सरकार असफल या नसबंदी?

नसबंदी के बाद गर्भ ठहरने की शिकायतें देशभर से आ रही हैं, वहीं इसके एवज में मुआवजा लेने के लिए लोगों को अदालत जाना पड़ रहा है।
अस्पतालकर्मियों  की कमी और चिकित्सकों पर काम के अत्यधिक भार के कारण ऑपरेशन के बाद मरीजों की उचित देखभाल नहीं हो पाती है (सायंतनी पालचौधुरी / सीएसई)
अस्पतालकर्मियों की कमी और चिकित्सकों पर काम के अत्यधिक भार के कारण ऑपरेशन के बाद मरीजों की उचित देखभाल नहीं हो पाती है (सायंतनी पालचौधुरी / सीएसई)
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राजस्थान के ग्यासपुर में रहने वाली जीवली और उनके पति राम चंद्र मीणा को इस वर्ष जुलाई में परिवार नियोजन नसबंदी योजना (एफपीआईएस) के तहत मुआवजे के रूप में 30,000 रुपए मिले। जीवली और उनके पति मजदूर हैं। जीवली बताती हैं, “प्रतापगढ़ के जिला स्वास्थ्य केंद्र के डॉक्टर ने कहा कि नसबंदी गर्भ निरोधन का स्थायी तरीका है जिसके बाद मैंने यह ऑपरेशन कराया। इसके बाद हमारे दो बच्चे हुए जिनका पालन-पोषण हमारे लिए कठिन हो रहा है।” इस ऑपरेशन के लिए उसे दो दिन अस्पताल में रहना पड़ना जिसका खर्चा 500 रुपए था और उसकी एक हफ्ते की मजदूरी का भी नुकसान हुआ।

तीन साल बाद उन्हें पता चला कि वह गर्भवती है। राम चंद्र ने बताया, “हमें यह सुनकर झटका लगा क्योंकि तीसरे बच्चे को पालना हमारे लिए मुश्किल था।” हालांकि सरकार ने आश्वासन दिया था कि यदि नसबंदी असफल हो जाती है तो एफपीआईएस के तहत 30,000 रुपए का मुआवजा मिलेगा, फिर भी जीवली और राम चंद्र ने इसे िकस्मत समझ अपना लिया क्योंिक उन्हें पता नहीं था कि मुआवजे के लिए किसका दरवाजा खटखटाना है। तीसरी संतान, मीरा का जन्म जिस अस्पताल में हुआ था वहां बाई ने नसबंदी की थी।

गैर-लाभकारी संस्था प्रयास ने इस मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय में अपील की जिसके बाद 11 साल के इंतजार के बाद जीवली को मुआवजा मिला। सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले प्रयास से जुड़ी छाया पचौली बताती हैं, “हमने असफल नसबंदी का शिकार हुई महिलाओं को बताया कि वे एफपीआईएस के तहत मुआवजे की हकदार हैं जिसके बाद पिछले दो वर्षों के दौरान राजस्थान की 47 और मध्य प्रदेश की 23 महिलाओं ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। अनचाहे गर्भ के कारण हुई मानसिक यातना और वित्तीय नुकसान के लिए चौबीस को मुआवजा मिला।”

बिहार और झारखंड में कार्य कर रहे गैर-सरकारी संगठन हेल्थ वॉच फोरम की देविका िवश्वास का कहना है कि नली को बांधने की प्रक्रिया के कारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इससे अक्सर अस्थानिक गर्भधारण और गर्भाशय नाल में गर्भधारण होता है। वर्ष 2013-14 में बिहार के भागलपुर जिले के दौरे के दौरान देविका को नाथ नगर नामक गांव में असफल नसबंदी के लगभग 20 मामले पता चले। देविका बताती हैं, “उनमें से किसी को पता ही नहीं था कि अगर वे गर्भवती हो जाएं तो उन्हें सरकार से मुआवजा लेना होगा।”

जन स्वास्थ्य अभियान–छत्तीसगढ़ से जुड़ीं सुलक्षणा नंदी कहती हैं कि राज्य के आदिवासी इलाकों में नसबंदी का असफल ऑपरेशन आम बात है जहां सरकार नियमित रूप से नसबंदी शिविर का आयोजन करती है। लेकिन ऐसे कुछ ही मामले सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हो पाते हैं। 2016-17 में ऐसे मामलों की संख्या केवल 10 थी।

नीति में कमी?

विशेषज्ञ बताते हैं कि ऐसे मामले सरकार की जनसंख्या नियंत्रण नीति की खामियों को उजागर करते हैं। ऐसी ही एक खामी के बारे में देविका का कहना है कि नसबंदी अपनाने वाली अधिकांश महिलाएं गरीब हैं, अनपढ़ हैं अथवा बहुत कम पढ़ी-लिखी हैं। पचौली कहती हैं, “खास तौर से नसबंदी कैंपों में ऐसे मामले आते हैं जिन पर वर्ष 2016 में उच्चतम न्यायालय ने प्रतिबंध लगा दिया था फिर भी ये देशभर में आयोजित किए जाते हैं।” यद्यपि नसबंदी प्रक्रिया में उनसे सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कराए जाते हैं फिर भी वे समझ बूझकर सहमति नहीं दे पाती हैं। वह बताती हैं, “गांवों के दौरों के दौरान हमने पाया कि अधिकांश महिलाओं को यह भी नहीं पता कि उन्हें नसबंदी केंद्र से मिले प्रमाण-पत्र को भविष्य के लिए संभालकर रखना होता है।” ऑपरेशन असफल होने पर मुआवजे का दावा करने के लिए इसकी जरूरत होती है।

देविका बताती हैं, महिलाओं को सलाह देने और ऑपरेशन के जोखिम के बारे में जानकारी दिए जाने की व्यवस्था में कमी है क्योंकि अस्पतालों में स्टाफ हमेशा कम होता है और डॉक्टरों को कुछ ही घंटों में नसबंदी के दर्जनों ऑपरेशन करने होते हैं।

इसके अलावा, भारत में असफल नसबंदी की दर 0.5 प्रतिशत के सरकारी दावे से बहुत अधिक होने की आशंका है। यद्यपि नसबंदी के असफल होने के कई कारण होते हैं तथापि नाल को बंद करने में लापरवाही इसका प्रमुख कारण है।

ऐसी लापरवाही, मरीजों के प्रति लगन का अभाव और पारदर्शिता के कारण उच्चतम न्यायालय ने 2016 में केंद्र सरकार को यह आदेश दिया था कि वह नसबंदी के ऑपरेशन में होने वाली जटिलताओं, असफलताओं और भुगतान किए गए दावों सहित नसबंदी से जुड़े सारे आंकड़े राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) की वेबसाइट पर अपलोड करे। लखनऊ के गैर-सरकारी संगठन सहयोग से जुड़ी जसोधरा दासगुप्ता का कहना है कि यद्यपि केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने सभी राज्यों को इस संबंध में पत्र लिखा है तथापि कुछ ने ही ब्योरे अपलोड किए हैं। ये आंकड़े देश में गर्भनिरोधन के सबसे लोकप्रिय तरीके की भयावह तस्वीर पेश करते हैं।

उदाहरण के लिए, वर्ष 2016-17 में उत्तर प्रदेश में 2,86,932 महिलाओं ने नसबंदी कराई थी। इस वर्ष 203 महिलाओं ने ऑपरेशन नाकाम होने की सूचना दी है। हालांकि राजस्थान ने अभी एनएचएम की वेबसाइट पर आंकड़े अपलोड नहीं किए हैं, फिर भी प्रयास द्वारा आरटीआई (सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005) के तहत मांगी गई जानकारी के जवाब से पता चलता है कि 2014-15 में 1,869 महिलाओं ने ऑपरेशन की असफलता की सूचना दी थी। यह संख्या अगले वर्ष 2,086 हो गई। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि उन मामलों को भी शामिल किया जाए जिनकी सूचना नहीं दी गई तो यह संख्या और भी ज्यादा हो सकती है। पचौली कहती हैं, “राजस्थान और मध्य प्रदेश के केवल कुछ ही गांवों में हमें असफल नसबंदी का शिकार बनीं 70 महिलाएं मिलीं। ऐसे में अंदाजा लगा सकते हैं कि ऐसी महिलाओं की तादाद कितनी होगी।”

इन लापता मामलों से सरकार के जनसंख्या को स्थिर करने के लक्ष्य में और देरी होगी जो पहले ही 2045 से आगे बढ़कर 2070 हो गया है। जनसंख्या नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय नीति अपनाने वाला दुनिया का पहला देश बनने के बावजूद भारत विश्व का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है और ऐसा अनुमान है कि 2034 तक यह चीन को पछाड़कर पहले नंबर पर पहुंच जाएगा।

संवेदीकरण ही है समाधान

सरकार के लिए यह समझना जरूरी है कि नसबंदी कौन करा रहा है और ऐसी नीति बनाए जिसमें सही सलाह देने पर ध्यान दिया जाए। दूसरा कदम ऐसे तंत्र की शुरुआत करना है जिसमें स्वास्थ्य कार्यकर्ता नसबंदी कराने वाली महिलाओं पर नजर रखें और ऑपरेशन असफल होने की स्थिति में उसकी सूचना दें।

इससे न केवल परिवारों को बिना देरी के मुआवजा प्राप्त करने में सहायता मिलेगी बल्कि सरकार भी इसमें सुधार कर सकेगी। उदाहरण के लिए, पुरुषों में नसबंदी महिलाओं में नसबंदी की तुलना में काफी आसान है किंतु देश के पुरुषवादी समाज में पुरुषों में छोटा सा भी चीरा लगना असहनीय है, इसलिए महिला नसबंदी का तरीका अपनाना पड़ता है। अब समय आ गया है कि सरकार कार्यक्रमों में पुरुष नसबंदी पर जोर दे तथा दूर-दराज के इलाकों में महिलाओं को गोलियों और गर्भनिरोधन के अन्य साधनों के बारे में जागृत करे।

देविका का कहना है कि सरकार को मुआवजे की राशि बढ़ाकर 4-5 लाख रुपए कर देनी चाहिए, खासतौर पर तब जब नवजात शिशु लड़की हो।

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