बिहार चुनाव : 73 फीसदी बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में 20 लाख से अधिक प्रवासियों ने बदल दिया नेताओं का मुद्दा

बाढ़ कभी चुनाव में प्रबल मुद्दा नहीं बन पाई लेकिन आपदा की राहत सियासत की नई धुरी है। वहीं गांव घर को लौटे प्रवासी भी अब राजनीतिकों को सबक सिखाने वाले अहम किरदार हैं।
Photo : DTE
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देश में 10 नवंबर, 2020 की तारीख को इतिहास के पन्ने में दर्ज रखा जाएगा। आज बिहार में चुनावी नतीजे सामने आएंगे और पूरा सूबा अपने 37वें  मुख्यमंत्री का चेहरा देखने के लिए बेताब रहेगा। एक तरफ समूचे चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जनता दल (यूनाइटेड) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने बिहार की जनता को अपने 15 वर्ष के विकास और सुशासन की दुहाई देकर वोट मांगे तो दूसरी तरफ लोगों को पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के शासनकाल की याद जंगलराज कहकर दिलाते रहे। वहीं, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के तेजस्वी यादव ने अपने अतीत के बजाए महागठबंधन का दामन थामकर बिहार के भविष्य के सपनों पर अपना ध्यान केंद्रित किया। डर और सुनहरे भविष्य के इस चुवानी अभियान में एक बात सबसे ज्यादा गौर करने लायक बनी, वह थी बाढ़ और रोजगार जैसे जमीनी मुद्दों की वापसी। डाउन टू अर्थ ने बिहार के कुछ चुनिंदा विशेषज्ञों से जाना कि आखिर क्यों और कितनी असरदार तरीके से हुई इस बार मुद्दों की वापसी : 
बिहार के कुल 94163 वर्ग किलोमीटर में 68800 वर्ग किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र (73.6 फीसदी) बाढ़ संभावित क्षेत्र है। इसमें नेपाल और बिहार से जुड़े कोसी और सीमांचल क्षेत्र के जिले अत्यधिक बाढ़ प्रभावित है। आजादी के इतिहास से लेकर अब तक दर्ज बाढ़ के आंकड़े यह बताते हैं कि शायद ही कोई वर्ष हो जब इन क्षेत्रों में बाढ़ न आती हो। इनमें कई वर्ष ऐसे भी रहे हैं जब यह बाढ़ विनाशकारी बनकर आपदा बन गई। बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के मुताबिक 1997 में बीते 30 वर्षों के मुकाबले उत्तर बिहार में सर्वाधिक बाढ़ आईं। वहीं 1978, 1987, 1998, 2004, 2007 यह ऐसे वर्ष रहे जब बाढ़ें विनाशकारी बनीं।  
विभाग के मुताबिक 2004 में तो बुरी तरह से बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 23490 वर्ग किलोमीटर था और करीब 800 लोगों की जानें चली गई थीं।  वहीं, जान-माल की क्षति यहां की नियति बन चुकी है। इसके बावजूद बाढ़ एक प्रबल मुद्दा कभी नहीं बन सका है। इस बार के चुनाव में कुछ सुगबुगाहट जरूर हुई है। 
कोशी नव निर्माण मंच के संयोजक और बाढ़ क्षेत्र में सामाजिक लड़ाई लड़ने वाले महेंद्र यादव ने बताया कि उत्तर बिहार में 16 जिलों में करीब 50 से अधिक विधानसभा सीट ऐसी होंगी, जो बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में हैं। हालांकि बाढ़ अब भी प्रबल तरीके से मुद्दा नहीं बन पाया। मुआवजे, क्षतिपूर्ति, लगान जैसे पहलुओं पर ज्यादा बात हुई। 
कोसी क्षेत्र में सुपौल, सहरसा और मधेपुरा जबकि सीमांचल में किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कटिहार जैसे जिले शामिल हैं। महेंद्र कहते हैं कि इन जिलों की ही बात करें तो जाति के धुरी पर चलने वाले चुनाव में इस बार बाढ़ से जुड़े मुद्दे को भी प्रत्याशियों ने कहा और सुना। खासतौर से  विपक्ष (महागठबंधन) ने जनता के मुद्दों को खोजा और अपने घोषणा पत्र में जगह दी, चुनाव प्रचार के दौरान आश्वासन भी दिया। इसके बाद सत्ता पक्ष के प्रत्याशियों को भी इन मुद्दों पर आना पड़ा। 
बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का कोई ख्याल नहीं रखा गया है। भले ही बिहार देश के सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है। कोसी बाढ त्रासदी (2008) के पुनर्वास का काम अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। सरकार की ही रिपोर्ट के मुताबिक इस त्रासदी में कुल 2,36,632 घर बर्बाद हुए थे, इनमें  क्षतिपूर्ति के तौर पर महज 67,758 घर (24 फीसदी) ही बन पाए हैं।  76 फीसदी काम नहीं हो सका। वर्ल्ड बैंक ने 2010-11 में बिहार कोशी फ्लड रिकवरी प्रोजेक्ट के तहत 770 मिलियन डॉलर का बजट दिया था। 2018 तक इस बजट में से पुनर्वास का महज 24 फीसदी ही काम हो पाया। जबकि 250 मिलियन डॉलर वाले बजट का दूसरा चरण कोशी बेसिन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के नाम से शुरु हुआ, जिसमें पुनर्वास का प्रावधान निकाल दिया गया। जो भी मकान अभी तक बनाए गए वह पूर्ण ध्वस्त श्रेणी के थे, आंशिक श्रेणी के मकानों पर तो अभी तक काम ही नहीं शुरु हुआ। 
वहीं  कोसी तटबंधों के बीच रहने वाले परिवारों का दुख दर्द सिर्फ मुआवजे को हासिल करने की लड़ाई में ही सिमट जाता है।  कुछ परिवारों को छह हजार रुपये मिल जाते हैं और लोगों को लगान व उपकर भी देना पड़ता है। ऐसे में इस बार महागठबंधन ने लगान की माफी का आश्वासन दिया है। 
बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक व लेखक दिनेश कुमार मिश्र डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि बाढ़ कभी प्रबल तरीके से मुद्दा नहीं रहा। इस बार विपक्ष ने बाढ़ से जुड़ी कुछ चीजों को अपने घोषणा पत्र में जगह दी है। हालांकि, मामला सिर्फ रिलीफ पर आकर रुक गया है। 
विधानसभाओं की तमाम रिपोर्ट इस बात का जिक्र करती हैं कि कई बार पहले इन रिलीफ को खैरात कहकर लेने से खारिज किया गया है। जब लोग कहते हैं कि कुछ नहीं मिला तो नेता उसे अच्छी तरह से समझते हैं कि क्या देना है। यह लेने और देने का खेल बन गया है। पीड़ित को भी हिस्सेदार बनाकर उसका असल क्षतिपूर्ति नहीं किया जा रहा। पीड़ित भी यह नहीं समझ पाता कि उसने क्या खो दिया है। इसलिए राजनीति अब रिलीफ के नाम पर होती है, बाढ़ के नाम पर नहीं।
मिसाल के तौर पर 1935-36 विधानसभा डिबेट्स में रिलीफ के लिए कहा गया कि लोगों को डेमोरलाइज न करें। डिबेट्स में जिन शब्दों का इस्तेमाल किया गया है उनसे स्पष्ट है कि कोई रिलीफ नहीं चाहता था। आज यह ताकत कहीं नहीं है। चुनाव में कोई नहीं कह सकता कि मुझे रिलीफ नहीं चाहिए। जैसे ही जनता कहती है कि "हमरा के कुछ नहीं भेटईले, वैसे ही नेता समझ जाते हैं कि इन्हें क्या भेंटना है।"   
बिहार में डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट, 2005 बना। इसमें हर क्षति की एक कीमत तय कर दी गई। और अब उसी कीमत के आधार पर मतदान में वादे होते हैं।असल समस्याओं पर अभी तक कोई ध्यान नहीं है। बाढ़ के मसले पर देखें तो  2004 में बिहार की बाढ़ का असल क्षेत्र 23 लाख हेक्टेयर क्षेत्र था, जिसे 47.5 लाख हेक्टेयर पहले लिखा गया। केंद्रीय जल आयोग के पास अभी यही क्षेत्र दर्ज है, जबकि इसका मतलब होगा कि उत्तर बिहार में उस वक्त एक इंच जगह पानी ने नहीं छोड़ी। बाद में इसे घटाकर 23 लाख हेक्टेयर क्षेत्र किया गया, जिसमें सर्वाधिक बर्बादी हुई थी। वहीं वर्ष 1994 में बिहार में 68 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर बिहार में पानी था। 
पटना स्थित एएन सिन्हा सोशल साइंट इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं कि प्रवासियों का घर लौटना इस बिहार चुनाव के मुद्दों को तय करने वाली एक अहम घटना रही। प्रवासियों की वजह से ही रोजगार का मुद्दा जोर पकड़ सका। जो कि राजनीति का एक सकारात्मक पहलू है। इस चुनाव में सत्ता पक्ष के मुकाबले विपक्ष में तेजस्वी यादव ने कहा कि पहली कैबनिट के पहले कलम से 10 लाख लोगों को रोजगार देंगे। जबकि एनडीए ने विभागवार वैकेंसी का हवाला देते हुए कहा कि इस पर 58 हजार करोड़ रुपये इस पर खर्च होंगे, तो विकास कैसे होगा। इससे जनता को समझ में आ गया कि मौजूदा सत्ता नौकरी पर जोर नहीं दे रही है।  
यही कारण है कि नौजवानों की भीड़ तेजस्वी की रैली में आने लगी। वहीं बाद में भाजपा ने मैनिफेस्टो में 19 लाख लोगों को रोजगार देने की बात कही। यह जनता की नजरों में एक तरह का आत्मविश्वास टूटने जैसा था। वहीं जदयू ने कहा कि उन्होंने अपने कार्यकाल में छह लाख लोगों को रोजगार दिया जबकि पूर्व 15 वर्ष (लालू यादव शासनकाल) में महज 97 हजार लोगों को नौकरी दी गई। बहाली भले ही नीतीश सरकार में हुई लेकिन कॉट्रैक्ट पर हुई। जब कोर्ट में सरकार ने यह कह दिया कि यह हमारे कर्मचारी नहीं है बल्कि कांट्रैक्ट पर नियुक्त कर्मचारी हैं तो इस बात ने भी लोगों के बीच यह अविश्वास पैदा किया कि यह सरकार नौकरी या रोजगार पर ज्यादा केंद्रित नहीं है। इससे एंटी एंकेबसी को और बल मिला। 
वहीं, पीएम नरेंद्र मोदी जी भी आए और उन्होंने सवा करोड़ के पैकेज का चर्चा नहीं किया। बिहार को क्या दिया यह भी नहीं बताया। विशेष राज्य का दर्जा देने की बात नहीं की। पुलवामा और मंदिर पर हुई बात से लोगों का जरूर मोहभंग हुआ है। वे एक आइडेंटिटी पॉलिटिक्स करते रहे जो कि लोगों को पसंद नहीं आई। मसलन तीन नए कृषि बिल पर भी कोई बात नहीं की। लेकिन बिहार ने इस बार मुद्दों को पकड़े रहा क्योंकि विपक्ष ने बिल्कुल भी अपना गोलपोस्ट चेंज नहीं किया। यदि केरल की राजनीति देखिए वहां जनता हर पांच साल पर सरकार बदलती रहती है, यही होना चाहिए। शायद जनता इसी मूड में है। 
बिहार के आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक करीब 20.85 लाख प्रवासी मजदूर  लॉकडाउन के दौरान वापस अपने गांव को आए। कोशी नव निर्माण मंच के महेंद्र कहते हैं कि इस कोरोनाकाल में गांव में भी लाख वादों के बावजूद काम न मिलने की वजह से उनमें सरकार बदलने का एक गुस्सा दिखाई देता है। इसलीए शायद नीतीश कुमार के सात निश्चय के बावजूद तेजस्वी यादव  की ओर से  कमाई, पढ़ाई, दवाई, सिंचाई, पहनाई, सुनवाई कार्रवाई की बात उन्हें ज्यादा जंची। 
 
बहरहाल इस खींचतान में विजयी किसी एक को होना है और भविष्य यह बताएगा कि इनमें से कौन मुद्दों पर टिके रहेंगे। नहीं तो जनता फिर से उन्हें मुद्दों पर लाने का सबक सिखाएगी।   
 

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