क्या एग्जिट पोल हो सकते हैं गलत, जानिए पूरा गणित

आइए, जानते हैं कि आखिरकार ये एजेंसियों कैसे चुनाव सर्वेक्षण करती हैं और किस पार्टी को कितनी सीट मिलेगी, इसका आकलन कैसे होता है
Photo Credit : Gettyimages
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आम चुनाव के मतदान का आखिरी चरण पूरा होते ही विभिन्न एजेंसियों के एग्जिट पोल आ गए। लगभग सभी सर्वेक्षण भाजपा और उसके गठबंधन को पूर्ण बहुमत दे रहे हैं।  किसी को ये अनुमान अप्रत्याशित लगे तो कुछ ने इसपर खुशियां मनाई। कई लोग यह पूछते नजर आये कि इन एग्जिट पोल के अनुमान कितने सही होते हैं। लोगों के इस कौतुहल को देखकर यह तो कहा जा सकता है कि एग्जिट पोल करने वाली संस्थाएं लोगों का भरोसा जीतने में अबतक असफल रहीं हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनके बताये अनुमान कई दफा गलत साबित हुए हैं। ऐसे में, यह जानना जरूरी है कि आखिरकार ये एजेंसियों कैसे चुनाव सर्वेक्षण करती हैं और किस पार्टी को कितनी सीट मिलेगी, इसका आकलन कैसे होता है। इसको समझने के लिए डाउन टू अर्थ ने पहले भी कई विशेषज्ञों से बात की है। इन बातचीत के आधार पर जानते हैं कि आखिर कैसे ये चुनाव सर्वेक्षण किए जाते हैं?  

भारत में चुनाव विश्लेषक पिछले 30 सालों से मतदान व मतगणना से पहले भविष्यवाणी कर रहे हैं। चुनाव विश्लेषण का राजनीति विज्ञान काफी पेचीदा है और चुनाव विश्लेषक चुनावों की सटीक भविष्यवाणी करने के लिए विभिन्न तरीकों का प्रयोग करते हैं।  विशेषज्ञों का कहना है कि समस्या दो स्तरों पर हो सकती है – एक, वोट शेयर के ठोस अनुमान पर पहुंचना और दूसरा, वोट शेयर को सीटों में बदलना। प्रमुख चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव का कहना है कि चुनाव विश्लेषण के खराब तरीके अपनाए जा रहे हैं, जिस कारण विश्लेषण पूरी तरह फेल रहे हैं।

यदि सर्वेक्षण का एक भी स्तर भी गलत हो जाता है, तो अनुमान पूरी तरह गलत हो सकता है। साल 2015 में हुए बिहार चुनाव के दौरान एग्जिट पोल और वास्तविक परिणामों में खासा अंतर देखने को मिला। सर्वेक्षकों का कहना है कि यह बहुत खराब नमूने के कारण हुआ था। सर्वेक्षणकर्ता केवल उच्च जाति, अमीर और शहरी लोगों का साक्षात्कार कर रहे थे। केवल यही एक कारण है कि एग्जिट पोल ने बीजेपी का पक्ष लिया, पहले जनमत सर्वेक्षण में उसी रास्ते का अनुसरण किया गया। यादव कहते हैं, '' हमेशा अमीर लोगों तक पहुंचना और बात करना आसान होता है”। बिहार में केवल 11.5 फीसदी मतदाता शहरों में रहते हैं, जबकि शेष मतदाता ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं।

योगेंद्र यादव कहते हैं कि आम धारणा है कि राजनीतिक दल या कॉरपोरेट चुनाव के नतीजों को प्रभावित करते हैं, क्योंकि की विश्वसनीयता दांव पर नहीं होती है। भारत वोटिंग पैटर्न के मामले में अलग है। मतदाता की पसंद उनकी जाति, धर्म, शिक्षा और वर्ग के आधार पर हो सकती है। पूर्वानुमान विज्ञान को इन सभी कारकों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है, दोनों ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में।

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के राजनीतिक विश्लेषक प्रवीण राय कहते हैं कि भविष्यवाणी करने वाली एजेंसियां ​​अपनी कार्यप्रणाली और अपने सर्वेक्षणों से संबंधित विवरण-नमूने, साक्षात्कार किए गए लोगों की प्रोफाइल और स्थान का खुलासा नहीं करती हैं। भारत में चुनाव का पूर्वानुमान ओपिनियन पोल पर आधारित होता है, जो सैंपल मतदाताओं की राजनीतिक पार्टियों की पसंद का पता लगाता है और चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक दल के वोट शेयर की गणना करता है। प्रत्येक पार्टी के अंतिम वोट शेयर की गणना पिछले चुनाव में राजनीतिक दलों के मिले वोट शेयर के आधार पर की जाती है। इस वोट शेयर को एक पूर्वानुमान मॉडल में रखा जाता है, जो राजनीतिक दलों के जीतने की संभावना वाली सीटों की संख्या के बारे में बताता है।

एक्सिस एपीएम के चेयरपर्सन प्रदीप गुप्ता का कहना है कि सही सैंपलिंग एक बड़ा काम है। चुनाव परिणाम की भविष्यवाणी करने से पहले हम एक सर्वेक्षण करते हैं। यह पहला सर्वेक्षण जनसांख्यिकी को समझने के अलावा परिणाम को प्रभावित करने वाले स्थानीय मुद्दों और सही सैंपल की पहान करने के लिए किया जाता है।  

एजेंसियों द्वारा पूर्वानुमानों की घोषणा के लिए अलग-अलग सांख्यिकीय तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। जैसा कि गुणात्मक प्रभाव, विपक्षी एकता का सूचकांक (जब एक पार्टी का वोट बैंक, सहयोगी पार्टी के उम्मीदवार को कितना वोट देता है), क्यूब लॉ, इसमें यह देखा जाता है कि एक प्रतिशत वोट बढ़ने से सीटों पर कितना फर्क पड़ता है और प्रोबेबिलिस्टिक काउंट (बड़े डेटा को समझने के लिए एक सांख्यिकीय टूल है)।

भारत में चुनावी विश्लेषण का एक जाना-माना चेहरा, चेन्नई मैथमेटिकल इंस्टीट्यूट के निदेशक राजीव एल करंदीकर, जो लोकनीति के साथ काम करते हैं, ने बताया कि “हम पहले तय करते हैं कि निर्वाचन क्षेत्रों की कुल संख्या का नमूना लिया जाए – यह 100 से 280 के बीच होता है। हालांकि, एग्जिट पोल में यह संभव नहीं है। आमतौर पर, एजेंसियां ​​अपने चुने हुए कुछ बूथ के 10 मतदाताओं को चुनती हैं।

सबसे कठिन चुनौती वोट प्रतिशत को सीटों में बदलना होता है। करंदीकर कहते हैं, '' मैं हर सीट पर हर प्रमुख पार्टी के वोटों का अनुमान लगाने के लिए ओपिनियन पोल डेटा के साथ-साथ स्विंग मॉडल का इस्तेमाल करता हूं और इन्हें अनुमानों में बदलने के लिए एक संभाव्य गणना पद्धति का उपयोग करता हूं। यदि मतदान प्रतिशत के बीच भारी अंतर है तो विजेता की भविष्यवाणी करना आसान है। एक तरीका यह है कि हर सीट पर जाया जाए और संभावित विजेता का पता लगाया जाए। हालांकि, ऐसे मामलों में जहां उम्मीदवारों के बीच कोई बड़ा अंतर नहीं होता, पूर्वानुमान लगाना आसान नहीं होता। ऐसे मामलों में, विशेषज्ञ बेक टेस्टिंग नामक एक विधि का उपयोग करते हैं। इसके तहत, सर्वेक्षक विभिन्न दलों के पिछले वोट शेयर की जानकारी लेते हैं और उसकी वर्तमान में मिले वोट से करते हैं और इसमें जो अंतर आता है, उसे स्विंग कहा जाता है। इस आधार पर एक आकलन लगाया जाता है।

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