एक तकनीक जिसका विकास मूल रूप से औद्योगिक उपकरणों को जांचने के लिए किया गया था, भविष्य में वही तकनीक स्तन कैंसर का पता लगाने में उपयोग हो सकती है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), रोपड़ के वैज्ञानिक पिछले करीब एक दशक से लीनियर फ्रीक्वेंसी मॉड्युलेटिड थर्मल वेव इमेजिंग नामक इस तकनीक के औद्यौगिक पहलुओं पर काम कर रहे हैं। अब इसी वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित स्तन कैंसर के परीक्षण की एक नई विधि विकसित करने में जुटे हैं।
एक्टिव इन्फ्रारेड थर्मोग्राफी नामक इस तकनीक का उपयोग घने तथा चर्बीदार समेत विभिन्न स्तन प्रकारों और हर उम्र के मरीजों पर किया जा सकेगा। गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाओं में स्तन कैंसर का पता लगाने के लिए भी इसका उपयोग संभव है। इमेजिंग की यह विधि पीड़ा एवं स्पर्श रहित है, जो अन्य प्रचलित तरीकों की अपेक्षा अधिक तेज काम कर सकेगी।
इस तकनीक में थर्मल कॉन्ट्रास्ट के जरिए ट्यूमर का पता लगाया जा सकेगा। प्रयोगशाला में परीक्षण के दौरान इन्फ्रारेड कैमरे से स्तन की सतह से निकलने वाले उत्सर्जन की पहचान करके उस पर होने वाले ऊष्मीय बदलाव की मैपिंग की गई है।
शोधकर्ता रविबाबू मुलावीसला के अनुसार “परीक्षण के दौरान अलग-अलग फ्रीक्वेंसी में थर्मल प्रभाव स्तन मॉडल्स पर डाला गया। इससे उत्पन्न थर्मल तरंगें त्वचा पर एक अंतराल पर निश्चित मात्रा में अस्थायी तापक्रम पैदा करती हैं। ट्यूमर की मौजूदगी शरीर के उस भाग में ऊष्मीय प्रवाह को बदल देती है, जिससे सतह पर तापमान में बदलाव होता है। इस प्रक्रिया के दौरान अलग-अलग समय तथा फ्रीक्वेंसी के आंकड़ों के विश्लेषण से चरणबद्ध एवं विभिन्न आकार की छवियों का निर्माण होता है, जो बेहतर कन्ट्रास्ट के जरिए ट्यूमर का पता लगाने में मदद करती हैं।
मुलावीसला के अनुसार “यह नई तकनीक स्तन कैंसर का पता लगाने के लिए प्रचलित मैमोग्राफी, अल्ट्रासाउंड और मैग्नेटिक रिजोलेंस जैसी मौजूदा विधियों की पूरक बन सकती है।”
शोधकर्ताओं के अनुसार घने स्तन में कैंसर का पता लगाने के लिए आमतौर पर उपयोग होने वाली मैमोग्राफी की अपनी सीमाएं होती हैं। चर्बीदार स्तन की अपेक्षा घने स्तन में वसा कम और ग्रंथि ऊतक अधिक होते हैं, जो मैमोग्राफी के जरिये ट्यूमर का पता लगाने में अक्सर बाधा पैदा करते हैं।
ट्यूमर क्षेत्र और ग्रंथि के बीच घनत्व में मामूली अंतर होने की वजह से स्तन के ग्रंथि क्षेत्र में स्थित ट्यूमर का पता लगाने में अक्सर दिक्कतें आती हैं और ट्यूमर-ग्रस्त तथा स्वस्थ हिस्से में भरपूर रेडियोग्राफिक कन्ट्रास्ट उपलब्ध कराने में मैमोग्राफी कारगर नहीं हो पाती। इसलिए घने स्तन की जांच के लिए मैमोग्राफी का सीमित उपयोग ही हो पाता है। मैमोग्राफी से रोगी को होने वाली परेशानी और हानिकारक विकिरण के कारण भी इसे पूरी तरह उपयुक्त नहीं माना जाता।
मुलावीसला के अनुसार “अपनी टीम के शोध अनुमान की सफलता को देखते हुए हमारी कोशिश इस तकनीक को किफायती और अधिक पोर्टेबल बनाने की है, ताकि इसका उपयोग आसानी से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके।”
अध्ययनकर्ताओं में मुलावीसला के अलावा गीतिका दुआ भी शामिल थीं। यह अध्ययन शोध पत्रिका बायोमेडिकल ऑप्टिक्स में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)