हिमालय में बढ़ती आपदाओं पर अंकुश लगाने के लिए ग्राम पंचायतों और स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर योजनाएं बनानी होंगी और स्थानीय लोगों के पारंपरिक ज्ञान को आधार बनाना होगा। हिमालय के पर्यावरण पर काम कर रही संस्था हिमधरा पर्यावरण समूह द्वारा ‘हिमालय में आपदा-निर्माण’ नामक रिपोर्ट का सारांश यही है।
यह रिपोर्ट 10 अक्टूबर 2023 को जारी की गई। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में भूस्खलन के खतरों पर सामुदायिक दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित करने वाली यह रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि देश में आपदा नीति और कानून 2005 में बन गए थे, लेकिन यह आपदाओं के 'प्रबंधन' जिसमें रेस्क्यू और स्थिति को सामान्य में लाने तक ही सीमित है, जबकि आपदाओं की हालिया घटनाओं से साफ हो गया है कि वैज्ञानिक तथ्यों की अनदेखी की वजह से आपदाएं बढ़ रही हैं।
रिपोर्ट ऑनलाइन प्रेस वार्ता में जारी की गई। जिसका संचालन द स्क्रोल की क्लाइमेट रिपोर्टर वैष्णवी राठोर ने किया। इस वार्ता में हिमधरा पर्यावरण समूह से मान्शी आशर, हिमशी सिंह और प्रकाश भंडारी शामिल हुए और किन्नौर से रोशन लाल नेगी, जिया लाल नेगी व प्रमिति नेगी शामिल हुए।
अध्ययन के लिए चुना गया किन्नौर एक बहु-जोखिम क्षेत्र है, जहां सरकार द्वारा 1500 से अधिक भूस्खलन संभावित स्थलों की पहचान की गई है। हिमशी सिंह ने बताया कि किन्नौर के तीन उप-जलवायु क्षेत्रों में फैले 22 गांवों में लोगों से बातचीत की गई। मई 2023 में रिकांग पियो में एक सार्वजनिक परामर्श आयोजित किया गया। अध्ययन का उद्देश्य जोखिम-ग्रस्त परिदृश्य में रहने के बारे में स्थानीय समुदाय की धारणाओं को समझना था।
अध्ययन के दौरान लोगों के स्थानीय नजरिये को गंभीरता को समझा गया। भूस्खलन संभावित क्षेत्र में जनजातीय समुदायों के पारंपरिक ज्ञान के बारे में पता किया गया। साथ ही, उनके अपने जीवन से मिले अनुभवों के इतिहास का संकलन किया गया। अध्ययन के बाद पाया गया कि आपदा व जलवायु सम्बंधित नीतियां बनाते वक्त ऐसे पारंपरिक ज्ञान का महत्व नहीं दिया गया।
मान्शी ने कहा कि हिमालय को स्वाभाविक रूप से ‘नाजुक’ और वैश्विक जलवायु संकट का शिकार बता कर इन आपदाओं को प्राकृतिक और आकास्मिक दर्शाया जाता है। इसमें स्थानीय संदर्भ में आपदा और जलवायु जोखिम में योगदान देने वाले ऐतिहासिक कारकों और सामजिक आर्थिक प्रक्रियों और सरकारी नीतियों के प्रभाव को छुपा देता है।
इस अध्ययन में हमने पाया कि किन्नौर जैसे विविध पारिस्थितिकी तंत्र में लचीलापन बनाने और अस्तित्व को कायम रखने के लिए समाज की परम्पराएं थी जो धीरे-धीरे बदल गयीं। भाषाविद् रोशन लाल नेगी ने भोटी भाषा के गीतों और गांवों के नामों में स्थानीय भौगोलिक और जलवायु ज्ञान की जानकारी देते हुए कहा, “अतीत में पहाड़ी खतरों (जैसे भूस्खलन और बाढ़) के बारे में लोगों के बीच एक मजबूत स्थानीय चेतना थी, जो मौखिक इतिहास, भाषा, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रथाओं (रीति-रिवाजों) में साफ दिखता था। लेकिन आधुनिक विज्ञान में इस चेतना की अनदेखी की गई, जिस वजह से आपदाओं के साथ-साथ नुकसान भी बढ़ा।”
हिमधरा से जुड़े प्रकाश भंडारी ने कहा, “आज़ादी के बाद किन्नौर में राज्य द्वारा कल्याणकारी नीतियों और मोटर सड़कों से विकास की शुरुआत हुई। 1962 में भारत-तिब्बत व्यापार पर रोक, अनुसूची-5 क्षेत्र की घोषणा, भूमि सुधार और बागवानी पर जोर देने जैसी प्रक्रियाएं हुई, जिससे नए अवसर तो खुले, लेकिन महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव भी आए।”
1990 के दशक में नकदी आधारित बागवानी और वाणिज्यिक खेती पर पूरी तरह समाज निर्भर हो गया और राष्ट्रीय राजमार्ग पर निर्भरता बढ़ी। 4,000 मेगावाट की स्थापित क्षमता वाली 30 छोटी और बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण के कारण भूमि उपयोग में तेजी से बदलाव आया। किन्नौर वन प्रभाग में 90% वन भूमि का हस्तांतरण जलविद्युत परियोजनाओं और ट्रांसमिशन लाइनों के लिए किया गया है, जिससे आधिकारिक तौर पर 11,500 से अधिक पेड़ नष्ट हुए।
जिया लाल नेगी ने बताया कि भूमि उपयोग में बदलाव के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन की वजह से किन्नौर में भूस्खलन और बाढ़ जैसी लगातार आपदाएं बढ़ी हैं। बढ़ते तापमान के कारण सतलुज घाटी में हिमनद झीलों में 97% की वृद्धि हुई है। मूरंग और पूह क्षेत्र, कटाव और भूस्खलन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं, 67% भूस्खलन-ग्रस्त क्षेत्र के साथ, इन क्षेत्रों में प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं से खतरा है। जबकि निचार क्षेत्र कुल भूस्खलन-ग्रस्त क्षेत्र का केवल 14% था, लेकिन आज यहा अचानक बाढ़ के कारण भूस्खलन व्यापक और सामान्य हो गये।
हिमाचल सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार 2007 और 2015 के बीच किन्नौर जिले की लगभग 26,257 हेक्टेयर भूमि को अलग-अलग आपदाओं से नुकसान पहुंचा। इसमें सबसे अधिक नुकसान 2013 की बाढ़ से हुआ। पशुपालन को सबसे अधिक नुकसान हुआ जिसमें 12,000 से अधिक पशु मरे। उसी साल में 63,000 पेड़ भूस्खलन और आपदाओं के चलते नष्ट हुए।
रिपोर्ट में सुझाव दिए गए हैं कि आने वाले समय में आपदा से बचाव के लिए - ज्ञान और संसाधनों के प्रबंधन का 'विकेंद्रीकरण और लोकतांत्रिकरण’ आवश्यक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि -
1- जिला लैंडस्लाईड हैजर्ड ज़ोनेशन में भूस्खलन के खतरों, जोखिमों और संवेदनशीलता मानचित्रों में दर्शाए हैं – ये पंचायतों को उपलब्ध करवाना आवश्यक है और इस मौजूदा डेटा सेट को एकत्रित कर समुदायों की मदद से अपडेट किया जाना चाहिए।
2. ग्राम सभाओं के साथ परामर्श कर पेसा और सीएफआर समितियों के तहत भूमि उपयोग योजनाएं और भूमि क्षमता मानचित्र तैयार करना, इसके लिए पंचायतों को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान की जानी चाहिए। युवाओं और महिला समूहों की भागीदारी के साथ प्रशासन और पंचायतों के बीच नागरिक विज्ञान पर आधारित व्यावहारिक क्षमता वर्धन कार्यक्रमों व संवादों का आयोजन करना
3. राजमार्ग और ग्रामीण सड़कों के निर्माण में प्रशासनिक मंजूरियों के दौरान भूगर्भीय स्थिरता को मानदंडों में पूर्ण रूप से शामिल किया जाना चाहिए जिनकी योजना और क्रियान्वयन में स्थानीय पंचायतों और वन अधिकार समितियों की भागीदारी अनिवार्य होनी चाहिए।
4. सुरक्षित अपशिष्ट जल निपटान के लिए उचित जल निकासी योजना। ऐसे किसी भी निर्माण कार्य की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए जो प्राकृतिक जल निकासी में बाधा डालता हो और ऐसी जानकारी पंचायतों को प्रदान किए गए आपदा प्रशिक्षण का हिस्सा होनी चाहिए।
5. किसी भी नई तकनीक और विकास कार्य को अपनाने से पहले, आपदा जोखिमों को स्थापित किया जाना चाहिए - वैज्ञानिकों, भू-तकनीकी इंजीनियरों, पर्यावरणविदों और जल विज्ञान विशेषज्ञों के इनपुट के साथ आपदा योजना और जोखिम मूल्यांकन में पारंपरिक ज्ञान को शामिल करना
6. प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं पर प्रतिबंध और सभी मौजूदा परियोजनाओं के नियमित सुरक्षा ऑडिट के साथ बांध सुरक्षा नियमों का सख्त कार्यान्वयन
7. भूमिहीन व्यक्तियों की आपदा प्रभावित भूमि के बदले में वन भूमि आवंटित करने के लिए राज्य सरकारों को सशक्त बनाने के लिए वन संरक्षण अधिनियम 1980 में संशोधन। एफसीए संशोधन 2023 को रद्द करें
8. सबसे ज़रुरतमंद समुदायों को प्राथमिकता में नोतोड़ आवंटन किए जाए और इसमें ज़मीन की गुणवत्ता, क्षेत्र की सुरक्षा को जांचा जाए – इसके लिए भूस्खलन के जोखिम को नियंत्रित करने के लिए मिट्टी कटाव और रिसाव में रोक के लिए ज़रूरी निर्माण में तकनीकी और वित्तीय समर्थन सरकार की तरफ से मिलना लाभान्वित परिवारों और हकदारों को मिलना ज़रूरी है।
9. वन अधिकार अधिनियम 2006 का कार्यान्वयन कानूनी ढांचा प्रदान करता है जिसके द्वारा समुदाय जैव विविधता, जल स्रोतों और चरागाहों की रक्षा और स्थायी प्रबंधन, उपयोग और सुरक्षा कर सकते हैं।