मध्य प्रदेश के मोरवा टाउन में सन 1957 का एक कानून आजकल चर्चा का विषय बना हुआ है। आप किसी भी व्यक्ति से बातचीत शुरू कीजिए, बात ‘कोयला धारक क्षेत्र अधिनियम’ पर आकर ही खत्म होगी। इसकी वजह भी है।
कोल इंडिया लिमिटेड की सहायक कंपनी नॉर्दन कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) मोरवा कस्बे और आसपास के 10 गांवों का अधिग्रहण इसी कानून के जरिये करने जा रही है। अधिग्रहण के बाद यह पूरा क्षेत्र कोयला खदान में तब्दील होगा और सिंगरौली का यह कस्बा नक्शे से मिट जाएगा। देश की ऊर्जा राजधानी के तौर पर प्रसिद्ध सिंगरौली में अच्छे कोयले के भंडार हैं। सन 1950 के दशक में, जब इस इलाके में तीव्र औद्योगिक विकास के चलते हजारों की तादाद में लोग उजड़ने लगे थे, तब मोरवा बसना शुरू हुआ था।
यहां मूलत: सात गांवों में लोगों के आने का सिलसिला शुरू हुआ, जिसने आगे चलकर 50 हजार की आबादी और 11 म्युनिसिपल वार्ड वाली एक चहलपहल भरी टाउनशिप का रूप ले लिया। खनन से निकलने वाली धूल में लिपटे मोरवा में आज पांच स्कूल, तीन अस्पताल, एक बस अड्डा और एक रेलवे स्टेशन है। राष्ट्रीय राजमार्ग 74 भी यहां से गुजरता है। कस्बे के ज्यादातर लोग कोयला खदानों की वजह से पनपे काम-धंधों में लगे हैं। विडंबना देखिए, जिन खदानों की वजह से मोरवा फला-फूला वही खदानें इसे निगल जाएंगी। खनन के कारण पूरी तरह विस्थापित होने वाला मोरवा संभवत: देश का पहला कस्बा होगा।
कैसे हुई शुरुआत?
सबसे पहले, साल 2015 के आखिर में स्थानीय मीडिया ने खबर दी कि कोयला खदानों के विस्तार के लिए मोरवा के वार्ड नंबर 10 और गोंड बहुल आसपास के 10 अन्य गांवों का अधिग्रहण हो सकता है। इससे कस्बे के बाहरी इलाकों में बसे 400 परिवारों का उजड़ना तय था। लेकिन इस साल चार मई को अचानक कोयला मंत्रालय ने ‘कोयला धारक क्षेत्र अधिनियम’ की धारा-4 के तहत दो चरणों में 19.25 वर्ग किलोमीटर जमीन के अधिग्रहण के लिए दो विशेष गजट अधिसूचनाएं जारी कर दीं। तत्काल भूमि अधिग्रहण के लिए यह एक आपात प्रावधान है जिसकी चपेट में पूरा मोरवा आ जाएगा।
इस अधिग्रहण का स्थानीय निवासियों ने यह कहते हुए विरोध किया कि अधिग्रहण के नोटिस जारी करने में कई कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन किया गया है। कानूनन, नोटिस जारी करने के 90 दिनों के अंदर निवासियों को अपनी आपत्ति दर्ज कराने की छूट मिलनी चाहिए। इस बारे में लोगों ने जून को नॉर्दन कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) को एक पत्र भी लिखा था। लेकिन एनसीएल के अफसरों ने बात करने से ही इनकार कर दिया। स्थानीय निवासियों के संगठन ‘सिंगरौली विकास मंच’ के सचिव विनोद सिंह बताते हैं, “हमने अपनी आपत्तियां दर्ज कराईं लेकिन एनसीएल के अधिकारियों ने इन्हें स्वीकार नहीं किया।”
15 अगस्त को लोगों ने आखिरकार सिंगरौली जिलाधिकारी शिवनारायण सिंह चौहान से गुहार लगाई। हालांकि, आपत्तियां दर्ज कराने की तारीख निकल चुकी थी फिर भी जिलाधिकारी ने इसकी छूट दे दी। जिसके कारण 10 सितंबर को एनसीएल को जवाब देना पड़ा। इसमें कहा गया कि कोयला धारक क्षेत्र के तौर पर मोरवा में जमीन की पहचान 1960 में की गई थी। एनसीएल के कोयला उत्पादन लक्ष्यों में सुधार के लिए ऐसा करना आवश्यक है। एक पत्र में एनसीएल के अध्यक्ष तापस कुमार ने कहा है, “कोयला धारक क्षेत्र अधिनियम के तहत खनन प्रभावित लोगों को पर्याप्त मुआवजा दिया जाएगा।” लेकिन न केवल भूमि अधिग्रहण बल्कि मुआवजा और पुनर्वास को लेकर भी एनसीएल के अधिकारी चुप्पी साधे हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेता कल्की शुक्ला कहते हैं, “सूचना के अधिकार कानून के तहत कई बार जानकारी मांगे जाने के बावजूद हमें राहत और पुनर्वास के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली।”
एनसीएल के एक वरिष्ठ अधिकारी ने डाउन टू अर्थ को बताया कि विस्थापितों को बसाने के लिए 1,000 एकड़ में ‘न्यू मोरवा’ नाम से स्मार्ट सिटी बनाने की योजना है। लेकिन यह शहर केवल चार वर्ग किलोमीटर में फैला होगा। इतनी कम जगह में भला मोरवा के 50 हजार और आसपास के गांवों के 3,500 लोगों का पुनर्वास कैसे संभव है?
विनोद सिंंह का आरोप है कि एनसीएल ने विरोध-प्रदर्शन में शामिल होने लोगों के ठेके निरस्त करने की धमकी दी है। होटल मालिक विनोद सिंह, जो एनसीएल के लिए ठेके पर कोयले की ढुलाई किया करते थे, एनसीएल अधिकारियों के इस रवैये को देखकर बहुत आक्रोशित हैं। वह कहते हैं, “यह कस्बा एनसीएल के लिए काम करने वाले लोगों से आबाद हुआ था। लेकिन अब वे ही हमें नहीं बता रहे कि हमारे मुआवजे और पुनर्वास का क्या होगा?” पुनर्वास और मुआवजे के ब्यौरे की मांग करते हुए मोरवा के निवासी पिछले जून महीने से चार विरोध रैलियां निकाल चुके हैं।
मुआवजे में अड़चन
मोरवा और आसपास के निवासियों को आशंका है कि मुआवजे की प्रक्रिया बेहद पेचीदा होगी। जिन लोगों के पास पट्टे हैं या जो जमीन के पंजीकृत मालिक हैं वे मुआवजे के हकदार होंगे, जबकि बाकी लोग वंचित रह जाएंगे। ऐसा करने से पुनर्वास के दावों की संख्या कम रहेगी। लोगों को अपनी जमीनों के अच्छे दाम मिलने की भी कोई उम्मीद नहीं है। सामाजिक कार्यकर्ता अवधेश कुमार बताते हैं, “कोयला धारक क्षेत्र अधिनियम के तहत मुआवजे की दरें साल 2014 के भूमि अधिग्रहण कानून के मुकाबले पांच गुना कम हैं। हमें भूमि अधिग्रहण कानून के तहत मुआवजा मिलना चाहिए।”
मोरवा के बाहरी इलाके में बसे कत्हस गांव में कई जमीन मालिकों को मुआवजा मिलने के आसार इसलिए नहीं क्योंकि उनके पास पट्टे नहीं हैं। जिलाधिकारी ने नए पट्टों के पंजीकरण पर भी रोक लगा दी है। जिलाधिकारी कार्यालय के सूत्रों के मुताबिक कई भू-माफिया आदिवासी भूमि को हड़पने में जुट गए हैं।
गोंड आदिवासी और दिहाड़ी मजदूर शिव कुमार सिंह अयाम कहते हैं, “जमीन को पट्टे में बदलना आज सबसे बड़ी समस्या है। पटवारी ने एक हेक्टेअर जमीन के लिए 20 हजार रुपये मांगे थे। वन अधिकार कानून के तहत हम अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हैं लेकिन स्थानीय पंचायत की भी सुनी जानी चाहिए।”
विडंबना यह है कि इस मामले में शायद वन अधिकार कानून भी लागू न हो क्योंकि अधिग्रहण, नई खदानों के लिए नहीं बल्कि मौजूदा खदानों के विस्तार के लिए हो रहा है। मध्य प्रदेश सरकार ने तापविद्युत संयंत्रों (थर्मल पावर प्लांटों) में एक लाख करोड़ रुपये के निवेश का निर्णय लिया है। उम्मीद है कि साल 2017 तक अकेला सिंगरौली ही नेशनल ग्रिड को करीब 35 हजार मेगावाट बिजली देगा। लेकिन मोरबा का भविष्य अंधकारमय लग रहा है। सिंगरौली जन आंदोलन के सदस्य गौरी शंकर द्विवेदी कहते हैं, “इस कस्बे को बनाने में हमें 50 साल लगे और पांच साल में यह सब मिट्टी में मिल जाएगा। समझ नहीं आता इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी।”