उत्तराखंड के चमोली जिले में साल 2021 में आई आपदा की फाइल फोटो: विकास चौधरी
उत्तराखंड के चमोली जिले में साल 2021 में आई आपदा की फाइल फोटो: विकास चौधरी

आपदाओं की ओर बढ़ती देवभूमि उत्तराखंड: अब नहीं चेते तो देर हो जाएगी

उत्तराखंड में लगातार बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं केवल पर्यावरणीय घटनाएं नहीं हैं, अपितु वे हमारे विकास मॉडल, नीति-निर्धारण एवं प्रकृति के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण पर गहरे प्रश्नचिह्न खड़ा करती हैं
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उत्तराखंड, जो अपनी प्राकृतिक रमणीयता, सांस्कृतिक बहुलता और आध्यात्मिक धरोहर के लिए प्रतिष्ठित है, वर्तमान में निरंतर तीव्र होती प्राकृतिक आपदाओं के एक गंभीर चक्रव्यूह में फंसा हुआ प्रतीत होता है।

जलवायु परिवर्तन, अनियोजित विकास, पारिस्थितिक असंतुलन और प्रशासनिक अक्षमता ने इस पर्वतीय राज्य को एक संवेदनशील और संकटग्रस्त क्षेत्र में रूपांतरित कर दिया है। जहाँ कभी नदियाँ, वनस्पति और पर्वत मानव जीवन के संतुलन के आधार थे, आज वही तत्व विनाश के वाहक बनते जा रहे हैं।

विगत वर्षों में भूस्खलन, अतिवृष्टि, बादल फटना, वनाग्नि और भू-धंसाव जैसी आपदाएँ न केवल जन-धन की व्यापक क्षति का कारण बनी हैं, बल्कि राज्य की सामाजिक संरचना, आर्थिक स्थायित्व और पारिस्थितिक तंत्र को भी गहरे स्तर पर प्रभावित कर रही हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि उत्तराखंड में तीव्र होती आपदाओं के कारणों, प्रभावों और संभावित नीतिगत विकल्पों का गहन, वैज्ञानिक एवं समग्र विश्लेषण प्रस्तुत किया जाए, जिससे भावी रणनीतियों को अधिक सतत, समावेशी और पर्यावरणोन्मुख रूप दिया जा सके।

भूगर्भ वैज्ञानिक मानते हैं कि उत्तराखंड हिमालय की नवीनतम श्रृंखलाओं पर बसा है, जो भूस्खलन, भूकंप और अन्य भूगर्भीय हलचलों के प्रति बेहद संवेदनशील है। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु रिपोर्टों एवं राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के विश्लेषणों के अनुसार, समस्त हिमालयी क्षेत्र, विशेषतः उत्तराखंड, जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों से तीव्रता से प्रभावित हो रहा है।

अनियमित मानसूनी प्रवृत्तियां, अत्यधिक वर्षा की घटनाएं, तापमान में निरंतर वृद्धि और ग्लेशियरों के तीव्र पिघलाव ने आपदाओं की आवृत्ति, तीव्रता और विस्तार को अभूतपूर्व रूप से बढ़ाया है। उत्तराखंड में 2013 की केदारनाथ आपदा, 2021 की रैणी (चमोली) हिमस्खलन त्रासदी और 2023 के जोशीमठ भू-धंसाव जैसी घटनाएं इस गहराते संकट की स्पष्ट चेतावनियाँ हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि पारिस्थितिक संतुलन गंभीर रूप से बाधित हो चुका है।

प्राकृतिक कारकों के अतिरिक्त मानवीय हस्तक्षेप भी आपदाओं की तीव्रता को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। तीर्थाटन एवं पर्यटन के नाम पर अत्यधिक निर्माण, पर्वतीय ढलानों की अंधाधुंध कटाई, जलविद्युत परियोजनाओं हेतु सुरंगों व बांधों का जाल, सड़क विस्तार की प्रक्रिया में वनों की व्यापक कटाई तथा पर्यावरणीय नियमन की उपेक्षा ने पारिस्थितिकीय तंत्र को अत्यंत असंतुलित किया है।

विशेषकर चारधाम यात्रा मार्ग पर व्यापक निर्माण गतिविधियों के चलते अनेक क्षेत्रों में भूस्खलन की घटनाओं में तीव्र वृद्धि हुई है। स्थानीय समुदायों द्वारा वर्षों से संचित पारंपरिक ज्ञान और चेतावनियों की उपेक्षा तथा वैज्ञानिक पर्यावरणीय मूल्यांकन के अभाव में कई संवेदनशील क्षेत्र और अधिक संकटग्रस्त हो गए हैं।

उत्तराखंड के अनेक पर्वतीय गांव प्रतिवर्ष आपदाओं का शिकार होते हैं। किन्तु पुनर्वास योजनाएं, सुरक्षित स्थानांतरण की प्रक्रियाएं तथा आपदा-पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ अभी भी अत्यंत अल्पविकसित अवस्था में हैं। आपदा प्रबंधन में सामुदायिक सहभागिता, त्वरित राहत, पुनर्निर्माण तथा दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पुनर्संरचना जैसे पहलुओं की योजनाएं, नीति-पत्रों में मौजूद होने के बावजूद, व्यावहारिक क्रियान्वयन के स्तर पर अप्रभावी सिद्ध हो रही हैं।

प्रशासनिक तंत्र, अनेक अवसरों पर संसाधनों की कमी, रणनीतिक योजना की अनुपस्थिति और तात्कालिक निर्णयों की उपेक्षा के कारण आपदा प्रतिक्रिया में विफल रहा है।

उत्तराखंड में बढ़ती आपदाएं केवल भौगोलिक या जलवायुगत घटनाएं नहीं हैं, बल्कि यह राज्य की विकासधारा, नीतिगत प्राथमिकताओं और प्रशासनिक संवेदनशीलता का परीक्षण भी हैं। यह आवश्यक है कि आपदाओं को केवल "प्राकृतिक" कहकर दरकिनार करने के बजाय उन्हें मानवीय और संरचनात्मक दृष्टि से समझा जाए।

राज्य को अब एक समावेशी, वैज्ञानिक, स्थानीय अनुभवों पर आधारित तथा पारिस्थितिक संतुलन को प्राथमिकता देने वाली रणनीति अपनानी होगी। दीर्घकालिक समाधान के लिए स्थानीय समुदायों की भागीदारी, सतत विकास के सिद्धांतों की पुनर्पुष्टि, पर्यावरणीय नियमों का कठोर अनुपालन तथा पर्वतीय पारिस्थितिकी की संवेदनशीलता के प्रति नीति-निर्माताओं की सजगता अत्यंत आवश्यक है।

उत्तराखंड में लगातार बढ़ती आपदाओं से निपटने हेतु केवल आपदा-उत्तर राहत प्रयास पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि इसके लिए दीर्घकालिक, वैज्ञानिक तथा समुदाय-आधारित रणनीतियों की आवश्यकता है-

प्रथम, राज्य को अपने वर्तमान विकास मॉडल का समग्र पुनर्मूल्यांकन करना होगा, जिससे विकास प्रकृति के साथ संघर्ष नहीं, बल्कि सहअस्तित्व की दिशा में आगे बढ़े। विशेष रूप से निर्माण गतिविधियों जैसे; सड़क, सुरंग और बाँध परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन  की प्रक्रिया को अधिक कठोर, पारदर्शी एवं जनसहभागी बनाया जाना चाहिए, जिसमें स्थानीय समुदायों की राय एवं पारंपरिक पारिस्थितिकीय ज्ञान को प्राथमिकता दी जाए।

द्वितीय, पर्वतीय पारिस्थितिकी के अनुकूल हरित विकास मॉडल को अपनाने की आवश्यकता है। इसके अंतर्गत स्थानीय संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग, पारंपरिक स्थापत्य शैलियों का संरक्षण, जल-संरक्षण प्रणालियों का पुनर्जीवन और जोखिम वाले क्षेत्रों से सुरक्षित पुनर्वास प्रमुख उपाय हैं। गाँवों के पुनर्वास तथा वैकल्पिक आजीविका के साधनों को विकास प्रक्रिया का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।

तृतीय, आपदा-पूर्व चेतावनी प्रणालियों को सशक्त किया जाना चाहिए। इसके अंतर्गत स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की टीमों का गठन, त्वरित प्रतिक्रिया तंत्र का विकास तथा आपदा प्रबंधन और जलवायु शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रमों में समावेशित किया जाना आवश्यक है, जिससे भावी पीढ़ी को इन खतरों के प्रति सजग एवं सक्षम बनाया जा सके।

चतुर्थ, पर्वतीय पर्यटन को इको-टूरिज्म में परिवर्तित करने की दिशा में गंभीर प्रयास होने चाहिए। पर्यटन गतिविधियाँ पर्यावरण-संवेदनशील, सीमित और विनियमित हों, ताकि पारिस्थितिक संतुलन बना रहे।

उत्तराखंड में लगातार बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं केवल पर्यावरणीय घटनाएं नहीं हैं, अपितु वे हमारे विकास मॉडल, नीति-निर्धारण एवं प्रकृति के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण पर गहरे प्रश्नचिह्न खड़ा करती हैं। भूस्खलन, बाढ़, बादल फटना, वनाग्नि और भू-धंसाव जैसी घटनाएँ न केवल राज्य की पारिस्थितिकी को, बल्कि उसकी सामाजिक और आर्थिक संरचना को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रही हैं।

यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय हस्तक्षेप की संयुक्त परिणति ने उत्तराखंड को आपदा-प्रवणता की चरम सीमा तक पहुँचा दिया है।  ऐसी परिस्थिति में मात्र तात्कालिक राहत उपाय पर्याप्त नहीं हैं। आवश्यकता है एक दीर्घकालिक, पर्यावरण-संवेदी और समुदाय-आधारित नीति दृष्टिकोण की, जो विकास को प्रकृति के साथ सहअस्तित्व के रूप में पुनर्परिभाषित करे।

इस दृष्टिकोण में सतत विकास, पारंपरिक ज्ञान, स्थानीय भागीदारी और वैज्ञानिक विवेक का संतुलन अनिवार्य है। उत्तराखंड की जैव-विविधता, सांस्कृतिक धरोहर और संवेदनशील पारिस्थितिकी की रक्षा हेतु यह अत्यावश्यक है कि हम अब सजग होकर ठोस कार्यवाही करें।

अतः, राज्य सरकार, वैज्ञानिक संस्थान, गैर-सरकारी संगठन और स्थानीय समुदायों को मिलकर एक साझा, समावेशी और पर्यावरणोन्मुख दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। जब तक विकास को ‘प्रकृति-विरोधी लाभ’ के बजाय ‘प्रकृति-संगत जीवन’ के रूप में पुनर्परिभाषित नहीं किया जाएगा, तब तक उत्तराखंड की आपदाएं निरंतर तीव्र होती रहेंगी।

यही समय है जब हमें चेतने, सीखने और ठोस बदलाव लाने की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे। अन्यथा वह समय दूर नहीं जब 'देवभूमि' की पहचान केवल त्रासदियों और आपदाओं तक सीमित होकर रह जाएगी। हमें अब 'प्रकृति के अनुरूप विकास' की राह अपनाने का सार्थक संकल्प लेना होगा, इसी में उत्तराखंड की दीर्घकालिक सुरक्षा और समृद्धि निहित है।

लेखक डॉ. दलीप सिंह बिष्ट राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय अगस्त्यमुनि, रुद्रप्रयाग  में राजनीति विज्ञान विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष है । लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं

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