व्यंग्य: महाकुंभ दर्शन, बस तुम पुकार लो!
प्रयागराज में हूं। यह निश्चय ही शहर का सौभाग्य नहीं! शहर तो सबको रखता है। अपने भीतर बड़ी इमारतों को भी, और किनारे पर बदबदाती बस्तियों को भी। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ- मैं यहां हूं, यह मेरा ही सौभाग्य है!
यहां रहकर यहां के नदी दर्शन को देखना और महसूस करना एक दैवीय संयोग है। और ऐसा संयोग जिसपर आप आनंदित हों या न हों, दूर वाले जलते जरुर हैं। मैं उस संयोग का साक्षी हूं, खासकर महाकुम्भ के इस आयोजन के दौरान।
वैसे तो माघी मेला मैंने यहां कई दफे देखा है, लेकिन महाकुम्भ के आयोजन ने संगम को वैश्विक ख़बरों में विशेष रूप से बनाये रखा है। इस शहर को इस शहर के लोगों से अधिक दूसरे शहर के लोग देख सुन रहे हैं। इस शहर की कहानी अब दूसरे की जुबानी अधिक कही जा रही।
ये कहानियां निराला, महादेवी वर्मा या पन्त या फिर बच्चन की कहानियों से इतर की कहानियां हैं। यह इस शहर के लोगों की बदकिस्मती है या दूसरे शहर के लोगों का सौभाग्य यह मैं बता नहीं सकता। खैर! दूसरों को भी हमारी कहानी कहने का अधिकार उतना ही है जितना हमें हमारी कहानी गढ़ने का। अपनी बात आप ही कहे तो उसमें आत्म्मुग्ध्त्ता दिखती है!
देश दुनिया से लोग आ रहे हैं। छोटे-छोटे ट्रकों और अन्य वाहनों में ठूंस-ठूंसकर। बड़े, बूढ़े, औरतें, बच्चे सब आ रहें। महाकुम्भ का हिस्सा होना जीवन से अधिक अनिवार्य है। होना भी चाहिए- जीवन में रखा ही क्या है- सब माया है। और इस मायावी दुनिया से हमारे जैसे छोटे लोग ही नहीं आ रहे, बल्कि “बड़े बड़े लोग” भी आ रहे हैं। देश दुनिया से आनेवाले “बड़े लोगों” ने हम जैसे “छोटे लोगों” में भी कुम्भ का विशेष अर्थ पैदा किया है।
इस अर्थ में आस्था के साथ-साथ और भी बहुत कुछ है- अलग अलग दृष्टि से संगम का मंचन है। फ़िल्मी जगत के लोग, व्यापार और उद्धोग के नामचीन लोग, बड़े राजनेता, सरकारी अधिकारी आदि अपने-अपने सरोकारों के साथ इस शहर का भ्रमण लगातार कर रहें हैं। वे आ-जा रहें हैं, उनका आना-जाना, निश्चय ही हमारे आने-जाने जैसा नहीं। उनका आना आगमन है, और जाना प्रस्थान।
उनके आने से शहर में जितनी ख़ुशी होती है उनके चले जाने पर उतनी ही राहत महसूस की जाती है। हम अपने आने-जाने में ही कब बीत जाते हैं, कब गुजर जाते हैं, खुद हमें भी पता नहीं चलता। लेकिन हम जैसे लोगों को अपने आने-जाने में उनके भी साक्षात् दर्शन का सौभाग्य मिल ही जाता है। अगर दर्शन न भी हो तो कम से कम उनकी गाड़ियों में लगे हुआं- हुआं करते हूटरों से उनके आगमन या प्रस्थान की सूचना प्राप्त करा दी जाती है।
नागाओं या हठयोगियों का आकर्षण “मोनालिसा” की “आँखों” के सामने दम तोड़ती जा रही है। आईआईटी बाबा, और चिमटा बाबाओं ने रील और खबर बनाने वालों को ठीक ठाक काम दे रखा है। लगता है इस शहर ने देश-दुनिया को अपने आंगन में उछलने-कूदने की अनुमति दे दी हो। जो “बड़े” हैं वे हुटरों के साथ, या ख़बरों आदि के साथ उछल कूद कर रहें। और जो हम जैसे छोटे लोग हैं उनके जैसे ही उछलने कूदने की कला सीख रहें। प्रयागराज की भूमि उछलने-कूदने की भूमि नहीं रही है।
यह लेट जाने या लोट-पोट हो जाने की भूमि रही है। यहां ‘लेटे हुए हनुमानजी’ की मूर्ति है। हनुमानजी जैसा चरित्र, जो कभी पहाड़ों को उठा कर ले आ रहा हो, तो कभी लंका का दहन कर दे रहा हो, वह भी यहां आकर लेट जा रहा है। यह आनंद की धरती है, जहाँ चिंतित होकर या व्याकुल होकर नहीं जिया जाता। यहां जीवन में केवल काम ही नहीं, केवल आपाधापी नहीं- विश्राम भी है। इसलिए हनुमानजी को भी विश्राम के लिए सबसे उपयुक्त शहर यही लगा। “बड़े लोगों” के साथ बड़ा दुख है- उन्हें चीख-चीखकर बताना पड़ता है कि वे बड़े हैं। कई बार बैनर-पोस्टर से, कई बार विज्ञापन से, या फिर सड़कों पर दिल दहला देनेवाली अपने हुटर लगी गाड़ियों से। उन्हें बताना पड़ता है कि उनके पास आराम का भी समय नहीं है- तब तो वे बड़े हैं।
अपने हिस्से के विश्राम के बाद मैं चला संगम के दर्शन करने। कठिनाइयाँ स्वाभाविक थी। जिससे सब मिलना चाह रहा हो उससे सब कैसे मिल सकता! मैं मिल न सका। खैर दोष मेरा ही अधिक था। मैंने अतिरिक्त प्रयास नहीं किया। मेरे भीतर का आलसी मन रैदासी हो गया। और फिर मन ही मन फुसफुसाया- “मन चंगा तो कठौती में गंगा”। मैंने तय किया गंगा और यमुना से जाकर मिलने से बेहतर है उन्हें अपने पास ही बुला लूं।
“बड़े लोगों” में और संगम में यही अंतर है- “बड़े लोगों” से मिलने का एक असफल प्रयास करना पड़ता है। उन्हें बुलाया नहीं जाता, उनके दर्शन की प्रार्थना की जाती है। जबकि, संगम से जाकर मिला भी जा सकता है, और अपने पास बुलाया भी जा सकता है- “बस तुम पुकार लो।।”। जब जब लोगों को जरुरत हुई उसने नदियों को बुलाया, और वो भागती हुई आई। भगीरथ ने भी तो पुकारा ही था- और गंगा चली आई। जब हमने उन्हें नकारा वो रूठकर चली भी गई- जैसे सरस्वती चली गई। मैंने पुकारा- गंगा और यमुना अपने ममत्ववश मेरे भीतर बहने लगी। मैं अपने भीतर तैरने लगा। आसपास डूबती हुई भीड़ थी।