“जब भी मैं किसी गुफा की यात्रा करता हूं, तब मुझे लगता है कि मेरे अंदर अतीत की भावना इतनी गहराई तक बस गई है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मेरे माता-पिता और दादा-दादी ने यह सब कभी नहीं देखा। मैं यह भावना जितना ज्यादा अपने लिए महसूस करता हूं, उतना ही उनके लिए और अपने समुदाय के लिए भी महसूस करता हूं।” छत्तीसगढ़ के बस्तर निवासी पैंतालीस वर्षीय केएस लोया का एक जुनून के साथ यह कथन बाहरी लोगों के लिए समझना मुश्किल हो सकता है। लेकिन मध्य भारत के गोंड समुदाय के लिए कछारगढ़ का तीन दिवसीय माघ पूर्णिमा जात्रा (मेला, तीर्थ) समुदाय के इतिहास के साथ फिर से जुड़ने का एक दुर्लभ अवसर प्रदान करता है।
महाराष्ट्र के गोंदिया जिले के सेलेकासा तहसील के घने जंगलों में लगने वाला यह वार्षिक मेला मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, विदर्भ, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के करीब 500,000 गोंड तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है। इस मेले का आयोजन माता काली कंकाली—जिसे कछारगढ़ गुफा में रहने वाली गोंड जनजाति की मां माना जाता है—के बच्चों की मुक्ति का जश्न मनाने के लिए किया जाता है। यह मेला वर्ष 1976 तक मध्य भारत में आयोजित किए जाने वाले हजारों गुप्त आदिवासी जात्राओं में से एक था। इसके बारे में महाराष्ट्र के आदिवासी छात्र आंदोलन के कार्यकर्ताओं के एक समूह से पता चला था। गोंड आदिवासियों के धर्म, संस्कृति और भाषा पर 40 किताबें लिखने वाले और और गोंड जनजाति के सांस्कृतिक और धार्मिक निकाय, गोंडी पूनम महासंघ के शीर्ष नेता और शोधकर्ता मोतीरवन कांगली ने बताया, “सीयू विल्स जैसे अंग्रेजी इतिहासकारों की पुस्तकों में भी इस मेले के बारे में जिक्र मिलता है।”
जिज्ञासा से भरे कांगली आयोजन स्थल पर गए और वहां उन्हें कछारगढ़ गुफा मिली। “गोंड जनजाति के अमूमन सभी लोगों ने कछारगढ़ की पौराणिक कथा के बारे में सुना था, लेकिन उनमें से कुछ ही लोगों को पता था कि कछारगढ़ गुफा कहां है या है भी कि नहीं। उन दिनों नवगठित गोंडवाना गणतंत्र पार्टी गोंड समुदाय को एकजुट करने की कोशिश कर रही थी। हमें लगा कि मेला इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक शक्तिशाली प्रतीक की भूमिका निभाएगा और हमने इसके महत्व का प्रचार शुरू कर दिया।” उस समय वर्ष 1985 चल रहा था। वर्तमान में कछारगढ़ मेला भारत का सबसे बड़ा आदिवासी मेला है।
इस मेले से जुड़ा एक केंद्रीय आयोजन कछारगढ़ गुफा की चढ़ाई है, जो ढानेगांव के निकट एक छोटे से आदिवासी गांव के पास तीव्र ढलान वाली, घनी जंगली पहाड़ियों के बीच स्थित है। जब नुकीली पहाड़ियों से होकर गुजरने वाली गुफा के मार्ग पर समूहों का जमघट होता है तब जय बड़ादेव और जय गोंडवाना के नारे हवा में गूंजने लगते हैं। ढानेगांव से तीन किलोमीटर की कठिनाई भरी यात्रा के अंत में पहाड़ी पर एक विशाल गुफा जैसी संरचना मिलती है, जहां से जंगली जानवरों की उपस्थिति और उनके मल की गंध आती है। कांगली कहते हैं, “तीर्थ यात्रा के तीन दिवसीय आयोजन के अलावा यह गुफा बड़ी बिल्लियों और भेड़ियों का निवास स्थान है। आदिवासी संस्कृति का यही सौंदर्य है। हम संसाधनों के असली मालिकों से कुछ भी छीनने में विश्वास नहीं करते।”
तीर्थयात्रियों की भीड़ गुफा के अंधेरे रास्ते पर खुद को धकेलते और चट्टानों के तीखे उतार-चढ़ाव को पार करते हुए, एक बड़ी सी चट्टान के पीछे छिपे और आश्चर्यजनक रूप से सूर्य की रोशनी से आलोकित छिद्र के नीचे स्थित ठंडे पानी के एक छोटे से तालाब तक पहुंचती है। इसी के साथ यात्रा का समापन हो जाता है।
इसके बाद शुरू होता है नुकीले चट्टानों और बिखरे पत्थरों से गुजरते हुए नीचे उतरने का सिलसिला। पैरों में पत्थर चुभने की वजह से चढ़ाई की तुलना में उतरना अधिक पीड़ादायी होता है। तीर्थयात्रियों को ढानेगांव वापस जाने से पहले आदि माता काली कंकाली के थाना (मंदिर) पर रुकना पड़ता है। कांगली ने मंदिर में नारियल के प्रसाद और धूप जलाते हुए आंगन में बने एक हवन कुंड की ओर इशारा करते हुए बताया, “यह पिछले साल यहां नहीं था।” मंदिर के अंदर, टेराकोटा का एक बड़ा घोड़ा वेदी पर खड़ा है। कांगली ने बताया, “दो साल पहले यहां एक हाथी था। यहां कभी पता ही नहीं चलता कि किसके प्रभाव से ये प्रतीक बदलते हैं।”
उन्होंने बाद में समझाया कि पिछली शताब्दी या उससे भी ज्यादा समय में गोंडी धार्मिक अनुष्ठान हिंदू धर्म से काफी प्रभावित हुए हैं। “हमारे धर्म में अनुष्ठान कम हैं। बड़ादेव को साल में केवल तीन बार भेंट चढ़ाई जाती है और इनमें मौसमी उत्पादन शामिल होते हैं—गर्मियों में महुआ तेल, मानसून में जंगली सब्जियां और सर्दी में धान। नारियल, धूप, दीप, सभी हिंदुत्व से आए हैं। ऐसे मजबूत प्रभाव से लड़ना आसान नहीं है।”
एक बार जब तीर्थयात्री सुरक्षित लौट आते हैं, तो तीर्थयात्रा की समाप्ति का उत्सव संगीत के साथ मनाया जाता है। यह असामान्य नहीं है कि दर्शक अवचेतन की अवस्था में आते हैं और आवेश में चलते हैं, हालांकि किसी को हानि नहीं पहुंचाते।
आखिर क्या है जो भीड़ को तीर्थयात्रा के लिए प्रेरित करता है? ग्रामीण जनता के लिए मेले का महत्व मोटे तौर पर धार्मिक है। मध्यप्रदेश में बालाघाट की एक कृषि मजदूर छन्नी देवी ने कहा, “हम यहां आते हैं क्योंकि यह तीर्थ है।” लेकिन शिक्षित युवा पीढ़ी के लिए यह पहचान का मसला है। ग्रामीण युवाओं के एक समूह से जब पूछा गया कि उनके लिए इस मेले का क्या मतलब है, तो वे जोर-जोर से गोंडवाना के नारे लगाने लगे। एक लड़का चिल्लाया, “हमें गोंड होने पर गर्व है। पर हम हिंदू नहीं हैं।”
भोपाल से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र गोंडवाना किरण के युवा संपादक राहुल टेकम, जो आठ साल से इस मेले में जा रहे हैं, ने समझाया, “ग्रामीण आदिवासी संस्कृति का अभी तक दस्तावेजीकरण नहीं किया गया है। हममें से कई खुद को सुरक्षित रखने के लिए प्रमुख संस्कृतियों के साथ अपनी पहचान कायम रखने का प्रयास करते हैं। यह मेला एक ऐसी जगह है जहां हम सभी गोंड इकट्ठे हो सकते हैं और खुद पर गर्व कर सकते हैं। यहां हम अपनी परंपराओं, किंवदंतियों और साहित्य का सम्मान करना सीखते हैं।”
तो क्या यह मेला अपने अस्तित्व के 20 वर्षों में गोंड जनजाति की सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान को परिभाषित करने में मदद कर पाया है? गोंड समुदाय के एक समूह गोंड संघ मंडी की प्रमुख आनंद मदावि कहती हैं, “वास्तव में काफी हद तक। अब हम हमारे मातृसत्ताक संस्कृति के महत्व, हमारे प्रकृति के करीब की जीवनशैली, हमारे ज्ञानप्रद सामाजिक संगठन और हमारे समृद्ध दर्शन के बारे में बात करते हैं। और हमारे बारे में बहुत कम जागरूक लोग भी हमें सुनने को तत्पर हैं।”
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के महाराष्ट्र के राज्य प्रमुख राज वसुदेव शाह टेकम ने कहा, “जब हमने मेले को पुनर्जीवित किया तो हम इसे अपने धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को फिर से ढूंढने का एकमात्र साधन मानते थे, लेकिन इससे राजनीतिक अभिव्यक्तियों को बाहर रखना मुश्किल काम है। हम गोंड अपना अलग राज्य, हमारी अपनी भाषा, हमारा अपना दमन (धर्म) चाहते हैं।”
कोई भी दस्तावेजीकरण नहीं होने के कारण पुनरुद्धार का रास्ता कठिन हो जाता है। कांगली कहते हैं, “गोंडी भाषा और स्क्रिप्ट को लगभग भुला दिया गया है। ज्यादातर गोंड जिस राज्य में रहते हैं, वहीं की भाषा अपना लेते हैं।” उन्हें गोंडी व्याकरण पर एक किताब लिखने के लिए मजबूर किया गया था, क्योंकि ऐसी कोई भी चीज अस्तित्व में नहीं थी। समुदाय के एक नेता एलआर मारवी ने बताया, “गोंड समुदाय के कई लोगों ने सांस्कृतिक दबाव में आकर अपने उपनाम गोंड को ऊपरी जाति के हिंदू उपनामों से बदल दिया। जैसे- मारवी से मालवीय, कुडसम से कुलकर्णी आदि। हालांकि हाल के वर्षों में कुछ लोगों ने अपने पुराने नामों को फिर से अपना लिया है। लेकिन हिंदू संस्कृति की जड़ें गोंड समुदाय में गहराई तक फैल चुकी है। पश्चिमीकरण और व्यावसायीकरण के प्रभाव भी युवा पीढ़ी के नजरिए को प्रभावित कर रहे हैं। ऊहापोह की ऐसी स्थिति में सांस्कृतिक पहचान को बचाकर रखना आसान नहीं है।”
ऊहापोह की यह स्थिति अस्थायी बाजार से व्यक्त होती है। पारंपरिक रूप से वनवासी गोंड द्वारा दवा के रूप में, अनुष्ठान और जादू के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जड़ी-बूटियों के छोटे स्टालों की तुलना में हिंदू अनुष्ठान के सामान बेचने वाले स्टाल ज्यादा कारोबार करते हैं। युवा लोग वास्तव में सभी वस्तुओं—कलम से लेकर टोपियों, स्कार्फ, चाबी के छल्ले और टी-शर्ट तक—पर गोंड चिह्न और नारे अंकित कर देते हैं। गोंडी स्क्रिप्ट, बोलचाल की भाषा और पौराणिक कथाओं पर पुस्तकों की बहुत मांग है। गोंडी देवताओं की तस्वीरें हिंदू प्रकृति-दर्शन से काफी प्रभावित दिखते हैं। गोंडी धार्मिक त्योहारों और राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं के बारे में जानकारी प्रदान करने वाले एक कैलेंडर में बड़ादेव को भगवान शिव की तरह एक बैल पर बैठे और त्रिशूल धारण किए हुए दिखाया गया है।
गोंड समुदाय की राजनीतिक मांगों में वन अधिकार अधिनियम के संवर्धन, संविधान की आठवीं अनुसूची में गोंडी भाषा को शामिल करना, मातृभाषा में शिक्षा के लिए आदिवासी समुदाय को अधिकार प्रदान करना शामिल हैं।
रात होते ही गोंड समुदाय के पुरुष, महिलाएं और बच्चे जहां बैठे होते हैं-पेड़ों के नीचे, आंगनों में, टार रोड पर—वहीं अपने बिस्तर लगाकर लेट जाते हैं।