“जब पानी नहीं बरसा तो धान का बिछड़ा (नर्सरी) खराब हो गया, इसलिए बुआई नहीं की, खेत खाली छोड़ने पड़े। अक्टूबर में बारिश हुई तो लगा कि खेतों में नमी आ गई है, इसलिए छोटी मटर लगा दी। सोचा था कि इससे थोड़ा बहुत गुजारा चल जाएगा, लेकिन शायद भगवान को यह भी मंजूर नहीं था। उसके बाद बिल्कुल भी बारिश नहीं हुई और देखते ही देखते मटर भी सूख गई।” सूखे के लिए दुनिया भर में चर्चित झारखंड के जिले पलामू के गांव भैंसासुर के नंदकिशोर उरांव यह कहते हुए चुप्पी साध लेते हैं। उनके लिए यह दूसरा साल है, जब उनके तीन एकड़ में फैले खेतों में कुछ नहीं हुआ। अब तो उनके सामने सबसे बड़ी चिंता पीने के पानी को लेकर है, क्योंकि उनके गांव में बने लगभग सभी कुएं सूखने वाले हैं। नंदकिशोर अकेले ऐसे नहीं हैं, जो इस चिंता से जूझ रहे हैं, बल्कि झारखंड के लगभग हर आदमी की है।
साल 2022 झारखंड के लिए बहुत बुरा बीता। इस साल पड़े सूखे की वजह से किसानों को भारी नुकसान हुआ। साल 2022 का मॉनसून बीतने के बाद झारखंड सरकार ने राज्य के दो जिले (पूर्वी सिंहभूम एवं सिमडेगा) को छोड़कर 22 जिलों के 226 प्रखंडों को सूखाग्रस्त घोषित किया। राज्य सरकार का अनुमान था कि लगभग 30 लाख किसान प्रभावित हुए हैं। लेकिन 15 मार्च 2023 तक 33,16,789 किसान राज्य सरकार द्वारा घोषित मुख्यमंत्री सुखाड़ राहत योजना का फायदा उठाने के लिए आवेदन कर चुके हैं।
राज्य सरकार ने सूखे से राहत देने के लिए प्रति किसान परिवार को 3,500 रुपए देने का वादा किया है। इसे अग्रिम राशि बताया गया है, जिसे बाद में केंद्र सरकार द्वारा घोषित राहत राशि में समायोजित किया जाएगा। इस बार के सूखे की विकरालता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री सुखाड़ राहत योजना के पोर्टल के मुताबिक 15 मार्च तक जिन किसानों ने आवेदन किया है, उनमें से 17,28,138 किसान (52.10 प्रतिशत) बिल्कुल भी बुआई नहीं कर पाए, जबकि 9,99,859 किसानों को 33 प्रतिशत से ज्यादा फसल की क्षति हुई है, जबकि 5,88,792 भूमिहीन कृषक मजदूरों ने राहत के लिए आवेदन किया है।
खरीफ सीजन की झारखंड की मुख्य फसल धान है, इसके अलावा मक्का, दलहन और तिलहन की खेती होती है। दो मार्च 2023 को विधानसभा पटल पर रखे गए राज्य के आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 के मुताबिक 2022-23 के खरीफ सीजन में राज्य में 28.27 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन 14.13 लाख हेक्टेयर में ही बुआई हो पाई। यानी, लगभग 50 फीसदी हिस्से में खेती नहीं हो पाई। इस सीजन में धान की कुल बुआई 7,37,280 हेक्टेयर में हुई, जो 2021-22 में दोगुना से ज्यादा (17,63,550 हेक्टेयर) थी। इसी तरह 2021-22 में 2,72,600 हेक्टेयर में मक्के की खेती हुई थी, लेकिन 2022-23 में घटकर 2,04,290 हेक्टेयर रह गई। दलहन की बुआई भी 4,45,140 से घटकर 3,31,630 हेक्टेयर और मोटा अनाज 20,730 से घटकर 11,900 हेक्टेयर रह गई।
बुआई के साथ-साथ उत्पादन पर भी सूखे का असर देखा गया। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार धान का उत्पादन 2021-22 में 53,65,170 टन था, जबकि सूखे के कारण 2022-23 में केवल 18,32,210 टन ही हो पाया। यानी, उत्पादन में लगभग 292 प्रतिशत गिरावट आई। 2021-22 में 6,06,430 टन मक्के का उत्पादन हुआ था, लेकिन यह भी 2022-23 में घटकर 4,35,870 टन ही रह गया।
राज्य में खेती-किसानी करने वाले परिवारों की संख्या अधिक है। जनगणना 2011 के मुताबिक, कुल ग्रामीण आबादी के मुकाबले 63 फीसदी लोग किसानी से जुड़े हैं। राज्य में लगभग 38 लाख हेक्टेयर जमीन खेती लायक है, लेकिन केवल 22.38 लाख हेक्टेयर में ही बुआई हो पाती है। इसमें से 92 प्रतिशत खेती वर्षा आधारित है, जबकि ज्यादातर (82 प्रतिशत) बारिश मॉनसून के दौरान होती है। ऐसे में, बारिश की बदलती प्रवृति ने झारखंड में सूखे को बढ़ा दिया है। राज्य में जून से सितंबर की अवधि (मॉनसून सीजन) के दौरान खरीफ मौसम में राज्य में 1022.9 मिमी बारिश होती है।
लेकिन 2022 के मॉनसून में 817.9 मिलीमीटर बारिश हुई, जो सामान्य से 20 फीसदी कम थी। अगर पूरे साल के बारिश के आंकड़े देखे जाएं तो पूरे साल 2022 में 1044.2 मिमी बारिश हुई, जो सामान्य बारिश 1220.7 मिमी से लगभग 14 प्रतिशत कम हुई। झारखंड से बारिश के रूठने का सिलसिला 2023 में भी चला। जनवरी-फरवरी में सामान्य तौर पर 25.4 मिमी बारिश होती है, लेकिन इन दोनों महीनों में बिल्कुल भी बारिश नहीं हुई। मार्च के महीने में हल्की-फुल्की बारिश हुई। मौसम विभाग के मुताबिक एक मार्च से 15 मार्च 2023 के दौरान 3.2 मिमी बारिश हुई, जो सामान्य (8.8 मिमी) से लगभग 63 प्रतिशत कम रही।
बेशक आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में बारिश कम होने के कारण सूखे के हालात बने, लेकिन आंकड़े सही तस्वीर पेश नहीं करते। मॉनसून सीजन या पूरे साल के आंकड़ों को देखा जाए तो 20 प्रतिशत से कम बारिश को मौसम विज्ञान विभाग की भाषा में सामान्य ही माना जाता है, लेकिन बारिश के वितरण में अनियमितता ने साल 2022 के सूखे की गंभीरता को बढ़ा दिया।
मौसम विज्ञान विभाग, रांची के प्रमुख अभिषेक आनंद ने डाउन टू अर्थ से कहा कि खरीफ सीजन की खेती के लिए जून और जुलाई का महीना बहुत अहम होता है, लेकिन पिछले साल इन दोनों महीनों में बहुत कम बारिश हुई, जिस कारण खरीफ की फसल को भारी नुकसान हुआ। इतना ही नहीं, अक्टूबर में तो बारिश हुई, परंतु फिर चार माह (नवंबर से फरवरी) तक लगातार एक भी बूंद बारिश नहीं हुई।
हालांकि झारखंड में सूखा कोई नई बात नहीं है। लेकिन इसकी निरंतरता बढ़ रही है। बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, रांची में कृषि मौसम विज्ञान विभाग के अध्यक्ष एवं रिसर्च डायरेक्टर रह चुके ए. वदूद कहते हैं कि दो दशक के पहले तक सूखा कई-कई साल बाद होता था, लेकिन अब तो उल्टे हालात बन गए हैं। ऐसा शायद ही कोई साल बीतता है, जब हालात सामान्य रहते हैं। राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग और आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 के आंकड़ों को देखें तो 2001 से 2022 के बीच 14 साल सूखा पड़ चुका है। (देखें, “सूखे साल”)
वदूद भी कहते हैं कि 2022 में जो सूखा पड़ा, इससे पहले इतने बड़े पैमाने पर सूखा नहीं पड़ा। बेशक मॉनसून की बारिश कुल मिलाकर ज्यादा कम नहीं हुई, लेकिन बारिश के असमान वितरण ने खेती को बहुत अधिक प्रभावित किया। खासकर जून-जुलाई में बारिश न होने के कारण किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा।
दरअसल बारिश कम होना ही झारखंड के सूखे की वजह नहीं है। झारखंड में मरुस्थलीकरण भी बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। मिट्टी में नमी की मात्रा कम होती जा रही है। 2016 में भारतीय अंतरिक्ष शोध संगठन (इसरो) के अंतरिक्ष उपयोग केंद्र द्वारा प्रकाशित भारत के मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस में कहा गया कि भारत के पूर्व भाग में 79,716 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला झारखंड भूमि क्षरण की दृष्टि से अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ऊपर है।
राज्य में 2011-13 में कुल भौगोलिक क्षेत्र का 68.98 प्रतिशत हिस्सा मरुस्थलीकरण या भूमि क्षरण की चपेट में आ चुका था। इसमें एक दशक के दौरान 1.01 की वृद्धि हुई थी। इस एटलस के मुताबिक मरुस्थलीकरण व भूमि क्षरण की सबसे महत्वपूर्ण वजह जल क्षरण (50.64 प्रतिशत) और वनस्पति में कमी (17.30 प्रतिशत) बताई गई है।
समाधान में खोट
कई दशकों से सूखे का सामना कर रहे झारखंड में क्या इससे निपटने के लिए कुछ नहीं किया गया? ऐसा नहीं है, झारखंड ऐसा राज्य रहा है, जहां जल संरक्षण और जल संचयन पर व्यापक कार्य हुए हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के वेब पोर्टल से पता चलता है कि 2014-15 से 2021-22 तक वाटरशेड प्रबंधन संरचनाओं और पारंपरिक जल निकायों जैसे पानी से संबंधित कार्यों पर 3,000 करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए गए हैं। (देखें, “लेखा-जोखा”) इस राशि से पानी से जुड़े कुल 25.76 लाख काम किए गए।
इनमें 8,92,017 जल-विशिष्ट संरचनाएं बनी हैं, जिनमें 2.40 लाख से अधिक खेतों में बनने वाले तालाब शामिल हैं (देखें, “मनरेगा का हासिल”)। यह तालाब राज्य की पांच लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचित करते हैं। यह क्षेत्र राज्य के सालाना शुद्ध बुआई क्षेत्र का लगभग 20 प्रतिशत बनता है। और अगर इसे ग्रामीण आबादी के नजरिए से देखा जाए तो राज्य की कुल ग्रामीण आबादी का 70 प्रतिशत की पहुंच इन तालाबों तक है। यानी, राज्य के औसतन 89 लोगों की पहुंच एक खेत तालाब तक होती है।
अगर पिछले आठ साल में राज्य भर में निर्मित सभी जल-विशिष्ट संरचनाओं की क्षमता पर विचार करें तो पाएंगे कि झारखंड के प्रत्येक गांव में अब कम से कम 28 जल-विशिष्ट संरचनाएं होनी चाहिए। राज्य में कुल गांवों की संख्या 32,620 है। दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के एक विश्लेषण के अनुसार, एक गांव में जल सुरक्षा के लिए केवल छह जल-संबंधी संरचनाएं ही काफी हैं।
तो झारखंड में काम का नतीजा क्यों नहीं निकला? जल संरक्षण और जल संचयन संरचनाओं की खराब योजना एक प्रमुख कारण है। गैर-लाभकारी संस्था झारखंड नरेगा वॉच के संयोजक जेम्स हेरेंज कहते हैं, “गांव के लोग अच्छे से जानते और समझते हैं कि दोभा (15 मीटर चौड़ा, 30 मीटर गहरा व 10 मीटर लंबा जल-भंडारण गड्ढा) जैसी संरचनाओं का निर्माण कहां किया जाना चाहिए, जहां वे लंबे समय तक पानी रोके रहेंगे। उनकी मदद ली जानी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता।”
1993-94 में राज्य में भयंकर सूखा पड़ा था। उसके बाद सरकार व स्वयंसेवी संगठनों ने मिलकर काम करना शुरू किया। हेरेंज बताते हैं कि जिलों में पानी चेतना मंच का गठन किया गया। गांव-गांव में पानी पंचायत समिति बनाई गई। पीपुल साइंस इंस्टीट्यूट से जुड़े वैज्ञानिक भी इस अभियान में जुड़े। उनकी देखरेख में चैकडेम बनाए गए। डोभा बनाने का काम चला, लेकिन धीरे-धीरे प्रशासन में बैठे अधिकारियों-कर्मचारियों ने इसे कमाई का जरिया बना लिया। आज हालात यह हैं कि कई चैक डेम खाली पड़े हैं और डोभा ऐसी जगह बन रहे हैं, जहां पानी की पहुंच नहीं है।
सरकार की आपदा प्रबंधन विभाग की वेबसाइट में “सूखा” अध्याय में साफ-साफ लिखा है कि अगर झारखंड में मनरेगा पर किए गए कामों को देखा जाए तो सिंचाई से संबंधित 90 प्रतिशत मुद्दों का समाधान हो गया होता। कुछ घटनाओं का जिक्र करते हुए इस अध्याय में लिखा गया है कि कई ऐसे डोभा या तालाब बनाए गए, जहां डूबने से बच्चों की मौत की सूचना मिली। इसके बाद डोभाओं के निर्माण में लोगों की दिलचस्पी खत्म हो गई।
दूसरा, मनरेगा के तहत मजदूरी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। मनरेगा के तहत, वर्तमान में मजदूरी 168 रुपए प्रति दिन है जो झारखंड सरकार के न्यूनतम वेतन 239 रुपए प्रति दिन से बहुत कम है। नतीजतन, काम की जरूरत वाले लोगों का झुकाव निजी काम की ओर अधिक होता है। भारतीय किसान सभा, झारखंड के उपाध्यक्ष प्रफुल्ल लिंडा कहते हैं कि मनरेगा में मजदूरी इतनी कम है कि लोग काम नहीं करना चाहते।
खासकर उन इलाकों में जहां, मिट्टी सख्त और पथरीली है, वहां लोगों को गड्ढे खोदने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। बाहर उनको लगभग दोगुनी मजदूरी मिलती है। खूंटी जिले के बेड़ो इलाके युवा सुखदेव उरांव कहते हैं कि उनके गांव से खूंटी कस्बा 12 किलोमीटर दूर है। वहां मजदूरी का काम मिल जाता है, जिसकी नगद दिहाड़ी 450 रुपए तक मिल जाती है, तो फिर मनरेगा का काम कौन करेगा, वो भी मजदूरी कब मिलेगी, पता नहीं, इसलिए लोग मनरेगा में काम करने के लिए तैयार नहीं होते।
पलायन में बढ़ोतरी
सूखे की वजह से झारखंड में पलायन में बहुत तेजी आई है। गांव के गांव खाली होने लगे हैं। लिंडा कहते हैं कि मॉनसून सीजन में बारिश हुई नहीं। थोड़ी बहुत बारिश अक्टूबर में हुई, लेकिन नवंबर से बारिश नहीं हुई है। जिस वजह से हालात बहुत बिगड़ गए हैं। राज्य में कई जगह कुएं और चापाकल (हैंडपंप) सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं। अप्रैल और मई में तो पीने के पानी का बड़ा संकट खड़ा होने वाला है। संथाल परगना के 27 प्रखंडों में बिल्कुल भी खेती नहीं हुई, इसलिए मजबूरन लोग पलायन कर गए।
पलामू जिले के रामगढ़ ब्लॉक के गांव सरहुआ में कुल परिवारों की संख्या 200 से अधिक है, लेकिन यहां के लगभग 75 प्रतिशत युवा मजदूरी करने दूरदराज के शहरों में चले गए हैं। गांव के रहने वाले और आदिवासी नेता लुकस कोराबा कहते हैं कि गांव में बीते साल इतनी भी फसल नहीं हुई कि पूरा परिवार अपना पेट पाल सके, इसलिए मजदूरी करने के लिए शहर जाना लगभग हर परिवार की मजबूरी बन गया है।
हालात यह हो गए हैं कि बड़े से बड़े जमींदारों को भी सरकारी राशन पर निर्भर होना पड़ रहा है। सुरेंद्र कोरबा आदिम जनजाति से हैं। उनके दादा रघुनंदन कोरबा के पास कभी 400 एकड़ जमीन होती थी, लेकिन उन्होंने अपनी जमीन दान कर दी। अब सुरेंद्र कोरबा के पास लगभग 40 एकड़ जमीन है। कभी इस जमीन पर इतनी फसल होती थी कि सुरेंद्र गांव वालों में बांट देते थे तो कुछ बेच देते हैं, लेकिन धीरे-धीरे पानी न होने की वजह से खेत बंजर होने लगे। पिछले तीन साल से बारिश न होने के कारण उनके खेत सूखे ही रह जाते हैं। खरीफ सीजन 2022 में हालात यह बने कि उनका पूरा परिवार सरकार से मिलने वाले राशन से पेट भर रहा है।
सिंतबर 2022 में जब सरकार को लगा कि इस बार का सूखा बड़ा हो सकता है तो मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अध्यक्षता में एक बैठक हुई, जिसमें उन्होंने निर्देश दिए कि झारखंड के हर गांव में पांच नई योजनाएं शुरू की जाएं और एक लाख कुएं और तालाब बनाए जाएं। इसके साथ युद्ध स्तर पर चापाकल और चेक डैम की मरम्मत की जाए। मनरेगा के तहत मानव कार्य दिवस बढ़ाने और कच्चे कार्यों पर लगी रोक हटाने के भी निर्देश दिए, ताकि ग्रामीण इलाकों में तालाब, मेढ़, जल स्रोतों को गहरा किया जा सके। लेकिन दिसंबर के पहले सप्ताह में डाउन टू अर्थ ने पलामू, रांची, खूंटी, चतरा जिलों का दौरा किया। कहीं भी इस तरह का कोई भी काम होते नहीं दिखाई दिया। लोगों ने यह जरूर कहा कि मनरेगा के तहत जितनी मजदूरी मिलती है, उससे लगभग दोगुनी बाहर मिल जाती है, इसलिए वह मनरेगा के भरोसे गांव में नहीं रुक सकते।
स्वयंसेवी संगठन जुड़ाव के संयोजक घनश्याम कहते हैं कि कई इलाकों में हालात ऐसे हैं कि उनके पास 2023 में खरीफ सीजन में होने वाले धान की बुआई के लिए न तो बीज है और न इसे खरीदने के लिए पैसा। पीने के पानी का बड़ा संकट खड़ा होने लगा है। लोगों के पास पलायन के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।
हाइब्रिड ने बढ़ाई मुश्किलें
हाइब्रिड धान आने के बाद किसानों ने पारंपरिक किस्में लगाना बंद कर दिया। खूंटी जिले में किसान ललाट धान, गोड़ा धान लगाया करते थे। यह धान केवल दो महीने में तैयार हो जाता था, बल्कि बारिश की जरूरत कम होती थी, लेकिन हाइब्रिड धान को एक तय समय में पानी चाहिए। अगर बारिश नहीं होती है तो यह धान खराब हो जाती है। वहीं, हाइब्रिड धान के बीज हर साल खरीदना पड़ते हैं, जो महंगे भी होते हैं। इसके अलावा सरगुजा तिलहन, शकरकंद, मंडुआ आदि लगाना भी लोगों ने छोड़ सा दिया है।
कर्रा प्रखंड (खूंटी) के गांव लुदुरू निवासी चेतन धनवार बताते हैं कि हाइब्रिड धान ने कई तरह की मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। हाइब्रिड की नर्सरी लगने के 15 से 21 दिन के बीच सिंचाई होना बेहद जरूरी है। जिन इलाकों में सिंचाई के साधन हैं, वहां तो यह ठीक है, लेकिन हमारे इलाके केवल बारिश पर निर्भर है, वहां इस समय बारिश न हो तो नुकसान होना तय है। हाइब्रिड धान के लिए कीटनाशकों के साथ-साथ डीएपी व यूरिया का भी अधिक उपयोग होता है, जबकि हमारी पारंपरिक धान में कीटनाशक व रासायनिक खाद की जरूरत ही नहीं थी। वदूद भी किसानों की इस शिकायत को वाजिब मानते हैं। वह कहते हैं कि हाइब्रिड धान बहुत संवेदनशील है। हालांकि इससे उत्पादन बहुत ज्यादा होता है, इसलिए किसान इसे लगाना पसंद करते हैं, परंतु हाइब्रिड ने समस्याएं तो बढ़ाई ही है।
सीख देते गांव
एक ओर, झारखंड के ज्यादातर गांव सूखे से जूझ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ गांवों में इसका असर न के बराबर हुआ, बल्कि लोगों ने पलायन तक नहीं किया। ऐसा ही एक गांव है, खक्सीटोली। यह गांव सिमोन उरांव से ज्यादा जाना जाता है। झारखंड में सिमोन उरांव को कौन नहीं जानता? रांची जिले के बेड़ो प्रखंड के खक्सीटोली में रहने वाले सिमोन को 2016 में पदमश्री से नवाजा गया था। क्योंकि वह 1960 के दशक से अपने गांव और आसपास के इलाकों में चैकडेम बना रहे थे। इन दिनों लकवा ग्रस्त होने के कारण पूरी तरह बात नहीं कर पाते हैं, लेकिन टूटे-फूटे शब्दों में बताते हैं कि जब वह छोटे थे तो बारिश का पानी रुक नहीं पाता था, इसलिए लोग एक ही फसल कर पाते थे, लेकिन जब चैकडैम और तालाब बन गए तो पूरे साल कोई न कोई खेती करते हैं। उरांव ने सबसे बड़ा चेकडैम बेड़ो के नजदीक जामतोली गांव में बनवाया था।
गांव के युवा सुखदेव उरांव बताते हैं कि उनका पूरा परिवार खेती करता है। उनके पास 13 एकड़ खेती है। वे लोग धान के अलावा टमाटर, बैंगन, मटर भी उगाते हैं। लगभग 20 लोगों का परिवार है, इसलिए धान की बिक्री नहीं करते, लेकिन सब्जियां बेचकर पूरे परिवार का खर्च चल जाता है। वह गर्व से कहते हैं कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य बाहर नहीं जाता। जब तक खेतों में सिंचाई के साधन नहीं थे तो उनके माता-पिता आजीविका के लिए बाहर जाते थे, लेकिन गांव में पानी का इंतजाम होने के बाद वे लोग खेती में ही लग गए।
सुखदेव कहते हैं कि इस बार समय से बारिश नहीं हुई, इसीलिए आसपास के लोगों ने धान की बुआई देरी से की, पैदावार तो कम हुई, लेकिन दूसरे इलाकों के मुकाबले नुकसान कम हुआ। उनके खेतों में लगभग 40 बोरा (एक बोरे में 40 किलोग्राम) होता था, लेकिन इस बार 20 बोरा ही धान हो पाया है।
धान की कुटाई-सफाई करके साफ कर रहे लगभग 80 वर्षीय पुनय उरांव भी कहते हैं कि इस साल धान कम हुआ, लेकिन अगर यह चैकडेम नहीं होता तो हालात बहुत ज्यादा खराब होते। पुनय कहते हैं, “जब तक उनके गांव में चेकडैम नहीं था तो गांव में मर्द कम ही रहते थे, सब लोग इधर-उधर काम पर जाते थे] लेकिन अब कोई बाहर नहीं जाता। गांव के युवा भी खेती कर रहे हैं।”
खूंटी जिले के कर्रा प्रखंड के गांव लुदुरू में भी 2019-20 में तालाब बनाए गए थे। यहां के किसान भी सब्जियां लगा रहे हैं] लेकिन धान की पैदावर यहां भी प्रभावित हुई है। किसानों का कहना है कि पिछले सालों के पैदावार के मुकाबले इस साल लगभग 50 प्रतिशत कम धान हुआ है। गांव के देवेंद्र धनवार ने लगभग दो एकड़ में मल्टीलेयर खेती की है। उनके खेत के पास ही तालाब है, इसलिए उनके खेत में नमी बनी हुई है।
वह कहते हैं, “अगर यह तालाब नहीं होता तो उनकी यह जमीन बंजर रह जाती।” रांची जिले के इटकी प्रखंड (ब्लॉक) के गांव पलामा निवासी जेतरू राव भगत कहते हैं कि उनके गांव के खेतों की सिंचाई के लिए 70 के दशक में स्थानीय लोगों ने 20 कुएं खुदवाए थे। यही कुएं इस साल के सुखाड़ में काम आए।
विशेषज्ञ भी मानते हैं कि झारखंड में सालाना 1100 से 1400 मिमी बारिश होने के बावजूद बहुफसली कृषि नहीं हो पाती। इसके लिए सिंचाई के साधन और जल संसाधन जिम्मेवार हैं। वदूद कहते हैं कि झारखंड में सालाना बारिश में बहुत ज्यादा कमी नहीं आ रही है, लेकिन जो बारिश हो रही है, उसे संरक्षित और दोबारा इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।
जल संरक्षण के जो इंतजाम हो भी रहे हैं, तकनीकी खामियों के कारण सिरे नहीं चढ़ पा रहे हैं, इन कामों में स्थानीय लोगों को शामिल नहीं किया जा रहा है। वदूद कहते हैं कि पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन का सामना कर रही है, इसमें झारखंड भी शामिल है, लेकिन झारखंड में सूखे के लिए स्थानीय कारण ज्यादा जिम्मेवार हैं।
जैसे कि झारखंड में मॉनसून पूर्व बारिश बहुत अच्छी होती थी, उसकी वजह झारखंड के जंगल और भूजल स्तर था, लेकिन खनन और जंगलों के कटने के कारण मॉनसून पूर्व बारिश में तेजी से कमी आ रही है, जिस कारण खरीफ की फसलों को नमी नहीं मिल पाती। रही-सही कसर मॉनसून की अनियमितता पूरी कर देती है।