
1990 के दशक में जब छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में बंदूकों की संख्या बढ़ रही थी और ढोल-नगाड़ों की संख्या कम हो रही थी, तभी एक युवा ढोल को विस्तार देने के मकसद से बस्तर का इलाका छान रहा था। इस युवा को बस्तर क्षेत्र के वाद्य यंत्रों को इकट्टा करने का शौक चढ़ा था।
पूरे गोंडवाना में आदिवासियों के देवता लिंगोदेव की गाथा ने उन्हें इसके लिए प्रेरित किया। माना जाता है कि लिंगोदेव ने ही गाना, नृत्य करना, वाद्यों को बनाना और बजाना सिखाया है। एक विशेष वाद्य यंत्र धूसिर बनाकर उनकी गाथा को गाने की परंपरा रही है। गोंड समाज को व्यवस्था देने में लिंगोदेव की अहम भूमिका रही है। उनकी गाथा में 18 प्रकार के वाद्य यंत्रों का वर्णन मिलता है।
इन्हीं वाद्य यंत्रों की तलाश में अनूप रंजन पांडे ने बस्तर का रुख किया। अपनी इस यात्रा में उन्होंने बस्तर में वाद्यों का बड़ा संसार पाया। उन्होंने बस्तर में आदिवासी संस्कारों को करीब से देखा। यहां के हजारों देवी-देवताओं के हर कुटुंब में अलग-अलग सुर-ताल और धुन उन्हें पता चली। संगीत का भरा पूरा संसार उन्होंने यहां देखा।
लिंगोदेव की गाथा में वर्णित वाद्य यंत्रों अलावा भी उन्हें कई वाद्य यंत्र अपनी यात्रा में मिले। उन्होंने यह भी पाया कि बंदूकों की साए में वाद्यों का चलन सीमित हो रहा है। बस्तर की पहचान उसके स्याह पक्ष से बन रही थी और संगीत नेपथ्य में चला गया था। बम, बारूद और बंदूक की कर्कश ध्वनि में संगीत का फूटना मुश्किल भी था। वातावरण प्रतिकूल होने पर संगीत की लय टूटती दिखी।
इसी टूटी लय को फिर से जोड़ने के लिए अनूप रंजन पांडेय ने सबसे पहले आदिवासी मित्रों की मदद से बस्तर के वाद्य यंत्रों को इकट्ठा किया और उन्हें बजाने और बनाने वालों की खोज शुरू की। पहले उन्होंने वाद्य यंत्रों को संकलित करने का निर्णय लिया था लेकिन फिर उन्हें एहसास हुआ कि केवल संकलित करने से ये वाद्य यंत्र म्यूजियम की विषयवस्तु बनकर रह जाएंगे।
अत: उन्हें वाद्य यंत्रों के उपयोग में लाने जरूरत महसूस हुई। इसी क्रम में वह ऐसे लोगों सैकड़ों लोगों से मिले जो वाद्य यंत्रों को बनाने और बजाने का हुनर जानते थे। उन्होंने इन सभी लोगों का एकजुट कर समूह बनाया। इस समूह को कोयतूर पाड़ नाम दिया गया। 2007-08 में इस समूह ने सीमित या इस्तेमाल से बाहर हो चुके वाद्य यंत्रों की मदद से संगीत और नृत्य की प्रस्तुतियां देनी शुरू कीं। बाद में यह समूह बस्तर बैंड के नाम से लोकप्रिय हो गया।
इस बैंड में बस्तर के बहुत से पारंपरिक समूह जुड़े, उनका अभ्यास और वेशभूषा का चलन बढ़ा। बैंड ने बस्तर के कलाकारों ने 60-65 लोक समूहों को पुनर्जीवित किया है और ये समूह छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य राज्यों और दूसरे देशों में जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। बस्तर बैंड के एक समूह में 25 से 30 कलाकार होते हैं जो एक से डेढ़ घंटे की प्रस्तुति देते हैं।
वर्तमान में बस्तर बैंड से 10 से 15 हजार कलाकार जुड़ चुके हैं। यह बैंड उन्हें अपनी कला और संगीत का जादू बिखेरने का मंच तो दे रहा है, साथ ही बस्तर के दूरदराज के क्षेत्रों में बिखरे कलाकारों को एकजुट भी कर रहा है। ये कलाकार बस्तर के 60 से 70 वाद्य यंत्रों को बजाने में निपुण हैं। ये कलाकार जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया तक अपनी कला का परचम लहरा चुके हैं। अनूप रंजन पांडेय के लिए बस्तर बैंड ढोल को बचाने की मुहिम थी क्योंकि वह मानते हैं कि ढोल जीवन को विस्तार देता है और बंदूक जीवन को विराम देती है। युवाओं को हिंसा से दूर रखने के लिए और उन्हें संगीत की रचनात्मकता से जोड़ने के लिए भी यह जरूरी था।