडेटिक आंकड़े हासिल करता है और संसाधित करता है।

इन संगठनों द्वारा दर्ज की गई भूकंपीय गतिविधियों की जानकारी पहाड़ी क्षेत्रों की क्षेत्रीय विकासात्मक योजना और देश में भूकंपीय आपदाओं के प्रबंधन में उपयोग तथा आगे के शोध के लिए राज्य और केंद्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों सहित सभी हितधारकों तक पहुंचाई जाती है।

प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि, पर्वत श्रृंखलाओं सहित पर्यावरण की रक्षा के लिए, भारत सरकार ने 2006 में राष्ट्रीय पर्यावरण नीति को अपनाया। नीति क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियों की भूमिका की पहचान की गई है और पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के सतत विकास के लिए उचित भूमि उपयोग योजना और वाटरशेड प्रबंधन को बढ़ावा देने पर जोर देती है।

प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वैज्ञानिक ज्ञान को आगे बढ़ाने और भारतीय हिमालयी क्षेत्र में जैव विविधता और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए एकीकृत प्रबंधन रणनीतियों को विकसित करने के लिए एक एजेंसी के रूप में गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान की स्थापना की है।

अन्य पहलों के अलावा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के तहत हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के राष्ट्रीय मिशन का उद्देश्य पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने और इसे सुरक्षित रखने के लिए  उपाय करना है।

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि, राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर ने 2023 में भारत का एक भूस्खलन एटलस तैयार किया है, जो दर्शाता है कि 1998 से 2022 के दौरान भारत के पहाड़ी इलाकों में कितने भूस्खलन हुए थे। डेटाबेस में भारत के 17 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में हिमालय और पश्चिमी घाट में भूस्खलन के प्रति संवेदनशील क्षेत्र शामिल किए गए हैं।

इस भूस्खलन डेटाबेस का उपयोग प्रमुख सामाजिक-आर्थिक मापदंडों, भूस्खलन के खतरों के संदर्भ में भारत के 147 पहाड़ी जिलों को रैंक करने के लिए किया गया था। डेटाबेस भूस्खलन का पता लगाने, मॉडलिंग और भविष्यवाणी में उन्नत तकनीकों पर भी प्रकाश डालता है।

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