चूल्हे में बच्चों का स्वास्थ्य

आंगनबाड़ी केंद्रों में ईंधन के तौर पर लकड़ी व उपलों के इस्तेमाल के चलते वायु प्रदूषण बना बच्चों के लिए बड़ा खतरा
देश के 13.4 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों में भोजन तैयार करने के लिए ठोस ईंधन आधारित चूल्हों का इस्तेमाल होता है। यहां वायु प्रदूषण का स्तर सुरक्षित मानकों से कई गुना अधिक पाया गया
देश के 13.4 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों में भोजन तैयार करने के लिए ठोस ईंधन आधारित चूल्हों का इस्तेमाल होता है। यहां वायु प्रदूषण का स्तर सुरक्षित मानकों से कई गुना अधिक पाया गया
Published on

बच्चों और माताओं को कुपोषण से बचाने के लिए शुरू किए गए आंगनबाड़ी केंद्र एक नई समस्या की वजह बनते जा रहे हैं। आंगनबाड़ी में जाने वाले बच्चों में सांस की बीमारियों का खतरा बढ़ गया है। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवारनमेंट (सीएसई) के एक अध्ययन में सामने आया है कि जिन आंगनबाड़ी केंद्रों में भोजन पकाने के लिए ठोस ईंधन जैसे सूखी लकड़ि‍यों और उपले आदि का इस्तेमाल होता है, वहां की हवा खतरनाक ढंग से प्रदूषित है। आंगनबाड़ी के चूल्हों से निकला धुआं और प्रदूषण फैलाने वाले महीन कण (फाइन पार्टिकल) माताओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहे हैं। ये कण हवा में पाए जाने वाले सामान्य कणों की तुलना में काफी छोटे और स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होते हैं।

मिड डे मील तैयार करने में ठोस ईंधन आधारित चूल्हों के स्थान पर एलपीजी गैस के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए बिहार सरकार और इंडियन एकेडमी ऑफ पीडीऐट्रिक्स के बिहार चेप्टर ने यूनिसेफ के साथ मिलकर एक पहल की है। प्रयोग के तौर पर शुरू की गई इस योजना के सहयोग के लिए एक अध्ययन हुआव, जिसमें सीएसई के शोधकर्ताओं ने गया जिले के डोबी ब्लॉक के 30 आंगनबाड़ी केंद्रों में वायु प्रदूषण की जांच की। इस सर्वेक्षण में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार दो प्रमुख कणों पीएम 2.5 और पीएम 10 की जांच की गई।

हरेक आंगनबाड़ी में शोधकर्ताओं ने 45 मिनट तक हवा की जांच की, पहले 20 मिनट आंगनबाड़ी के भीतर और बाकी समय जब बच्चे बाहर होते हैं। इस तरह आंगनबाड़ी के अंदर और आसपास के वातावरण में वायु गुणवत्ता का पता लगाया गया। चूंकि, भारत में घरों के भीतर वायु प्रदूषण का कोई मानक ही नहीं है इसलिए सीएसई ने आंगनबाड़ी केंद्रों में वायु प्रदूषण के खतरे को समझने के लिए बाहरी वातावरण के वायु प्रदूषण मानकों (ambient air quality) को आधार बनाया। इन मानकों के हिसाब से वातावरण में प्रद्रूषक कणों यानी पीएम की अधिकतम मात्रा 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।

अध्ययन से पता चला कि आंगनबाड़ी केंद्रों पर हवा में फैले अत्यंत सूक्ष्म दूषित कणों (पीएम 2.5) का घनत्व औसतन 2524 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर था। वहीं अपेक्षाकृत बड़े दूषित कणों (पीएम 10) का घनत्व औसतन 2600 माइक्रोग्राम था। अलग-अलग आंगनबाड़ियों में प्रदूषण का स्तर अलग-अलग समय पर भिन्न था। कहीं पीएम 2.5 का स्तर 84 तो कहीं 13,700 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर पाया गया। वहीं पीएम 10 की मात्रा 95 से लेकर 13,800 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के बीच थी। इन सभी आंगनबाड़ी केंद्रों में वायु प्रदूषण का स्तर मानकों से कहीं ज्यादा है।

एक जनवरी 2015 के आंकड़े के अनुसार, देश में कुल 13.4 लाख सक्रिय आंगनबाड़ी केंद्र हैं, जिनमें से 92 हजार अकेले बिहार में हैं। देश के सभी 13.4 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों में मध्यान्ह भोजन तैयार करने के लिए ठोस ईंधन आधारित चूल्हों का इस्तेमाल होता है।

अगर आंगनबाड़ी केंद्रों में प्रदूषण की तुलना भारत सरकार द्वारा तय मानकों से करें तो स्थिति काफी चिंंताजनक है। वायु गुणवत्ता के राष्ट्रीय मानकों के अनुसार, वायु में दूषित कणों (पीएम 2.5 व पीएम 10) की औसत मात्रा दिन भर में क्रमशः 60 और 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। जबकि अध्ययन के नतीजे बेहद हैरान करने वाले हैं। अध्ययन में शामिल सभी आंगनबाड़ि‍यों में वायु प्रदूषण का स्तर मानकों से कई गुना अधिक पाया गया। बेहद महीन प्रदूषक कणों यानी पीएम 2.5 का औसत स्तर 2524 माइक्रोग्राम/घनमीटर पाया गया जो स्वीकृत अधिकतम सीमा से करीब 40 गुना ज्यादा है। किसी भी आंगनबाड़ी की हवा स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित सीमा के भीतर नहीं मिली।

सीएसई के इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता पोलाश मुखर्जी कहते हैं, “आंगनबाड़ी में तीन से छह साल की उम्र के बच्चे आते हैं। इस अवस्था में फेफड़े बहुत नाजुक होते हैं और भयंकर वायु प्रदूषण इन्हें जीवन भर के लिए नुकसान पहुंचाएगा।”

कितना खतरनाक है यह धुआं?
सवाल उठता है कि क्या किसी सरकारी कार्यक्रम को बच्चे के स्वास्थ्य से खिलवाड़ की इजाजत दी जा सकती है? गांवों में आमतौर पर रसोई ईंधन के तौर पर सूखी लकड़ियों और उपलों का इस्तेमाल होता है। इस तरह घर पर तो बच्चों का अधिकांश समय प्रदूषण फैलाने वाले चूल्हों के नजदीक गुजरता ही है, जब ये बच्चे आंगनबाड़ी और स्कूलों में होते हैं, वहां भी इन्हें प्रदूषित हवा मिलती है। यद्यपि इससे होने वाले नुकसान का अंदाजा लगाना मुश्किल है, लेकिन इतना तय है कि ठोस ईंधन से घरों में फैलने वाले धुएं से तीव्र श्वसन संक्रमण होता है। इसकी वजह से विश्व में हर साल करीब 18 लाख बच्चे मौत के मुंह में चलते जाते हैं।

सन 2010 में प्रकाशित ‘ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज’ रिपोर्ट के अनुसार, घरेलू वायु प्रदूषण भारत में दूसरा सबसे बड़ा जानलेवा कारण है, जबकि इसमें आंगनबाड़ी के प्रदूषण को नहीं जोड़ा गया था। घरों में ठोस ईंधन जलने से पैदा वायु प्रदूषण हर साल करीब 10.4 लाख लोगों की मृत्यु और 314 लाख जीवन वर्षों के नुकसान का कारण बनता है। यह आंकड़ा घर के बाहर वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों से कहीं अधिक है। घरों के बाहर वायु प्रदूषण से हर साल करीब 6.27 लाख मौतें होती हैं।

इस रिपोर्ट के मुताबिक, घरों के भीतर उत्पन्न वायु प्रदूषण की बाहरी वायु प्रदूषण में कम से कम 25 प्रतिशत हिस्सेदारी रहती है। अगर घर के अंदर और बाहर वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों को जोड़ दिया जाए तो यह 67 जानलेवा कारणों में सबसे खतरनाक साबित होगा।

घरों में भोजन पकाने के लिए ठोस ईंधन के अत्यधिक इस्तेमाल की वजह से महिलाओं और बच्चों में वायु प्रदूषण का खतरा ज्यादा रहता है, क्योंकि इनका अधिक समय चूल्हे के नजदीक गुजरता है। अनुमान है कि भारत में बच्चों, महिलाओं और पुरुषों को क्रमश: 285 माइक्रोग्राम, 337 माइक्रोग्राम और 204 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर पीएम 2.5 का प्रदूषण रोजाना झेलना पड़ता है।

खाना पकने के दौरान अधिकतम वायु प्रदूषण, रोजाना औसत प्रदूषण के इन आंकड़ों से कई गुना अधिक हो सकता है। चेन्नई स्थित श्री रामचंद्र मेडिकल कॉलेज की कल्पना बालाकृष्णन ने कई अन्य वैज्ञानिकों के साथ अध्ययन कर साबित किया है कि जिन घरों में ठोस ईंधन का इस्तेमाल होता है वहां 24 घंटे के दौरान प्रदूषक कणों का औसत घनत्व 570 माइक्रोग्राम तक हो सकता है, जबकि रसोई गैस का प्रयोग करने वाले घरों में इसकी मात्रा 80 माइक्रोग्राम रहती है। घरों में ठोस ईंधन से पैदा वायु प्रदूषण बाहर फैले वायु प्रदूषण से कहीं ज्यादा खतरनाक होता है। वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि जिन घरों में चूल्हा अंदर की तरफ नहीं होता, वहां भी चौबीस घंटे के दौरान वायु प्रदूषण की मात्रा तय मानकों से अधिक हो सकती है।

दुनिया भर में काफी प्रमाण मिल चुके हैं जो घरों में ठोस ईंधन के इस्तेमाल और महिलाओं व बच्चों में स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याओं जैसे ब्रोंकाइटिस, अस्थमा, टीबी, मोतियाबिंद और गंभीर श्वासन संक्रमण के बीच गहरा संबंध दर्शाते हैं। घर के भीतर वायु प्रदूषण झेलने वाले बच्चों में श्वसन संबंधी संक्रमण का खतरा दो से तीन गुना बढ़ जाता है। छह से 15 साल की कई लड़कियां भी रसोई के कामों में लगी रहती हैं, जिसके चलते अन्य बच्चों के मुकाबले इन पर वायु प्रदूषण की मार ज्यादा पड़ती है।

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले से जुड़े विशेषज्ञ कर्क स्मिथ भारत में घरेलू प्रदूषण पर काफी काम कर चुके हैं। उनका मानना है कि ठोस ईंधन के उपयोग का जोखिम इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि इससे घरों में प्रदूषण बढ़ता है और माताओं के साथ छोटे बच्चे भी घरों में ज्यादा समय गुजारते हैं। नवजात शिशुओं और बच्चों में सांस संबंधी बीमारियों से जूझने वाला प्रतिरोधक तंत्र काफी कमजोर होता है। घरों के अंदर वायु का प्रवाह की दिशा इस खतरे को और भी बढ़ा देती है। चूल्हे के पास माताओं व बच्चों का अधिक समय गुजारना भी एक गंभीर कारक है। इसलिए यह जरूरी है कि पांच साल से कम आयु के बच्चों की गतिविधियों पर ध्यान दिया जाए और घरों के भीतर वायु प्रदूषण से उनका बचाव हो सके।

भारत दुनिया के सर्वाधिक शिशु मृत्यु दर वाले देशों में शामिल है। इसे देखते हुए घरेलू प्रदूषण पर जल्द से जल्द काबू पाना बहुत आवश्यक है। यद्यपि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस ) के नवीनतम दौर (2015-16) के अनुसार, भारत की राष्ट्रीय शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। फिर भी देश अपने निर्धारित लक्ष्यों से काफी पीछे है। प्रति 1000 स्वस्थ जन्म की तुलना में मृत पैदा होने वाले बच्चों की संख्या को 100 से नीचे लाना था और शिशु मृत्यु दर को प्रति हजार 60 से कम करना था। तमाम कोशिशों के बावजूद देश सन 2000 तक इस लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहा। इससे पहले हुए सर्वे (एनएफएचएस-3) से पूर्व पांच वर्षों अर्थात साल 2000 से 2005 के दौरान, प्रत्येक चौदह बच्चों में से एक बच्चा अपना पांचवा जन्मदिन नहीं देख पाता था। इस दुखद स्थिति के लिए निमोनिया और सांस की बीमारियां जिम्मेदार हैं।

बिहार में इस तरह के संक्रमण की दर 6.8 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत की तुलना में काफी अधिक है। यदि खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन का प्रयोग ऐसे ही जारी रहा तो इसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ना तय है। हालांकि, समय के साथ बिहार समेत कई राज्यों में ठोस ईंधन के उपयोग में गिरावट आई है, लेकिन अभी भी इसका प्रयोग काफी ज्यादा हो रहा है। ठोस ईंधन के समग्र उपयोग में गिरावट के बावजूद, जनगणना के अनुसार, ठोस ईंधन से खाना पकाने वाले परिवारों की कुल संख्या बढ़ी है। सन 2001 की जनगणना के मुताबिक, देश में कुल 10.08 करोड़ परिवार खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन का उपयोग करते थे। एक दशक बाद, 2011 की जनगणना से पता चलता है कि ठोस ईंधन का इस्तेमाल करने वाले परिवारों की कुल संख्या बढ़कर 12.09 लाख तक पहुंच गई है।

केंद्र सरकार ने हाल में कई योजनाओं की शुरुआत की है, इनमें ‘उज्ज्वला’ कार्यक्रम भी शामिल है। इसके तहत सरकार गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले करीब डेढ़ करोड परिवारों को रसोई गैस मुहैया कराएगी। अगले तीन वर्षों में पांच करोड़ बीपीएल परिवारों को रसोई गैस मुहैया कराने का लक्ष्य है। सरकार को आंगनबाड़ी जैसी जगहों को भी धुएं और बीमारियों से मुक्त बनाने के लिए रसोई गैस के इस्तेमाल पर जोर देना होगा। इस दिशा में बिहार में जो पहल हो रहा है, उससे देश के अन्य राज्यों को इस दिशा में आगे बढ़ने में मदद मिल सकती है।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in